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वैदिक साहित्य में पृथ्वी विषयक विवरण
कन्हैयालाल गौड एम. ए. साहियरन १७ लाला लजपतराय मार्ग, निगमनिवास
उज्जैन (म. प्र.)
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वेदों में पृथ्वी को ' महीमाता' कहा गया | हो पृथ्वो अपने स्थान पर स्थिर है और सूर्य है, वह सबकी महती जननी है । धुलोक सार्व- | पूरे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करता है। भौम जनक अथवा पिता है । इन दोनों का अयुक्त स्वप्न शुन्ध्यवः अन्तर्भाव अदिति में है, जो सब देवों की सूरो रथस्य नात्यः । माता है।
(ऋ. १०७२।५८) ताभिर्याति स्वयक्तिभिः । ११५०९ ऋग्वेद __पृथ्वी शक्ति को महती जननी है। " पवित्र करनेवाला बुद्धिमान तथा कभी न उसी की शक्ति से प्रकृति चराचर का प्रसव | गिरनेवाला सूर्य अपने रथमें सात घोडे जोडता करती है । समस्त पदार्थ उसी से उद्भूत हुए | है और फिर उन स्वयं जुड जानेवाले घोडौं से हैं । वह 'माता' है जिसकी गोदमें बालनारा- | वह सर्वत्र जाता है।" यण खेलते हैं अथवा जो उनकी रक्षा करती है। आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो ___वह मनुष्य तथा पशुओं की भी जननी ।
निवेशयन्नमृतं मर्त्यच । है । वन्य जन्तु भो उसके परिवार के अंग हैं,
हिरण्मयेन सविता रथेना क्योंकि वह जंगली जीव, नाग सुपर्ण और |
देवोयाति भुवनानि पश्यन् ॥ मत्स्यादि को भी उत्पन्न करनेवाली है।
" सवितादेव स्वर्णिम रथ पर चढकर अन्धउसके विराट प्रसव से औषधि, वनस्पतियाँ
कार मुक्त अन्तरिक्ष के मार्ग में भ्रमण करने
वाले देवताओं और मनुष्यों को अपने-अपने तक का जन्म होता है । जिसके द्वारा वह प्रज
कर्म में लगाते हुए, सम्पूर्ण लोकों का अवलोकन नन कार्य को जिसका वह आदि स्रोत है, सदा
करते हुए आगमन करते हैं।" अग्रसर करती रहती है।
उपरोक्त दोनों ऋचाओं का अध्ययन करने _प्रकृति रूप से यह मातृशक्ति ब्रह्मका एक
से स्पष्ट हो जाता है कि " पृथ्वी नहीं घूमती है अभिन्न अंग है। (ऋ. ३. ९. ४. ३)
| वरन् स्वयं, सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है।" पृथ्वी के आरंभ से अब तक की उसकी | | वेदमत से पृथ्वी स्थिर है, तथा उसकी कहानी बडी रोचक है । इसका कतिपय भाग | उत्पत्ति धन-धान्य उत्पन्न करने तथा प्रजा का प्रामाणिक है और अधिकांश धुंधला है। कुछ भी । पोषण करने के लिए की गई है।
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