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तत्वज्ञान-स्मारिका "सन् १८१४ में 'अटलांटिक' नाम की आधुनिक भूगोल की प्राचीन विवरण से एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी । उसमें भारत- तुलना करने में अनेक कठिनाइओं का सामना वर्षके चार चित्र बनाए गये हैं:-पहले नक्शे में | होना अवश्यंभावी है और सम्भवतः अनेक विषईसा के पूर्व १० लाख वर्ष तक की स्थिति मताओं का कारण हो सकता है। बताई गई है।
दस करोड़ वर्ष पुराने कीड़े की खोज ने ___ उस समय भारत के उत्तर में समुद्र नहीं | भू-भाग के परिवर्तन पर नया प्रकाश डाला है। था । बहुत दूर अक्षांश ५५ तक धरातल ही भारतीय जन्तु-विद्यासमिति (जियोलोजिकल था, उसके उपरान्त ध्रुव पर्यन्त समुद्र था। सर्वे आफ इन्डिया) के भूतपूर्व डाइरेक्टर डा. (अर्थात् नोर्वे, स्वीडन आदि देश भी विद्य- वी० एन० चौपड़ा को बनारस के कुओं में एक मान न थे।
आदिम युग के कीड़े का पता चला जिसके दूसरा नक्शा ई० पू० ८ लाख से २ लाख | पुरखे करीब दस करोड़ वर्ष पहिले पृथ्वी पर वर्ष की स्थिति बतलाता है। चीन, लासा व | वास करते थे। हिमालय आदि सब उस समय समुद्र में थे.... वह कीड़ा एक प्रकार के झींगे (ककड़ें) दक्षिण की ओर वर्तमान हिमालय की चोटी का | की शक्ल का है। यह शीशे के समान पारदर्शी प्रादुर्भाव हो गया था । उसे उस समय भारतीय | है, और इसके १०० पैर है । यह कीड़ा आकार लोग 'उत्तरगिरि' कहते थे....।
में बहुत छोटा है। तीसरा चित्र ई० पू० २ लाख से ८० भू-मण्डल–निर्माण के इतिहास में करीब हजार वर्ष तक की स्थिति बतलाता है। १० करोड़ वर्षे पूर्व (मेसोजोइक) काल में यह ___ इस काल में जैसे-जैसे समुद्र सूखता गया,
कीड़ा पृथ्वी पर पाया जाता था।
___ अभी तक इस किस्म के कीड़े केवल वैसे-वैसे इस पर हिमपात होता गया । जिसे
| आस्ट्रेलिया, टैसमिनिया, न्यूजीलैंड तथा दक्षिणी आजकल हिमालय के नाम से पुकारा जाता है।
आफ्रिका में देखे जाते हैं। चौथा चित्रई० पू० ८० हजार से ९५६४
इस कीड़े के भारतवर्ष में प्राप्त होने से मूवर्ष पर्यन्त की स्थिति को बतलाता है। | विज्ञानवेत्ताओं का यह अनुमान सत्य मालूम
इन वर्षों में समुद्र घटते-घटते पूर्व अक्षांश | पड़ता है कि अत्यन्त पुरातन-काल में एक ७८.१२ व उत्तर अक्षांश ३८.४३ के प्रदेश | समय भारत, आस्ट्रेलिया, दक्षिणी, आफ्रिका, में एक तालाब के रूप में बतलाया गया है। । अमेरिका, टैसमिनिया, न्यूजीलैंड और एशिया
इन उद्धरणों से स्पष्ट विदित है कि- । का दक्षिणी भाग एक साथ मिले हुए थे। १-अनेकान्त वर्ष १ किरण ५ पृ० ३०८. “जैन भूगोलवाद "-ले० श्री बाबू घासीरामजी जैन S. S. C. प्रोफेसर " भौतिकशास्त्र" ।
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