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________________ ६८] तत्त्वज्ञान स्मारिका वस्तुओं में अपने स्वरूप के समान, पर स्वरूप | किया गया है। प्रथम और द्वितीय भंग में विधि की सत्ता भी मानी जाए तो उनमें स्व-पर और निषेध का पृथक्-पृथक् प्रतिपादन किया विभाग किसी प्रकार घटित नहीं हो सकेगा। गया किन्तु तीसरे भंग में क्रमशः दोनों का। उसके अभाव में तो गुड और गोबर एक हो चतुर्थ भंग जायेगा, एतदर्थ प्रथम भंग का अर्थ है घट की __" स्याद् अवक्तव्यो घटः " यह चतुर्थ भंग सत्ता सभी अपेक्षाओं से नहीं किन्तु एक है। शब्द की शक्ति सीमित है। जब वस्तुगत अपेक्षा से है। किसी भी धर्म की विधि का उल्लेख करते हैं, द्वितीय भंग उस समय उसका निषेध रह जाता है और जिस " स्याद् नास्ति घटः " यह द्वितीय भंग समय निषेध का प्रतिपादन करते हैं तब विधि है। प्रथम भंग में स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से | रह जाती है। विधि और निषेध का क्रमशः अस्तित्व का प्रतिपादन था, तो द्वितीय भंग में प्रतिपादन अस्ति,-नास्ति के रूप में प्रथम और पर-चतुष्टय की अपेक्षा से निषेध किया गया। दूसरे भंग में किया गया है, तीसरे भंग में अस्ति, है। प्रत्येक पदार्थ का विधि रूप भी और निषेध | | नास्ति का क्रमशः उल्लेख किया गया है, किन्तु रूप भी है। अस्तित्व साथ नास्तित्व भी रहा विधि-निषेध की युगपद् वक्तव्यता में कठिनाई है। हआ है। विद्यानन्दी ने कहा है-सत्ता का उसका समाधान अवक्तव्य शब्द के द्वारा किया निषेध, स्वाभिन्न अनन्त पट की अपेक्षा से है। गया है। यदि पर की अपेक्षा के समान स्व की अपेक्षा से ___ 'स्याद् अवक्तव्य' भंग बताता है कि घट भी अस्तित्व का निषेध माना जाये तो धट | की वक्तव्यता युगपद् में नहीं क्रम में ही होती है। निःस्वरूप हो जाए"। यदि निःस्वरूपता स्वीकार | ‘स्याद् अवक्तव्य ' भंग से यह स्पष्ट हो जाता करें तो स्पष्ट रूप से सर्व-शून्यता का दोष है कि अस्तित्व-नास्तित्व का युगपद् वाचक कोई आ जाएगा, इसलिए द्वितीय भंग यह बताता | भी शब्द नहीं है. इसलिए विधि-निषेध का युगहै कि पररूपेण ही घट कथंचित् नहीं है। पत्त्व अवक्तव्य है। किन्तु यह ध्यान रखना तृतीय भंग चाहिए कि वह अवक्तव्यत्व सर्वथा सर्वतो . " स्याद् अस्तिनास्ति घटः " यह तृतीय भावेन नहीं है। यदि इस प्रकार माना भंग है । इसमें पहले विधि की और फिर निषेध | जाएगा तो एकान्त अवक्तव्य का दोष पैदा होगा, की क्रमशः विवक्षा की जाती है। इसमें स्व- जो मिथ्या होने से मान्य नहीं है। ऐसी चतुष्टय की अपेक्षा से सत्ता का और पर-चतु- स्थिति में हमें घट की घट शब्द से या किसी ष्टय की अपेक्षा से असत्ता का क्रमशः कथन | भी अन्य शब्द से यहाँ तक कि अवक्तव्य १६ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक १।६।५२ १७ तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक १४६५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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