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________________ सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन शब्द से भी नहीं कह सकेंगे। वस्तु का शब्द | नहीं है, घट अवक्तव्य है। इस प्रकार कहा द्वारा प्रतिपादन करना असंभव हो जाएगा | गया है। और वाच्य-वाचक भाव की कल्पना की कोई चतुष्टय की परिभाषा स्थान ही न रह जाएगा । इसलिए स्यात् अव विधि और निषेध से प्रत्येक वस्तु का क्तव्य भंग सूचित करता है कि विधि-निषेध का नियत रूप में परिज्ञान होता है। स्व-चतुष्टय से युगपत्त्व अस्ति या नास्ति शब्द से अवक्तव्य है जो वस्तु सत् है वही वस्तु परचतुष्टय से असत् किन्तु यह अवक्तव्यत्व सर्वथा नहीं है । अवक्तव्य है।" द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव यह चतुष्टय शब्द से तो वह युगपत्त्व वक्तव्य हो है । है। स्व-द्रव्य रूप में घट पुद्गल है, चेतन पाचवाँ भंग आदि पर-द्रव्य नहीं । स्व-क्षेत्र रूप में ___ "स्याद् अस्ति अवक्तव्यो घटः" यह पांचवाँ | कपालादि-स्वावयवों में हैं, तन्तु आदि परभंग है । यहाँ पर पहले समय में विधि और अवयवों में नहीं। स्वकाल रूप में वह अपने दूसरे समय में युगपत् विधि-निषेध की विवक्षा वर्तमान पर्यायों में है, किन्तु पर-पदार्थो के की गई है। इसमें पहले अस्ति के द्वारा स्वरूप से घट की सत्ता का कथन किया जाता है और पर्यायों में नहीं है। स्वभाव रूप में स्वयं के लाल आदि गुणों में है, पदार्थों के गुणों दूसरे अवक्तव्य अंश के द्वारा युगपत् विधि-निषेध का प्रतिपादन किया जाता है । पाँचवें भंग का में नहीं। अर्थ है घट है, और अवक्तव्य भी है। स्याद्वाद-मंजरी" में व्यवहार-दृष्टि को छठा भंग लक्ष्य में रखकर द्रव्य की अपेक्षा पार्थिवत्व, "स्याद् नास्ति अवक्तव्यो घटः' यहाँ पर | क्षेत्र की अपेक्षा पाटलिपुत्रकत्व, काल की अपेक्षा पहले समय में निषेध और दूसरे समय में एक शैशिरव और भाव की अपेक्षा श्यामत्व रूप साथ (युगपद्) विधि-निषेध की विवक्षा होने से लिखा है। घट नहीं है और वह अवक्तव्य है, यह कथन प्रत्येक वस्तु स्व-द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल किया गया है। | और स्व-भाव से सत् है; पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर सातवाँ भंग -काल और पर-भाव से असत् है । इस प्रकार "स्याद् अस्ति नास्ति अवक्तव्यो घटः" । एक ही वस्तु सत् और असत् होने से बाधा और यहाँ पर क्रम से पहले समय में विधि, दूसरे विरोध नहीं है। विश्व का प्रत्येक पदार्थ स्वसमय में निषेध और तीसरे समय में एक साथ चतुष्टय की अपेक्षा से है, पर-चतुष्टय की में यगपद् विधि-निषेध की दृष्टि से घट है, घट अपेक्षा से नहीं है। १८ पंचाध्यायी १।२६३ १९ स्यावाद मंजरी, कारिका २३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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