SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० तत्त्वज्ञान स्मारिका । प्रत्येक भंग निश्चयात्मक है, अनिश्चयात्मक | से यह प्रयोग किया जाता है । इसी तरह नहीं । इसके लिए कई बार एव (ही) शब्द का | "पार्थो धनुर्धरः ” में “ एव" का प्रयोग प्रयोग भी होता है, जैसे " स्याद् घटः अस्त्येव" नहीं हुआ है नहीं हुआ है किन्तु "अर्जुन ही यहाँ पर ' एवं ' शब्द स्व-चतुष्टय की अपेक्षा | धनुर्धर है" यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है।" यही निश्चित रूप से घट का अस्तिव प्रकट करता है। बात यहाँ पर भी है । 'अस्ति घटः' कहने पर " एव" का प्रयोग न होने पर भी प्रत्येक भो किसी अपेक्षा से घट है ऐसा अर्थ स्वतः कथन को निश्चयात्मक ही समझना चाहिए । | | निकल आता है किन्तु भ्रान्ति-निवारणार्थ स्यादवाद सन्देह और अनिश्चय का समर्थक नहीं | "स्यात्' शब्द का प्रयोग करना चाहिए । है। चाहे " एव" शब्द का प्रयोग हो या न आचार्य हेमचन्द्र ‘स्यात्" को अनेकान्त–बोधक हो किन्तु यदि कोई वचन-प्रयोग स्याद्वाद | मानते हैं ।२२ भट्ट अकलंक स्यात् को सम्यगू सम्बन्धी है तो वह निश्चित ही है, वह " एव" | अनेकान्त और सम्यग् एकान्त उभय का वाचक पूर्वक हो है। मानते हैं, इसलिए उन्हें नय और प्रमाण दोनों स्यात् शब्द का प्रयोग में स्यात् इष्ट है । सप्तभंगी के प्रत्येक-भंग में स्वधर्म मुख्य ___ अन्य दर्शनों में होता है और अन्य-धर्म गौण होते हैं। गौण और मुख्य की विवक्षा के लिए ही " स्यात् " शब्द . हमने पूर्व यह बताया कि अस्ति, नास्ति का प्रयोग किया जाता है । " स्यात् " शब्द और अवक्तव्य ये तीन मूल भंग हैं। अद्वैत जहाँ विवक्षित धर्म की मुख्य रूप से प्रतीति वेदान्त, बौद्ध और वैशेषिक दर्शन की दृष्टि से कराता है, वहाँ अ-विवक्षित धर्म का पूर्ण रूप से | मूल तीन भंगों की योजना इस प्रकार की जा निषेध न कर उसका गौण-रूप से उपस्थापन | सकता है ! करता है । शब्दशक्ति और वस्तुस्वरूप की विवे- | अद्वैत वेदान्त ब्रह्म को ही एकमात्र तत्त्व चना में वक्ता और श्रोता कुशल हैं तो "स्यात्" | मानता है । पर वह अस्ति होकर भी अवक्तव्य शब्द के प्रयोग की आवश्यकता नहीं रती। | है, सत्तारूप होने पर भी वह वाणी के द्वारा अनेकान्त का प्रकाशन उसके बिना भी हो शकता | कहा नहीं जा सकता । इसलिए वेदान्त में ब्रह्म है। उदाहरणार्थ-अहम् अस्मि–मैं हूँ, इस वाक्य "अस्ति" होकर भी अवक्तव्य है। बौद्ध दर्शन में 'अहम्' और 'अस्मि' ये दो पद हैं। इन दोनों में अन्यापोह नास्ति होकर भी अवक्तव्य है। में से एक का प्रयोग होने से दूसरे का अर्थ अपने | कारण कि वाणो से अन्य का सर्वथा अपोह आप मालूम हो जाता! तथापि स्पष्ट की दृष्टि करने पर किसी भी विधिरूप वस्तु का परिज्ञान २० लघीयत्रय प्रवचस प्रवेश २२ स्यावाद मंजरी का० ५ २१ तखार्थ श्लोक वार्तिक ११६५६ २३ लघीयत्रय ६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy