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________________ सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन (१) स्याद् अस्ति प्रथम भंग (२) स्याद् नास्ति सतभंगी को घट में घटाएँगे । घट में अनंत (३) स्याद् अस्ति-नास्ति धर्म है । उनमें एक धर्म सत्ता भी है । "स्याद् (४) स्याद् अवक्तव्य अस्ति घटः" घट कथंचित् सत् है। घट में | अस्तित्व धर्म किस अपेक्षा से है, क्यों है और (५) स्याद् अस्ति-अवक्तव्य कैसे है ? इसका उत्तर प्रथम भंग देता है। . (६) स्याद् नास्ति-अवक्तव्य कथंचित् स्व-चतुष्टय की अपेक्षा से घट का (७) स्याद् अस्ति–नास्ति-अवक्तव्य अस्तित्व है। हम जब यह कहते हैं कि घडा है इस सप्तभंगी में अस्ति, नास्ति और अब तब हमारा उद्देश्य यही होता है कि घडा स्वक्तव्य ये मूल तीन भंग है । इसमें तीन द्विसंयोगी | द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्व-भाव की और एक त्रिसंयोगी इस तरह चार भंग मिलाने | दृष्टि से है । घट के अस्तित्व की जो यहाँ पर से सात भंग होते हैं । अस्ति--नास्ति, अस्ति- विधि है वही भंग है। स्व की अपेक्षा से अस्तित्व अवक्तव्य, और नास्ति-अवक्तव्य ये तीन द्विसं. | की विधि है । यदि किसी पदार्थ में स्वरूप से योगी भंग हैं । मूल तीन भंग होने पर भी फलि- अस्तित्व का होना स्वीकार न किया जाय तो तार्थ रूप से सात भंगों का उल्लेख भी आगम | उसकी सत्ता ही नहीं रह जायगी । वह सर्वथा साहित्य में प्राप्त होता है। जैसा कि पूर्व में असत् हो जायगा और इस प्रकार समग्र विश्व भगवती सूत्र के उल्लेख से भंग बताये हैं, उनमें | शून्यमय बन जाएगा। अतएव प्रत्येक पदार्थ सात भंगों का प्रयोग हुआ हैं । पंचास्तिकाय | में स्व-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से सत्ता अवश्य में आचार्य कुन्दकुन्द ने भी सात भंगों का | स्वीकार करनी चाहिए । किन्तु पर की अपेक्षा नाम बताकर सप्त भंग का प्रयोग किया है"। | से वह नहीं है । कहा है-" सर्वमस्ति स्वरूपेण, भगवती सूत्र में तथा विशेषावश्यक भाष्य में | पररूपेण नास्ति च" संसार की प्रत्येक वस्तु अवक्तव्य को तीसरा भंग माना है। पंचास्ति- का अस्तित्व स्वरूप से होता ही है, पर रूप से काय में कुन्द-कुन्दने चौथा भंग माना है। नहीं । यदि स्वयं से भिन्न अन्य समग्र पर-स्व और प्रवचनसार" में कुम्दकुन्द ने ही तीसरा | रूपों में भी घट का अस्तित्व हो तो फिर घट, भंग माना है। बाद के आचार्यों की रचनाओं | घट नहीं । पट का कार्य आच्छादन आदि में दोनों क्रमों का उल्लेख मिलता है। करना हैं। स्मरण रखना चाहिए कि यदि १० भगवती सूत्र शतक १२, उ० १०, प्र० १९-२० १२ भगवती सूत्र शतक १२, उ० १०, प्र० १९-२० १३ विशेषावश्यक भाष्य गा० २-३२ १४ पंचास्तिकाय गा० १४ १५ प्रवचनसार: ज्ञयाधिकार गा०११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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