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________________ ७६ ] सत्त्व अथवा यह तो एक विवक्षा -भेद है । असत्त्व के द्वारा समग्र वस्तु का ग्रहण किया जा सकता है तब सत्त्वासत्त्वादि रूप से मिले हुए दो या तीन धर्मों के द्वारा भी अखण्ड वस्तु का परिज्ञान क्यों नहीं हो सकता ! इस लिए सातों ही भंग सकलादेशी और विकला - देशी दोनों ही हो सकते हैं । तत्वज्ञान - स्मारिका सप्तभंगी का इतिहास सुदूर अतीतकाल से ही भारतीय दर्शनों में विश्व के सम्बन्ध में सत्, असत्, उभय और अनुभय ये चार पक्ष चिंतन के मुख्य विषय रहे हैं। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में विश्व के सम्ब न्ध में सत्" और असत् रूप से दो विरोधी कल्पनाओं का उल्लेख है । उक्त सूक्त के ऋषि के सामने दो मत थे । कितने ही जगत् के आदि कारण को सत् कहते थे, दूसरे असत् । जब ऋषि के सामने यह प्रश्न आया तब उन्होंने अपना तृतीय मत प्रदर्शित करते हुए कहा- सत् भी नहीं है, असत् भी नहीं हैं किन्तु अनुभय है । इस प्रकार सत् असत् और अनुभय ये तीन पक्ष ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं। ३२ यही तथ्य उपनिषद् साहित्य में भी प्राप्त होता है । वहाँ पर भी दो विरोधी पक्षों का समर्थन मिलता है । ' तदेजति तन्नैजति ,33 Jain Education International ર૪ २५ २६ अणोरणीयान् महतो महीयान् " " सदसद्वरेंयम् " आदि वाक्यों में स्पष्ट रूप से दो विरोधी धर्म स्वीकार किये गये हैं । इस परम्परा में तृतीय पक्ष सदसत् अर्थात् उभय का बनता है और जहाँ सत् और असत् दोनों का निषेध किया गया है वहाँ अनुभय का चतुर्थ पक्ष बन गया। इस तरह उपनिषदों में सत् असत्, सदसत् और अनुभय ये चार पक्ष प्राप्त होते हैं। अनुमय पक्ष को अवक्तव्य भी कहते हैं । अवक्तव्य के तीन अर्थ है- (१) सत् और असत् दोनों का निषेध करना ( २ ) सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना (३) सत् और असत् दोनों को अक्रम अर्थात् युगपद् स्वीकार करना । अवक्तव्य तो उपनिषद साहित्य का मुख्य सूत्र रहा है । जहाँ पर अवक्तव्य को तृतीय स्थान दिया गया है वहाँ पर सत् और असत् दोनों का निषेध जानना चाहिए । जहाँ अवक्तव्य को चतुर्थ स्थान दिया गया है, वहाँ सत् असत् और सदसत् तीनों का निषेध जानना चाहिए | अवक्तव्यता सापेक्ष और निरपेक्ष रूप से दो प्रकार की है । सापेक्ष अवक्तव्यता वह है जिसमें तत्त्व सत्, असत् और सदसत् रूप से जो अवाच्य है, उसकी झलक होती है। प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक आचार्य नागार्जुन ने तो सत्, असत्, सदसत् और अनुभय इन चार दृष्टियों 66 ३१ एक सद् बहुधा वदन्ति । ऋग्वेद १११६४।४६ ३२ सदसत् दोनों के लिए देखिये- ऋग्वेद १०।१२९ ३३ ईशोपनिषद्, ५ ३५ छान्दोग्योपनिषद् ३।१९।१ ३७ (क) केनोपनिषद् ११४ ३४ छान्दोग्योपनिषद् ६२ ३६ तैत्रिय ० २।४ (ख) कटोपनिषद् २।६।१२ For Private & Personal Use Only (ग) माण्डूक्योपनिषद् ७ www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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