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________________ सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन से तत्त्व को अवाच्य माना है । उन्होंने स्पष्ट | (३) सयंकतं परंकतं च दुक्खंति ? शब्दों में कहा है कि वस्तु चतुष्कोटि-विनिर्मुक्त | (४) असयंकारं अपरंकारं दुक्खंति ? है । इस प्रकार सापेक्ष अवक्तव्यता एक दो, तीन महाबीनकालीन तत्त्वचिन्तक संजयलद्विया चार पक्षों के निषेत्र पर खडी होती है । पुत्त के अज्ञानवाद में भी उक्त चार पक्षों की जहाँ पर तत्त्व न सत् हो सकता है, न असत् | उपलब्धि होती है। संजयवेलट्रिपुत्त इन प्रश्नों हो सकता है, न सत् और असत् उभयरूप हो का उत्तर न “ हाँ" में देता था और न "ना" सकता है, न अनुभय हो सकता (ये चारों पक्ष | में देता था । किसी भी विषय में उसका कुछ एक साथ हों या पुथक्-पृथक् हों) वहाँ पर / निश्चय नहीं था । बुद्ध के सामने जब इस प्रकार सापेक्ष अवक्तव्यता है । पक्ष के रूप में जो के प्रश्न आते तब वे अव्याकृत कह देते थे पर अवक्तव्यता है वह सापेक्ष अवक्तव्यता है। संजय उनसे एक कदम आगे था । वह न 'हाँ' निरपेक्ष अवक्तव्यता वह हैं जहाँ पर तत्त्व को कहता, न 'ना' कहता, न अव्या कृत कहता, न सीधा वचन से अगम्य कहा जाता है। व्याकृत कहता । किसी भी प्रकार का विशेषण ___बुद्ध के विभज्यवाद और अव्याकृतवाद में प्रयोग करने में उसे भय सा अनुभव होता था। भी उक्त चार पक्षों का उल्लेख मिलता है। वह किसी भी विषय में अपना निश्चित मत प्रकट सान्तता और अनन्तता, नित्यता और अनित्यता | नहीं करता था । वह संशयवादी था । जो स्थान आदि प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कहा है। | पाश्चात्य दर्शन में " ह्यूम' का है वही स्थान जैसे - भारतीय दर्शन में संजय का है । ह्यूम का भी यह (१) होति तथागतो परं मरणाति ? मन्तव्य था कि हमारा ज्ञान निश्चित नहीं है (२) न होति तथागतो परं मरणाति ? इसलिए हम किसी अंतिम तत्त्व का निर्णय नहीं (३) होति च न होति च तथागतो परं | कर सकते । सीमित अवस्था में कहते हुए सीमा मरणाति? | के बाहर तत्त्व का निर्णय करना हमारी शक्ति से (४) नेव होति न न होति तथागतो परं । परे हैं। जिन प्रश्नों के विषय में संजय ने विक्षेपवादी वृत्ति का परिचय दिया वे यह है । जैसे-४० उक्त अव्याकृत प्रश्नों के अतिरिक्त भी अन्य (१) परलोक है ? प्रश्न त्रिपिटक में ऐसे हैं, जो इन चार पक्षों को परलोक नहीं है ? ही सिद्ध करते हैं परलोक है और नहीं हैं ? (१) सयंकतं दुक्खंति ? न परलोक है और न नहीं है ? (२) परंकतं दुक्खंति ? xxx ३८ संयुक्त निकाय ३९ संयुक्त निकाय मरणाति ८ ४० दीधनिकाय-सामअफलसुत्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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