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________________ आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा [४३ अतः उनके अवयवी होने का क्या | जो बहुप्रदेशीय द्रव्य हैं, वे अस्तिकाय है तात्पर्य है ? और जो एक-प्रदेशीय द्रव्य हैं वह अनस्तिकाय है __पुनश्च कायत्व का अर्थ सावयवत्व मानने | अस्तिकाय और अनस्तिकाय की अवमें एक कठिनाई यह भी है कि परमाणु तो अवि- | धारणा में इस आधार को स्वीकार कर लेने पर भाज्य, निरंश और निरवयवी है तो क्या वह | पूर्वोक्त कठिनाईयां बनी रहती हैं। प्रथम तो धर्म, अस्तिकाय नहीं है ? अधर्म और आकाश ये तीनों स्व-द्रव्य-अपेक्षा ___ जब कि जैनदर्शन के अनुसार परमाणु | से तो एकप्रदेशी हैं, क्योंकि अखण्ड हैं, पुनः पुद्गल का ही एक रूप है और पुद्गल अस्ति- | | परमाणु-पुद्गल भी एकप्रदेशी है । काय माना गया है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में तो उसे अप्रदेशी प्रथम इन प्रश्नों के संबन्ध में दार्शनिकों | भी कहा गया है, क्योंकि इन्हें अस्तिकाय नहीं का प्रत्युत्तर यह होगा कि कहा जायेगा? ___ यद्यपि धर्म, अधर्म और आकाश अविभाज्य एवं अखण्ड द्रव्य है; किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा से यहाँ भी जैन-दार्शनिकों का सम्भावित ये लोकव्यापी हैं, अतः क्षेत्र की दृष्टि से इनमें प्रत्युत्तर वही होगा जो कि पूर्वप्रसंग में दिया सावयवत्व की अवधारणा या विभाग की कल्पना गया है। की जा सकती है। धर्म, अधर्म और आकाश में बहुप्रदेशत्व यद्यपि यह केवल वैचारिक-स्तर पर की | द्रव्यापेक्षा से नहीं, अपितु क्षेत्र-अपेक्षा से है । गई कल्पना या विभाजन हो है। द्रव्य-संग्रह में कहा गया हैदूसरे प्रश्न का प्रत्युत्तर यह होगा कि यावन्मानं आकाशं अविभागि पुद्गलावष्टब्धम् । यद्यपि परमाणु स्वयं में निरंश, अविभाज्य और तं खलु प्रदेशं जानीहि सर्वाणुस्थानदानाहम् ॥ निरवयव है, अतः स्वयं तो कायरूप नहीं है, --२७ (संस्कृतछाया) किन्तु वे ही परमाणु स्कन्ध बनकर कायत्व या प्रो. जी. आर. जैन भी लिखते हैं सावयवत्व को धारण कर लेते हैं, अतः उन में “Pradesh is the unit of space कायत्व का सद्भाव मानना चाहिए। occupied by one indevisible atom fo __ पुनः परमाणु में अवगाहनशक्ति है, अतः | matter.' उसमें कायस्व का सद्भाव है । अर्थात् “प्रदेश आकाश की वह सबसे जैन दार्शनिकों ने अस्तिकाय और अनस्ति- छोटी ईकाई है जो एक पुद्गल-परमाणु घेरता काय के वर्गीकरण का एक आधार बहुप्रदेशत्व है।' विस्तारवान होने का अर्थ क्षेत्र में प्रसाभी माना है। | रित होना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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