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________________ १२२ ] तत्त्वज्ञान-स्मारिका यहां भूत, प्रेत, पिशाच, अवस्मार, ब्रह्म- | उपसंहार राक्षस, कूष्माल्ड, विनायक आदि निवास यद्यपि यह कहने वाले नास्तिकप्राय बहुत करते हैं। से लोग हैं, जो ऐसे भुवन-विज्ञान को निराधार ३-सुतल-लोक-यह वितल--लोक से नीचे हैं।। अथवा कल्पना-प्रसूत साहित्य की कोटि का यहां भगवान् कृपा से अनुगृहीत, आत्म-समर्पण मानते हैं, किन्तु जैसे-जैसे विज्ञान अपने पंख के अभिलाषी, प्रभु के प्रवर भक्त अपनी भक्त फैला रहा है, वैसे ही इस विज्ञान की सत्यता मण्डली के साथ निवास करते हैं । सम्मुख आ रही है । हजारों वर्षों से चली मा ४-तलातल-लोक-उपर्युक्त लोक से नीचे रही भारतीय-संस्कृति में इस लोक-विज्ञान का इस लोक की स्थिति है। महान् आदर है। यहां मायावी मय और उनके अनुचर प्रत्येक आस्तिक भारतीय इन लोकों का सादर-स्मरण अपने दैनिक और नैमित्तिक धार्मिक रहते हैं। कृत्यों में करता आया है। ५-महातल-लोक-यह तलातल के नीचे । विद्यमान है। भारतवर्ष की महिमा का स्मरण इन लोको के ज्ञान के बिना अपूर्ण ही कहा जाएगा। तथा यहां तक्षकादि सर्पगणों की स्थिति है। ___ जो लोक इस आर्ष-विज्ञान को अनुपादेय ६-रसातल-लोक-इस लोक की स्थिति मानते हैं, वे वस्तुतः दया के पात्र हैं। महातल के नीचे है। क्योंकि उनका जीवन चार्वाक के सिद्धान्तों के यहां दैत्य, दानव, निवात, कवच प्रभृति अनुसार केवल 'होटल में खाओ और होस्पीरहते हैं। टल में मर जाओ' का ही अनुसरण कर रहा है। ७-पाताल-लोक-पूर्वोक्त सभी लोकों के अस्तु ! हमारा तो यहो निवेदन है कि नीचे यह लोक है। प्रत्येक विवेकी-मानव को ऐसे तत्वों का अनुयहां वासुकी आदि साधिराज सपरिवार | शीलन करते हुए सत्य को साधना में अग्रसर निवास करते हैं। होना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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