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________________ । १०७ गुजरात का सारस्वत नगर पाटन और हिन्दी इसके अतिरिक्त 'दिक्पट-चौरासी बोल' “विरह दीवानी फिरूँ ढूँढ़ती, पीउ पीउ 'समाधिशतक', 'समताशतक', 'जसविलास' | करके पोकारेंगे।" आदि इनकी सशक्त हिन्दी कृतियाँ हैं। यशोविजयजी की वाणी प्रभावोत्पादक, 'जसविलास' में भक्ति, वैराग्य तथा विश्वप्रेम | भाषा प्रसाद-गुण सम्पन्न, शैली सरसता से पूर्ण के १०० पद-गीत एवं स्तवन संकलित है। तथा छन्द शास्त्रीय राग-रागनियों में निबद्ध हैं। भक्तिरूपी निधि प्राप्त करने के पश्चात् भक्त के ___पाटन के एक ऐसे ही यशस्वी कवि और लिए हरि-हर और ब्रह्मा की निधियां भी जैनाचार्य हो गये हैं, जिसका नाम जिनहर्ष है। तुच्छ लगने लगती हैं, उस रस के आगे अन्य कविवर जिनहर्ष की साहित्य-साधना का सभी रस फीके लगने लगते हैं, खुले मैदान में काल संवत् १७०४ से प्रारंभ होकर पचास वर्ष माया, मोहरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो तक निरंतर चलता रहा। जाती है इनकी रचनाएँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं सरस हैं। हम मगन भए प्रभु ध्यान में । जिनहर्ष ने जन्म से ही कवि-हृदय पाया बिसर गई दुविधा तन-मग की, था । गुजराती, राजस्थानी और हिन्दी इन तीनों अचिरा सुत गुन ज्ञान में । भाषाओं पर इनका समान अधिकार था । जिन हरि-हर ब्रह्म पुरन्दर की ऋद्धि, हर्ष का व्यक्तित्व बडा ही आकर्षक तथा मोहक आवत नहिं कोउ मान में । था । अपने सद्गुणों, नियमादि के प्रति कठोरता चिदानन्द की मोज मची है, तथापि स्वभाव एवं जीवन की सरलता से लोगों समता रस के पान में ॥ के हृदयों को जीत लिया था । चित्तदमन, इन्द्रियनिग्रह आदि को अन्य कवि की दृष्टि में साधु वही है, जिसके हृदय संतों की भाँति यशोविजयजी ने भी अपने काव्य में समता का भाव उत्पन्न हो गया हो । कविवर का विषय बनाया है। | इसी समता-रस में डूबे रहते थे। कवि का "जब लग मन आवे नहि ठाम । | व्यक्तित्व परम भक्त और उद्बोधक का था । वे प्रेममार्गी और नीतिज्ञ रहे हैं। तब लग कष्ट-क्रिया सवि निष्फल ज्यों गगने चित्राम।" | उन्होंने अपने समय की सभी काव्य | शैलियों में रचनाएँ प्रस्तुत कर साहित्य-भण्डार जान की शुष्कता ही नहीं, भक्ति की | को भरा है तथा अपने को सच्चे अर्थ में सारस्निग्धता भी इनके काव्य में है। स्वत सिद्ध किया है। उनकी प्रेम-दिवानी आत्मा पिउकी रट | कवि की कृतियों की एक लम्बी सूची लगाये बैठी है | 'जिनहर्ष ग्रंथावली' में श्री अगर चन्द नाहटाजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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