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________________ पातंजल योगशास्त्र के अनुसार भुवनों का स्वरूप - डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी, नईदिल्ली योगसूत्र द्वारा भुवनज्ञान का संकेत महर्षि पतंजलि ने योग-दर्शन में 'भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ' ( ३।२६ ) इस सूत्र की रचना करके अभिव्यक्त किया है कि - "सूर्य में संयम करने से समस्त भुवनों लोकों का ज्ञान प्राप्त होता है । " इस सूत्र से पूर्व पतंजलिने सात्त्विक - प्रकाश का आलम्बन लेकर सूक्ष्म, व्यवहित एवं विप्रकृष्ट ज्ञानरूप सिद्धियों का संकेत किया है और उससे परमाणु, महत्तत्त्व आदि सूक्ष्म पदार्थों का, एवं सागर के अन्तराल में निहित रत्नादि, भूमि के गर्भ में छिपे खनिजादि तथा दूर देश सुमेरुपर्वत के दूसरी ओर विद्यमान रसायन, औषधि आदि के ज्ञान की बात सिद्ध होती है । अतः यह सूत्र भौतिक - प्रकाश के विषय में संयम करने का संकेत देकर उससे भुवनज्ञान - सिद्धिरूप फल की प्राप्ति बतलाती है । टीकाकारों द्वारा पल्लवित भुवन - ज्ञान Jain Education International तथा अन्यान्य प्रान्तीय भाषाओं में इस ग्रन्थ के आधार पर पर्याप्त चिन्तन हुआ है और हो रहा है । व्याख्याकारों में - व्यासदेव, वाचस्पतिमिश्र, विज्ञानभिक्षु, नागेशभट्ट, हरिहरानन्द आरण्यक तथा नारायणतीर्थ आदि ने 'भुवनज्ञान' के बारे में विस्तार से प्रतिपादन किया है। 4 वैसे उपर्युक्त व्याख्याकारों के विचारों में भुवनज्ञान-सम्बन्धी विचार प्रायः समान ही हैं । तथापि योगसिद्धान्तचन्द्रिका' - व्याख्या के रचयिता श्री नारायणतीर्थ ने अपने पूर्ववर्ती व्यास, वाचस्पति आदि के भुवन - ज्ञान सम्बन्धी विचारों को पर्याप्त विस्तार के साथ आगे बढ़ाया है । यही कारण है कि प्रस्तुत लेख के शीर्षक में 'योगशास्त्र के अनुसार' ऐसा लिखा गया है । वैसे भुवनों का वर्णन प्रायः पुराणों में ही अधिक उपलब्ध होता है । योगसिद्धान्त चन्द्रिका टीका में निर्दिष्ट भुवनज्ञान 'पातंजल योगदर्शन' एक सूत्र ग्रन्थ है । अतः इसके सूत्रों की व्याख्या अत्यावश्यक मानी गई । आज तक संस्कृत भाषा में इस पर प्रायः २० टीकाएँ प्राप्त हैं । हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी । है । शास्त्रों में ब्रह्माण्ड शब्द के साथ महा शब्द टीकाकार नारायणतीर्थ ने उपर्युक्त सूत्र के सन्दर्भ में 'भुवन' शब्द का तात्पर्य लोक माना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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