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पातंजल योगशास्त्र के अनुसार भुवनों का स्वरूप [११७ जोड़कर 'महाब्रह्माण्ड' को अनेक ब्रह्माण्डों का | मुखान्धकूप, कृमिभोजन, मदशत, प्रभूमिवत्र, आधार माना है। अतः इस महाब्रह्माण्ड में | कण्टक, शाल्मलि, वैतरणी, प्रमोद, प्राणरोध, अनेक संक्षिप्त ब्रह्माण्ड हैं और एक ब्रह्माण्ड | विशसन, लालाभक्षण, सारमेयादन, मदाचिरय, चौदह भुवनों की समष्टि से निर्मित है। पानक्षार, कर्दम, रक्षोगण, भोजनशूल, प्रोतदन्द,
इस दृष्टि से भूलोक को केन्द्र मानकर शूकावट, निरोधन, पर्यावर्तन, सूचीमुख आदि । 'भूरादि सत्यान्तानि उपरितनानि' कहकर उसके | | इन सब से मिलकर एक ब्रह्माण्डावयव का ऊपर छह लोक माने गये हैं।
| स्वरूप बनता है। इनके नाम हैं-(१) भुवों क, (२) स्वर्लोक,
इसी प्रकार के असंख्य ब्रह्माण्डावयव महा(३) महर्लोक, (४) जनलोक, (५) तपोलोक | ब्रह्माण्ड में समाविष्ट हैं । उक्त ब्रह्माण्डावयव एवं (६) सत्यलोक ।
का महाब्रह्माण्ड में उतना ही स्थान है जितना __ ये ऊपर स्थित होने से 'ऊर्ध्वलोक' भी
कि आकाश में जुगनूं का। कहे जाते हैं और एक दूसरे से नीचे होने से वे | ब्रह्माण्डमध्ये संक्षिप्तं ब्रह्माण्डं च प्रधासत्यलोक के नीचे वाले लोक 'अधोलोक ' भी नस्यावयवो यथाकाशे खद्योतः । (यो. सि. चं. माने जा सकते हैं।
पृ. १२८) 'अतलादिपातालान्तान्यधस्तनानि' के अनु- | भूलोक तथा उसके द्वीपादि सार भूलोक से नीचे सात लोक है जिनके नाम है- उपर्युक्त ब्रह्माण्डावयव में स्थित लोकों में (१) अतललोक, (२) वितललोक, (३) सुतललोक, | भूलोक की अपनी विशिष्टता है। इसमें सात (४) तलातललोक, (५) महातललोक, (६) द्वीप हैं । मत्स्य एवं वायु आदि पुराणों में रसातललोक तथा (७) पाताललोक ।' ये सातों | 'द्विरापत्वात् स्मृतो द्वीपः' (म. १२३॥३५) (वायु. अधोलोक हैं।
४९।१३२) कह कर स्पष्ट किया गया है कि___इनमें भी पाताललोक से ऊर्ध्ववर्ती लोक | 'जिसके दोनों ओर जल हो वह द्वीप होता है। 'ऊर्ध्वलोक' कहे जा सकते हैं।
किन्तु इन्हीं पुराणों में अन्यत्र 'द्वीपस्य मण्डली-- इन पाताललोकों के ऊपर जलावरण है। | भावात्' कह कर द्वीप को मण्डलाकार भी इनके ऊपर तथा भूमि के नीचे तामिस्र, अन्ध- | बताया है। तामिस्र, रौरव, कुम्भीपाक, मूलासिपत्र, बनसूकर, सात द्वीप क्रमशः-'जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि,
१-अन्यत्र भी पृथ्वी के नीचे चौदह लोकों का वर्णन मिलता है । यथा सबसे नीचे (१) अवीचि, (२) महाकल, (३) अम्बरीष, (४) रौरव, (५) महाशैरव, (६) महासूत्र, (७) अन्धतामिस्र आदि । कहीं पुराणो मे २८ तरक भी बनाये गये हैं वे ही ऊपर लिखे है। २-अष्ठानां तु सहस्राणां सहस्राण्ययुतानि च । ईदृशानां तथा तत्र कोटि-कोटि शतानि च ॥ (विष्णुपुराण)
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