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सप्तभंगी : स्वरूप और दर्शन ___- श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री
अनेकान्तवाद जैन-दर्शन की चिन्तन-धारा समझना चाहिए । प्रमाण और नय तभी अच्छी का मूल स्रोत है, जैन दर्शन का हृदय है; जैन तरह से समझ में आ सकते हैं जब सप्तभंगी वाङ्मय का एक भी ऐसा वाक्य नहीं जिसमें को ठीक तरह से समझा जाय। प्रमाण और अनेकान्तवाद का प्राण-तत्त्व न रहा हो । यदि नय की विवक्षा वस्तुगत अनेकान्त के परिबोध यह कह दिया जाय तो तनिक भी अतिशयोक्ति के लिए और सप्तभंगी की व्यवस्था तत्प्रतिपादक नहीं होगी कि “ जहाँ पर जैनधर्म है वहाँ पर वचन पद्धति के परिज्ञान के लिए है। प्रमाण अनेकान्तवाद है और जहाँ पर अनेकान्तवाद और नय के संबंध में यहाँ विशेष प्रकाश न है वहाँ पर जैन धर्म है ।" जैनधर्म और अनेकान्त- | डालकर सप्तभंगी के संबंध में विवेचन करेंगे। बाद एक दूसरे के पर्यायवाची है । यही कारण
सप्तभंगी है कि आचार्य सिद्धसेन दिवाकरने अपने सम्मति प्रश्न है-सप्तभंगी क्या है ? उसका क्या प्रकरण ग्रंथ में अनेकान्तवाद को नमस्कार करते । प्रयोजन है ? उसका क्या उपयोग है ? हुए उसे त्रिभुवन का-अखिल ब्रह्माण्ड का गुरु इन सभी प्रश्नों के उत्तर जैनाचार्यों ने दिये कहा है। अनेकांत के बिना संसार का कोई भी | हैं। संसार की प्रत्येक वस्तु के किसी भी एक व्यवहार समीचीन रूप में सिद्ध नहीं हो सकता' ।
धर्म के स्वरूप-कथन में सात प्रकार के वचनो सांख्यदर्शन का पूर्ण विकास प्रकृति और | का प्रयोग किया जा सकता है। इसी को सप्तपुरुषवाद में हुआ है । वेदान्त-दर्शन का उत्कृष्ट भंगी कहते है । विकास चिद्-अद्वैत में हुआ है । बौद्ध-दर्शन का | वस्तु के यथार्थ परिज्ञान के लिए नय और महान् विकास विज्ञानवाद में हुआ है । वैसे ही प्रमाण की नितान्त आवश्यकता है। नय और जैनदर्शन का चरम विकास अनेकान्तवाद एवं | प्रमाण से ही यथार्थ ज्ञान होता है। अधिगम स्याद्वाद में हुआ है । स्यावाद और अनेकान्त- भी स्वार्थ और परार्थ रूप से दो प्रकार का है। वाद को समझने के पूर्व प्रमाण और नय को | ज्ञानात्मक स्वार्थ है और शब्दात्मक परार्थ है। १ सम्मति प्रकरण काण्ड ३, गा० ६९ २ (क) स्याद्वाद मंजरी का०, २३ की टीका (ख) सप्तभंगी तरंगिणी पृ०-१. ३ तत्त्वार्थ सूत्र ११६
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