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गुजरात का सारस्वतनगर पाटन और हिन्दी
लेखक-डॉ. हरीश शुक्ल ७ बी-वनराज सोसायटी-पाटण ( उ. गु.)
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गुजरात विशेषतः जैन धर्म, संस्कृत एवं | अतः यहाँ शैव धर्म एवं वैदिक-परंपरा का साहित्य का प्रमुख केन्द्र रहा है । इस प्रदेश में | भी चरम विकास यहाँ के साहित्य, स्थापत्य आदि जैन धर्म का अस्तित्व तो इतिहासातीत कालसे | में देखने को मिल जाता है । अर्थात् यहाँ गुजरात मिलता है।
में विभिन्न धर्मो, संस्कृतियों, सम्प्रदायों एवं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रधान गणधर मान्यताओं को एक साथ फलने-फूलने एवं पुंडरीक ने शत्रुञ्जय पर्वत से निवार्ण लाभ लिया संवरने का योग्य सुअवसर प्राप्त होता रहा है । था । २२ वें तीर्थकर नेमिनाथ का तो यह आधुनिक भारतीय आर्य-भाषाओं में प्रधान विहार-क्षेत्र था । आग्रा के महाराज उग्र- | गुजराती और हिन्दी भाषा-साहित्य को इन सेन की राजकुमारी राजुल से नेमिनाथ के विवाह | | विभिन्न कवियों के हाथों महती सेवा हुई है । की तैयारी करने, भौतिक–देह और संसारी | इन भाषाओं के विकास क्रम के अध्ययन के लिए भोगों से विरत हो गिरनार पर्वत पर समाधि विशेषतः जैन ग्रंथ आधारभूत हैं । लेने का तथा तीर्थकर मुनिसुव्रत के आश्रम का इस भाषा अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता भृगुकच्छ में होने के उल्लेख मिलते हैं। है कि हिन्दी और गुजराती का उद्भव एक ही
तेरहवीं शती में वनराज चावडा, सोलंकी | स्रोत से हुआ है। राजा शिलादित्य और वस्तुपाल तथा तेजपाल | पं. नाथूराम प्रेमीजी के इस अभिप्राय से जैसे मंत्रियों ने जैन धर्म और साहित्य को पर्याप्त | भी यह बात स्पष्ट है-- प्रोत्साहन दिया । मुसलमान बादशाह भी जैन | | "ऐसा जान पड़ता है कि प्राकृत का जब धर्म के प्रति काफी सहिष्णु रहे । सम्राट अकबर अपभ्रंश होना आरंभ हुआ और फिर उसमें भी को प्रतिबोध देने जैनाचार्य हीरविजयसूरि, जिन- परिवर्तन होने लगा तब उसका एक रूप गुजचन्द्र तथा उपाध्याय भानुचन्द्र गुजरात से ही राती के साँचेमें ढलने लगा और एक हिन्दी आगरा गये थे।
के साँचे में। पाटन के शासक चावडा तथा सोलंकी ! यही कारण है कि हम ई. १६वीं शताब्दी मूलतः शैव धर्मी थे।
| से जितने ही पहले की हिन्दी और गुजराती
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