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________________ ९४ ] संस्कार रूप बन जायेंगे, बद्धमूल हो जायेंगे, इसलिये यह कहना सर्वथा संगत होगा कि भावना एक प्रकार का संस्कार है, वासना हैं, अध्यवसाय है । यह भावना पूर्वकृत - अभ्यास के द्वारा बनती है । अभ्यास ही धीरे-धीरे भावना के रूप में परिणत होता है संक्षेप में भावना के दो प्रकार प्रतिपादित हैं: शुभ- भावना और अशुभ- भावना | आगमीय भाषा में इन्हें असंक्लिष्ट भावना और संक्लिष्ट भावना भी कहा गया है । अशुभ भावना तवज्ञान- स्मारिका अशुभ भावना जो कि सर्वतोभावेन हेय है । उस के नौ और पाँच भेदों का वर्णन मिलता हैं। नौ भेद इस प्रकार हैं ९ हिंसानुबन्धी भावना २ मृषानुबन्धी भावना ३ स्तेयानुबन्धी भावना ४ मैथुन सम्बन्धी भावना ६ लोभानुबन्धी भावना | ५ परिग्रह सम्बन्धी भावना ७ क्रोधानुबन्धी भावना ८ मानानुबन्धी भावना ९ मायानुबन्धी भावना Jain Education International ये भावनायें अव्रत एवं कषाय से सम्बन्धित है, यदि कोई भी इन अप्रशस्त भावना का आचरण करता है तो वह अपनी आत्मा को दूषित है। इतना ही नहीं इन अनुसार देव - दुर्गति को वहां से व्यवकर अनन्त करता है । अशुभ- भावना के पाँच भेद ओर भी है। जिन का प्रतिपादन आगमों एवं उत्तरवर्ती साहित्य में इतनी गहराई में उतरकर किया गया है कि देखते ही बनता है, उनका पर्यालोचन करने पर भावना - विषयक चित्र सुस्पष्ट हो जाता है । पाँच अशुभ- भावनाएं इस प्रकार हैं" १ कंदर्पी भावना २ – किल्बिषी भावना ३ - अभियोगी भावना ४ - आसुरी भावना ५सम्मोही भावना | ६ - हरिभद्र का ध्यान शतक ३० । १० ८- बृहत्कल्प भाष्य ९- बृहत्कल्प भाष्य-गाथा १३२७ । बृहत्कल्प भाष्य, भाग-२ गाथा १२९३ । ग- भगवती आराधना मूल १७९ । ३६९ ॥ ११- क- स्थानाङ्ग सूत्र ४।३.४ सूत्र ३५४ मलिन - भावनाओं के प्राप्त होता है और भव - सागर में पर्यटन आगम - साहित्य में कहीं-कहीं चार चार भावनाओं का काफी - विस्तार के साथ विवेचन मिलता है और उनके अवान्तर भेदों का भी वर्णन प्राप्त होता है । चार भावनाओं का उल्लेख इस प्रकार है"१ - कन्दर्प भावना २ - आभियोगी भावना ३- किल्बिषी भावना । ४ - आसुरी भावना | ७ - बृहत्कल्प भाष्य भाग-२ गाथा १२९० वृत्ति । For Private & Personal Use Only ख- मूलाचार गाथा - ६३ । घ- ज्ञानार्णव ४१४१ ख - उत्तराध्ययन सूत्र ३६ | गाथा २६१ से २६४ । www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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