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________________ ३२] तत्त्वज्ञान स्मारिका - समस्त प्राणिओं के भीतर जो केन्द्र अथवा । हे बालखिल्ये इष्टके ! तुम मूर्धा के हृदय है, जिसका नाम प्रजापति है, उभी में | समान सर्वश्रेष्ठ हो । तुम धारण करनेवाली और सभी कुछ है । स्थिर हो, अतः स्थिर रूप से इस स्थान को गुण-दोष दोनों ही उस बिन्दु या बीज के | धारण करो। भीतर रहते हैं। ऐसी सर्वरूपेश्वरी दैवी-शक्ति को तुम धारण करनेवाली भूमि के समान स्थिर प्रणाम करने के कारण ही भारत के मनीषियों हो, इस स्थान को धारण करो। ने समन्वय-प्रधान धर्म और दर्शन को जन्म तुम्हें अन्न-वृद्धि के लिए स्थापित करता दिया । शान्तरूप और विकरालरूप एक ही हूँ। तुम्हें कल्याण की वृद्धि के निमित्त स्थापित तत्त्व के द्विधारूप हैं। करता हूँ। - इसलिए सब में पूज्य-बुद्धि या आत्मा तुम इस स्थान में विधिपूर्वक निवास करो। बुद्धि रखना आवश्यक है। प्रकृति के विधान में सबका नियत स्थान | तुम स्वयं नियम में रहकर अन्य से भी नियम है। किसी का अभाव नहीं किया जा सकता।। पालन करनेवाले हो, इस स्थान में रहो । अपने-अपने स्थान में सबकुछ सुशोभित है। तुम पृथ्वी के समान अविचल हो, नीचे वैदिक-धर्मके ऋषियोंने प्रकृति (पृथ्वी) के | रखी इष्टका को धारण करो। अन्नप्राप्ति के विराट रूप का बहुत हो काव्यमय ढंग से वर्णन | निमित्त तुम्हें स्थापित करता है। किया है। भक्तिप्रधान वैदिक-धर्म में जिस धन की प्राप्ति के निमित्त तुम्हें स्थापित दैवी अथवा प्राकृतिक-शक्ति के समय समय पर करता है, धन की पुष्टि के निमित्त मैं तुम्हें उपासना प्रचलित हुई उनका एकत्र वर्णन पाया स्थापित करता हूँ।" जाता है । उनमें पृथ्वी भी सम्मिलित हैं। मूर्धासिं राड्र्धवाक्षि ___ इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया है कि पृथ्वी धरूणा धर्यसि धरणी। अपने स्थान पर स्थिर होकर वह प्रजाको देश को सम्पन्नता प्रदान कर रही है। आयुषे त्यां वर्चसे त्वा कृण्यै त्वा क्षेमाय त्या ॥२१॥ पृथ्वी का निर्माण अन्न प्राप्ति के लिए हुआ। यंत्रो राड् यन्त्र्यसि जिस प्रकार अग्नि में जलाने की शक्ति, चन्द्रमा यमनी ध्रुवासि धरित्री। में चाँदनी, कमल में शोभा और सूर्य में चमक इषे त्योर्जे त्या रच्यै का सम्बन्ध है उसी प्रकार पृथ्वी में समस्त त्वा पोषाय-त्वा ॥२२॥ (यजुर्वेद) चराचर को पावन करने की शक्ति विद्यमान है। ज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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