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________________ vvvv आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जैन दर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा [४९ __यद्यपि यहां यह समस्या बनी हुई है, अवगाहन-शक्ति का अर्थ तो दूसरों को असंख्यात-प्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त । समाहित करने की क्षमता है। पुद्गल-परमाणु कैसे समाहित हो सकते हैं ? . जैसे एक कमरे में एक बल्ब का प्रकाश क्योंकि जैन-दशेन यह मानता है कि एक फैल रहा है, यदि हम उसी कमरे में हजार दूसरे आकाश-प्रदेश दिक् (स्पेइस) की वह सबसे छोटी बल्ब भी जला दें तो उनका प्रकाश भी उन्हीं इकाई है, जिसे एक पुद्गल-परमाणु घेरता है। आकाश-प्रदेशों में समाहित हो जावेगा । इसी किन्तु इस धारणा के अनुसार तो असंख्य का दूसरा उदाहरण ध्वनि का है। पुद्गल परमाणु ही समाहित होंगे, अनन्तानन्त यह बात विज्ञान-सम्मत है कि विश्व में नहीं । इस समस्या का उत्तर निम्न रूप में अनादि-भूत एवं वर्तमान में जो कुछ ध्वनि हुई दिया जा सकता है है, वह सब ध्वनि तरंग के रूप में विश्व में और (१) एक अमूर्त सत्ता उसी स्थान में दूसरी | विश्व के प्रत्येक सूक्ष्मतम भाग में उपस्थित है । अमूर्त सत्ता को रहने में बाधक नहीं बनती है। जैन-दर्शन की भाषा में कहे तो एक चूंकि परमाणु भी परमाणु रूप में अमूर्त है, अतः आकाश-प्रदेश में अनन्तानंत ध्वनियाँ उपस्थित एक ही आकाश-प्रदेश में अनन्त-परमाणु एक है । यहां यह ध्यान रखना चाहिए-प्रकाश और साथ रह सकते हैं, यह मानने में कोई बाधा ध्वनि पौद्गलिक ही नहीं बल्कि मूते भी है। नहीं आती है। (२) परमाणु और परमाणुपिण्ड (स्कन्ध) | । अतः मूर्त में भी अवगाहन-शक्ति होने से में अवगाहन शक्ति है, अर्थात् वे दूसरों को | | एक ही आकाश-प्रदेश में अनन्त-परमाणुओं स्थान दे सकते हैं । जिस प्रकार आकाश अपने | एवं मूर्त-स्कन्धों की उपस्थिति को सम्भवित अवगाहन--गुण के कारण दूसरे द्रव्यों को स्थान माना जा सकता है। देता है, उसी प्रकार परमाणु और स्कन्ध भी। (३) जैन-दर्शन के अनुसार लोकाकाश के अपनी अवगाहन-शक्ति के आधार पर दूसरे पर- प्रदेश लोक के प्रत्येक भाग में है । जिस स्थान माणुओं और स्कन्धों को स्थान देते रहेंगे। | में विश्व का सर्वाधिक घनीभूत पुद्गल-पिण्ड ___ यहां हमें इस भ्रान्ति को दूर कर लेना उपस्थित है, उसी स्थान में आकाश-प्रदेश चाहिए कि अवगाहन शक्ति का अर्थ संकोच- भी है। विस्तार है। इसका अर्थ यह हुआ कि वहां दूसरे स्थिर ___यद्यपि जीव और पुद्गल में संकोच-विस्तार एवं गतिवान पुद्गल-पिण्डों के समाहित होने की शक्ति भी है, किन्तु यह उनके प्रसार-गुण की सम्भावना बनी ही रहती है, क्योंकि-विश्व (कायत्व) के कारण है। का कोई भी भाग किसी भी स्थिति में आकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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