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________________ ४८] तत्त्वज्ञान स्मारिका यद्यपि अनादि भूत से लेकर अनन्त भविष्य - इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल तक काल के विस्तार का अनुभव किया जा और जीव अस्तिकाय होते हुए भी उनका सकता है, किन्तु फिर भी उसमें कायत्व का विस्तार-क्षेत्र या कायत्व समान नहीं है । आरोपण सम्भव नहीं है ।। जैन-दार्शनिकों ने उनमें प्रदेश-दृष्टि से क्योंकि काल का प्रत्येक घटक अपनी भिन्नता स्पष्ट की है। स्वतंत्र एवं पृथक् सत्ता रखता है । कालाणुओं ___भगवतीस्त्र में बताया गया है कि-धर्म द्रव्य में स्निग्ध एवं रूक्ष गुण के अभाव में कोई । और अधर्म द्रव्य के प्रदेश अन्य द्रव्यों की स्कन्ध या संघात नहीं बन सकता है। अपेक्षा सब से कम है । वे लोकाकाश तक __ यदि उनके स्कन्ध की परिकल्पना भी कर (Within the universe) सीमित है, अतः ली जाय तो पर्याय-समय की सिद्धि नहीं असंख्य-प्रदेशी है। होती है। धर्म द्रव्य एवं अधर्म द्रव्य की अपेक्षा जीव . .. पुनः काल के वर्तना-लक्षण की सिद्धि केवल वर्तमान में ही है, और वर्तमान अत्यन्त | द्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक है । सूक्ष्म है, अतः काल में विस्तार या प्रदेश | क्योंकि प्रथम तो जहां धर्म द्रव्य और -प्रचय नहीं माना जा सकता और इसलिए | अधर्म द्रव्य एक एक है, वहां जीव द्रव्य अनन्त वह अस्तिकाय भी नहीं हैं। हैं । पुनः प्रत्येक जीवद्रव्य के असंख्य प्रदेश हैं । जीव द्रव्य के प्रदेशों की अपेक्षा भी पुद्गल द्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक हैं, क्योंकि सभी अस्तिकाय-द्रव्यों का विस्तार-क्षेत्र प्रत्येक जीव के साथ कर्म–पुद्गल संयोजित है। समान नहीं है, उसमें भिन्नतायें हैं। जहां आकाश का विस्तार-क्षेत्र लोक और ___काल की प्रदेश-संख्या पुद्गल की अपेक्षा अलोक दोनों है, वहां धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य | भी अनन्त गुणा मानी गई, क्योंकि प्रत्येक जीव केवल लोक तक ही सीमित है। और पुद्गल की वर्तमान अनादि भूत और अनन्त पुद्गल के प्रत्येक स्कन्ध और प्रत्येक जीव । भविष्य की दृष्टि से अनन्त पर्यायें हैं । का विस्तार-क्षेत्र भी भिन्न है । यद्यपि इन सभी को अपेक्षा आकाश द्रव्य __पुद्गल-पिण्डों का विस्तार-क्षेत्र उनके | के प्रदेशों की संख्या ही सर्वाधिक मानी गई है, आकार पर निर्भर करता है। क्योंकि धर्म, अधर्म, जीव और पुद्गल और काल जब कि प्रत्येक जीवात्मा का विस्तार-क्षेत्र | सभी सीमित लोक में ही स्थित (Within the उसके द्वारा गृहीत--शरीर के आकार पर निर्भर | finite universe है, जब कि आकाश अनन्त करता है। अलोक में भी स्थित है। (३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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