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वैदिक साहित्य में आत्म-तत्त्व विवेचन .. इन्द्रियात्मवाद जैसे कुछ अन्य जड़वादी तो स्वयं उसी के द्वारा होता है । " उद्धरेदात्मदार्शनिकों को भी स्वमत-पोषक "ते ह प्राणाः नात्मानम् " यह भी निर्देश दिया गया कि जब प्रजापति पितरमेयोचुः (छांदो. ५।१।७) में | जानने आदि के लिये एकमात्र विषय वह प्रमाण मिल जाते हैं।
आत्मा ही है। तो उसी को सर्वप्रकार से ज्ञान इसके अतिरिक्त
का केन्द्रबिन्दु बनाया जाये । x अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः,
आत्मा वाडरे द्रष्टव्यः, श्रोतव्यों, अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः.
मन्तव्यः निदिध्यासितव्यश्च" अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः,
इस प्रकार की विचारधारा में यह भी अन्योऽन्तर आत्मा आनन्दमयः.
तत्व छिपा हुआ है किइन मंत्रों में प्राण, मन, बुद्धि और यहाँ तक कि
आत्मा और ब्रह्म में यदि किसी प्रकार भौतिक-सुख या अहं को भी आत्माट का अन्तर हूँढ़ने का प्रयास किया भी जाय तो अभिहित किये जाने के उदाहरण हैं।
हम सिर्फ यह कह सकते हैं कि ब्रह्म शब्द का ___ कुछ अन्य भाट्टादिकों के मतों के समर्थ
प्रयोग जहाँ समष्टिगत आत्मा के लिये हुआ
वहाँ आत्मा का प्रयोग व्यक्तिगत के लिये हुआ। नार्थ " प्रज्ञानधन एवानन्दमयः “माण्डूक्योपनिषद् के ५वे मन्त्र और " असदेवेदमग्र
- वृहदारण्यक उपनिषद् में आत्मा के बारे में
यूनान के परमेनाड्डीज (Parmenides) जैसा आसीत्" छान्दो० ६।१ (शून्यवादी बौद्ध
सिद्धान्त मिलता है। मत पोषक) मंत्र भी क्रमशः आत्मा का अविद्या
वह यह कि " आत्मा ही सत्य है और इस युक्त चैतन्यात्मा और शून्यात्मवाद के पक्ष में
से परे कुछ नहीं।" प्रमाण बनते हैं; किन्तु, वास्तव में आत्मा के
इस समूचे सिद्धान्त को हम तीन सूत्रों में वास्तविक और पूर्ण-स्वरूप तक पहुँचने के लिये
व्यक्त कर सकते हैंउक्त दार्शनिकों के लिये पृथक्-पृथक प्रमाणभूत
(१) आत्मा ही वास्तविक है। ये वैदिक-मंत्र अरुन्धती-तारा (ज्ञान) न्याय से (२) हमारे ज्ञान का विषय आत्मा है । विशुद्ध-तत्त्व के ज्ञानार्थ क्रम के रूप में मान्य हैं।
(३) अनुभूति का विषय होने से आत्मा विशुद्धात्मा का ज्ञान तो " अहं ब्रह्मास्मि"
अनिर्वचनीय है। (वृद्ध. १।४।१०) की स्थिति में पहुँच कर ही
सभी लोक और समस्त ब्रह्माण्ड-समवाय हो पाता है।
तथा उस में रहनेवाले जड़-चेतनभूत समस्त उस विशुद्ध साच्चदानन्द-स्वरूप आत्मा तत्त्वों की सत्ता, उस आत्मा के अंश के रूप में का जिसे “ रस" (रसो वै सः) और ' आन- ही स्थित हैं- तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।" न्दायेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते' आदि । इस प्रकार वैदिक-साहित्य में आत्मचिंतन मन्त्रों में आनन्द-स्वरूप माना गया, उसका ज्ञान का पर्याप्त विचार प्राप्त होता है ।
- तैत्तिरीय उपनिषद् वल्ली-२ अनुवाक २ से ५
उस
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