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________________ winnrvan दाशनिक आलोक में आत्मा मोक्षावस्था में आत्मा के अशेष विशेष गुणों यही वजह है कि दुःखों के कारणों का का ध्वंस हो जाता है। | समूहोच्छेदन हो जाने से पुनः संसार की कोई इसलिए न्याय की इस मुक्ति को कुछ संभावना नहीं रहती है। विद्वानों ने शिला की उपमा दी है । “मुक्तये | इसीलिए उपनिषदों में इस अवस्था का शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् ” कहकर श्री वर्णन "न स पुनरावर्तते" के रूपमें प्राप्त होता है। हर्षने इसको खिल्ली उडाई है। वैशेषिक और न्याय मत में आत्मा के तात्पर्य यह है कि अपने निजी रूप में स्वरूप के विषय में कोई मतभेद नहीं । आत्मा-अविज्ञान ही है। द्रव्य के नौ प्रकारों में वैशेषिक आत्मा का न्यायसिद्धान्त के अनुसार आत्मा ज्ञाता, भी समावेश करते हैं। आत्मा के जीव और ईश्वर भेद भी वैशेभोक्ता तथा कर्ता है। ज्ञान, इच्छा, आदि षिकों को मान्य है ऐसा समझा जाता है । इसके आगन्तुक गुण हैं। ___ जीव प्रति-व्यक्तिभेद से भिन्न होने से ज्ञान इच्छा के समान अदृष्ट अर्थात् पाप अनन्त प्रकार के हैं। और पुण्य भी आत्मा के गुण है । न्याय-मतसिद्ध आत्मा के स्वीकार न करने विदित कर्मो से पुण्य तथा निषिद्ध कर्मों से पर पाप-पुण्य व्यवस्था, स्मृति-संस्कार का पाप उत्पन्न होते हैं। कार्य-कारण सिद्धान्त तथा प्रत्यभिज्ञा व्यवहार संस्कार भावना के रूप में आत्मा का वह को पुष्टि नहीं हो सकती है। गुण है, जिसके कारण पूर्वानुभूत वस्तुओं, घट- न्यायमंजरीकार जयन्त ने बौद्धों के विज्ञा नाओं आदि का स्मरण होता है । नवाद और क्षणभंगुरवाद का निराकरण करके मुक्ति की अवस्था में पाप-पुण्यादि सभी स्थायी-आत्मा की सत्ताकी पुष्टि की है। विशेषगुण नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचमोक्ष की अवस्था आत्यन्तिक-दुःख-निवृत्ति | स्पति, उदयन प्रभृति नैयायिकों ने बौद्ध, सांख्य की अवस्था है। इसमें २१ प्रकार के दुःखों का और चार्वाक-मत की तीव्र आलोचना को है । आत्मा को जडता का आरोप जो न्याय पूर्णतया विनाश हो जाता है। मत पर किया जाता है, वह उचित नहीं है । जिसके कारण पुनः दुःख उत्पन्न होने की क्योंकि जडना का अर्थ है ज्ञानादि का संभावना ही नहीं रह जाती है। अत्यन्ताभाव । वह २१ दु.खों में दुःख के कारणों का भी क्योंकि " ध्वंस-प्रागभावयोरधिकरणेनात्यदुःख के रूपमें परिंगणन किया गया है। न्ताभावः” इस नियम के अनुसार जहाँ ज्ञाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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