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________________ बहुत थोड़ों ने ‘सोमरसेट' के वासी स्वर्गीय 'विलियम एडगल' के जितना साहस दिखाया था । एडगल ने ५० वर्ष तक संलग्न चेष्टा की। उसने रात्रि के समय आकाश की परीक्षा के लिए कभी बिछौने पर न सोकर कुर्सी पर ही रातें बिताईं । ” 46 पृथ्वी संबंधी कुछ नवीन तथ्य उसने अपने बगीचे में एक ऐसा लोहे का नल गाड़ा जो कि ध्रुव तारे की तरफ उन्मुख था और उसके भीतर से देखा जा सकता था । उस उत्साही - निरीक्षक ने आखिर इस सिद्धान्त का अन्वेषण किया कि "पृथ्वी थाली के आकार- चपटी है जिसके चारों तरफ सूर्य उत्तर से दक्षिण की तरफ घूमता हैं। उसने यह भी प्रगट किया कि ध्रुव ५००० माइल दूर है और सूर्य का व्यास १० माइल है ।" जैन - दृष्टि से (समस्त) पृथ्वी को चिपटी मानी गई है - यह समग्रता की दृष्टि है । विशाल - भूमि के मध्यवर्ती बहुत सारे भूखण्ड वर्तुलाकार भी मिल सकते हैं | आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार लङ्का से पश्चिम की ओर आठ योजन नीचे पाताल लङ्का है' । 1 काल-परिवर्तन के साथ-साथ भरत - ऐरा - वत के क्षेत्र की भूमि में ह्रास होता है - " भरतै [ १३५ रावतयो वृद्धिहासौ .... तत्त्वार्थ ३।२८ ताभ्यामपरा - भूमयोपस्थिताः... ३।२६ श्लोक वार्तिककार विद्यानन्द स्वामीने भी कहा है कि- Jain Education International तात्स्थ्यात् तच्छन्दासिद्धे भरतैरावतयो वृद्धिहास योगः अधिकरणनिर्देशो वा " - तत्त्वार्थ श्लोक वार्तिक ३।२८ टीका पृ० ३५४ त्रिलोकसार में प्रलय के समय पृथ्वीको १ योजन विध्वस्त होना माना है "ते हिंतो से सजणा, णस्संति विसग्गिवरिसदद्दमहो । इगि जोयणमेत्तमद्धो, चुण्णीकिज्जदि हु कालवसा । ( ति० ८६७) इसका तात्पर्य यह है कि भोग-भूमि के प्रारम्भ से ही जम्बूद्वीप के समतल पर 'मलवा ' लदता चला आ रहा है, जिसकी ऊँचाई अति दुषमा के अन्त में पूरी एक योजन हो जाती है । वही 'मलवा' प्रलयकाल में साफ हो जाता है। और पूर्ववाला भाग ही निकल आता है । इस बढे हुए 'मलवे' के कारण ही भूगोल मानी जाने लगी है । अनेक देश नीचे और ऊपर विषम स्थिति में आ गए हैं। इस प्रकार वर्तमान की माने जाने वाली भूगोल के भी जैनशास्त्रानुसार अर्धसत्यता या आंशिक सत्यता सिद्ध हो जाती है, एवं समतल कि पृथ्वी गोल है । इसकी पार्श्ववर्ती गोलाई में एक १ (क) सु० च० ( ख ) अनेक लोगों का मत है ओर भारत स्थित है । इसके ठीक विपरीत अमेरिका है अतः उनके विचार से अमेरिका ही पाताल लोक है । - धर्म० - वर्ष ६ अंक ४९ दिसम्बर ४, १९५५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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