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बीजाक्षर एवं उनका महत्त्व
[ २१ ___ इस चतुर्थी-प्रयोग में आत्म-लीनता का अतः मनुष्य भी मंत्रोच्चार द्वारा निर्बाध भाव नहीं है । पर एक पद ऐसा है जिसमें नमः सिद्ध पद के ही सुख को चाहता है। के साथ द्वितीया का प्रयोग होता है । वह है | अतः अविनाशी सुख के चाहक आत्माओं 'सिद्धम् ।
के लिए सिद्ध भगवान को नमस्कार परम उपा
देय होता हैं, क्योंकि-संसार की सभी वस्तुएँ द्वितीया-प्रयोग में आत्मीयता, लीनता,
विनाशी हैं, एक सिद्ध पद ही अविनाशी है। तदाकार-वृत्ति का भाव है क्योंकि अपने समस्त कर्मों का पर्यवसान इस एक ही कर्म में हम
___ अतः साधक को इन सब बीज मंत्रों को
छोड़ कर केवल इस एक ही पद की उपासना करते हैं।
करनी चाहिए। अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय एवं साधुओं यह पञ्चाक्षरी मंत्र हमारे पांचों प्राणों का के नामों की योजना इस मंत्र में इसलिए नहीं | प्रतीक हैं, एवं उनका पञ्चभूतात्मक संसार से है कि अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु सम्बन्ध एवं विच्छेद करवाने में सहायक होता है। पदवी का अन्त है, पर मात्र एक सिद्ध अवस्था साधक की जैसी इच्छा होगी वैसा ही ही एक ऐसी अवस्था है जिस पर काल का | | काम इस मंत्र से होगा । तो यह है मंत्रराज - वश नहीं।
ॐ नमः सिद्धम्
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