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________________ २०] तत्त्वज्ञान स्मारिका उपासना चार प्रकार को होती है : यह भी ध्यान रखना चाहिए कि - (१) प्रतीकोपासना वाक् चैव कामः शक्तिश्च, प्रणवः श्रीश्च कथ्यते । (२) प्रतिरूपोपासना तदायेषु च मंत्रेषु, प्रणवं नैव योजयेत् ॥ (३) भावोपासना अर्थात् वाम्बीज-ऐं, कामबीज-क्ली, (४) एवं निदानोपासना शक्ति - बीज-ही एवं श्री बीज-श्री को प्रणव ही प्रतीकोपासना में ईश्वरीय-शक्ति के कुछ कहते हैं, अतः इनके पहले ॐ लगाने की आवश्यप्रतीक निर्धारित रहते हैं। कता नहीं होती-वशीकरण, आकर्षण संतापकरण प्रतिरूपोपासना में प्रतिमा की स्थापना एवं त्याग--सूचकता के लिए स्वाहा, क्रोध-शमन होती है। शान्ति एवं पूजन-अर्चन में 'नमः' का प्रयोग . भावोपासना में ध्यान योग का महत्त्व है। करना चाहिए। निदानोपासना में संकेतों का महत्त्व है। सम्मोहन उद्दीपन पुष्टि एवं मृत्युञ्जय के जैसे मोक्ष के लिये उपासना में श्वेत रंग को | लिए वौषट् । महत्त्व दिया जाता है, तो अनुग्रह के लिये लाल प्रीतिनाश एवं मारण के लिए हुँ' । रंग को धारण किया जाता है। उच्चाटन, विद्वेष तथा मानसिक विकारों बीजाक्षरों में सब से सरल और महान् की शान्ति के लिये फट । विघ्न-विनाश तथा बीजाक्षर 'ॐ' एवं ' नमः' हैं, इसके बीच में । पोड़ा शमन के लिए हुं फट् का ग्रहकृत प्रयोग किसी भी देवता के विशेषण को या नाम को | | किया जाता है। डाल दिया जाय तो वह सुन्दर मंत्र बन जाता है, जैसे “ॐ वीतरागाय नमः " अथवा " ॐ लाभ-हानि एवं मंत्रोद्दीपन के लिए वषट् उच्चारण करने का विधान है। नमो वीतरागाय"। इस महान् बीजाक्षर ॐ को कहाँ कहाँ । पर इन सबसे ऊपर का बीज है नमः नमो लगाना चाहिए इसके लिए शास्त्र कहते हैं | अथवा णमो ! क्योंकि यह शोधक है। प्रणवाचं गृहस्थानां, तच्छून्यं निष्फलं भवेत् । अन्य देवताओं के नाम की योजना ॐ आधन्तयोर्वनस्थानां, यतीनां महतामपि ॥ | नमः के साथ करने पर चतुर्थी का प्रयोग होता अर्थात्-"गृहस्थ को मंत्र के आदि में ॐ | हैं-ॐ नमः वीतरागाय, शिवाय । एवं वानप्रस्थ यति और महात्माओं को मंत्र के | चतुर्थी का प्रयोग सम्प्रदान के अर्थ में आरम्भ और अन्त में ॐ लगाना चाहिए उस होता है, अर्थात् हम देवता के लिए कुछ कर रहे के बिना मंत्र निष्फल होगा।" | है-अपने कल्याण के लिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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