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________________ ९६ ] तत्त्वज्ञान-स्मारिका २-स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग का अवलो- की पच्चीश-भावनाओं का जो वर्णन आता है कन-वर्जन वह भी अत्यधिक विस्तार के साथ भावपूर्ण है ३-पूर्वभुक्त-भोग की स्मृति का वर्जन अत्यन्त-सरस और जीवनस्पर्शी है । ४--अतिमात्र प्रणीत पान-भोजन का वर्जन इस संन्दर्भ में यह भी जानने जैसा तथ्य ५-स्त्री आदि संसक्त शय्यासन का वर्जन। | है कि कहीं-कहीं नामभेद और कहीं-कहीं पंचम महाव्रत की पाँच भावनायें शब्द-शैली का भेद भी दिखाई देता है," फिर १-मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्द में समभाव ! | भी पच्चीश भावनाओं के स्वरूप के विषय में २-मनोज्ञ और अमनोज्ञ रूप में समभाव ! सर्वत्र समानता का संदर्शन होता है । ३–मनोज्ञ और अमनोज्ञ गन्ध में समभाव ! अतिसंक्षिप्त-शैली में भावना के वर्गीकृत४-मनोज्ञ और अमनोज्ञ रस में समभाव ! | रूप का परिचय दिया गया है । ५-मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्पर्श में समभाव ! इस सम्बन्ध में जैन-साहित्य के प्रकाश में यह सच है कि आगम-साहित्य भावना जितना गहरा और अति-सूक्ष्म विचार करने के विषय में कुछ शाब्दिक-भेद अवश्य है, कहीं | पर एक शोधात्मक-दृष्टि लिये हुये ग्रन्थ का -कहीं क्रम की भिन्नता भी परिलक्षित होती है, प्रणयन भी हो सकता है । किन्तु भावना के रूप-स्वरूप, प्रकार-परिवार मेरा इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से यह मत आदि के विषय में प्रतिपाद्य-सम्बन्धी कोई है कि “जैन-मनीषियोंने 'भावना' के सन्दर्भ अन्तर नहीं है ! में जितना विचार-चिन्तन किया है, व्यापक और यह एक ज्ञातव्य तथ्य है कि आगम- | सूक्ष्मदृष्टि से भावना-योग का वर्णन किया है साहित्य के उत्तरकालीन वाङ्मय में भी चारित्र' वह वस्तुतः अपूर्व है, अनूठा है ।" १५-क-चारित्रप्राभृत-३२ । ग-तत्त्वार्थसूत्र ७७) ख-तत्त्वार्थराज वार्तिक ७५। घ-सर्वाथसिद्धि पृ. ३४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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