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________________ ૨૨ वस्तु में रूप-रस- गंध तथा स्पर्श आदि सानुकूल होने से वह वस्तु अपने को सुखदायी लगती है परन्तु समय के परिवर्तन के साथ उस वस्तु के रूप - रसादि में न्यूनता आती है, तब वही वस्तु अपने लिए दुःखदायी बन जाती है, अतः स्पष्ट हो जाता है कि वैषयिक सुख क्षणिक हैं । (२) वैषयिक सुख सापेक्ष और पराधीन भी है। आपको मधुरता का अनुभव करना होगा तो ईख के रस की अपेक्षा रखनी पडेगी और इसके साथ ही उस अनुकूल वस्तु की प्राप्ति भी पुण्य के आधीन हैं । पुण्य का Balance होगा, तब तो विषयानुकूल सामग्री मिल जायेगी, परन्तु ज्यों ही पुण्य क्षीण होगा, त्यों ही हताशा ही हाथ लगेगी । तत्त्वज्ञान - स्मारिका Jain Education International विचार करें कि उसका यह विकास किस दिशा में है ? ज्यों ज्यों भौतिकता के साधन बढते जा रहे हैं, त्यों त्यों मानव समाज पराधीनता के सिकंजे में जकडा जा रहा है । भौतिक सुखसमृद्धि मानव को कभी तृप्त नहीं कर सकती है, क्योंकि उसका स्वभाव ही क्षण-भंगुर है । क्षणभंगुर सुख के लिए विज्ञान का यह अथाग प्रयत्न ! अब हम इसे विकास कहें अथवा विनाश कहें ? यही प्रश्न खडा हो जाता है ! विज्ञान भौतिकता के विकास में सुख की कल्पना करता है, यही उसकी भ्रांति है । सुख आत्मा का धर्म है, आत्मा का स्वभाव है। आत्मा अजर और अमर है । सर्व कर्मों से मुक्त आत्मा शाश्वत, निरपेक्ष- स्वाधीन और अनंत सुख का अनुभव करती है । (३) वैषयिक सुख अल्प और बाधायुक्त है । विषय के भोग में क्षणभर के लिए आनंद अनुभव होता है और विषय-भोग के बाद भी सदा अतृप्ति ही रहती है । इतना ही नहीं वैषयिक - सुख प्रारम्भ में आनंद देता है, परन्तु उसके परिणाम अति कटु हैं। विषय-राग के कारण आत्मा इस प्रकार के गाढ कर्मों का बंध करती हैं कि जिसके फल स्वरूप आत्मा दीर्घ काल तक भयंकर दुःखों का ही अनुभव करती है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि वैषयिक - सुख वास्तव में सुख रूप नहीं है । क्या इस सुख को प्राप्त करने की इच्छा है ? तो अपने हृदय मंदिर में कषायों के दाह का शमन करो, विषय - विराग की शीतलता प्रगट करो । सम्यग् - दर्शन से मिथ्यात्व रूपी कचरे को दूर करो, सम्यग्ज्ञान के दीप को प्रज्वलित करो, मैत्री आदि भावनाओं से अपने मन को भावित करो और सम्यग् चारित्र का बराबर पालन करो । | आज का विज्ञान मानव समाज के कल्याण के नाम पर दिन-प्रतिदिन नये नये आविष्कार कर रहा है । भौतिकता के प्रत्येक क्षेत्र में वह आगे बढ रहा है, परन्तु इतना होने पर भी उपरोक्त प्रभु - आज्ञा के पालन से आत्मा अवश्य निर्मल बनेगी ! आत्मा के प्रशम-भाव के सुख का साक्षात्कार होगा और क्रमशः आत्मा सर्व कर्मों से मुक्त बनकर शाश्वत - निरपेक्ष स्वाधीन - अव्याबाध और अनंत सुख की भोक्ता बनेगी। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003177
Book TitleTattvagyan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherVardhaman Jain Pedhi
Publication Year1982
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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