Book Title: Shubhshil shatak
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती पुष्प-१८४ शुभशीलशतक (प्रथम) {१६वीं शती के श्री शुभशीलगणि रचित पञ्चशतीप्रबोध-सम्बन्ध (प्रबन्ध-पञ्चशती) पर आधारित १०० लघु-कथाएँ) लेखन-सम्पादन साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागर For Personal & Private Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती पुष्प - १८४ शुभशीलशतक (प्रथम) (१६वीं शती के श्री शुभशीलगणि रचित पञ्चशतीप्रबोध-सम्बन्ध (प्रबन्ध-पञ्चशती) पर आधारित १०० लघु-कथाएँ) लेखन-सम्पादन साहित्य वाचस्पति महोपाध्याय विनयसागर ( सम्मान्य निदेशक, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर ) प्रकाशक प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: देवेन्द्र राज मेहता संस्थापक प्राकृत भारती अकादमी १३-ए, मेन मालवीय नगर जयपुर-३०२ ०१७ दूरभाष: ०१४१ - २५२४८२७, २५२४८२८ प्रथम संस्करण, २००५ मूल्य: १५०/ © म० विनयसागर लेजर टाईप सैटिंग श्याम अग्रवाल प्राकृत भारती अकादमी जयपुर मुद्रक: राज प्रिन्टर्स, जयपुर फोन नं. 0141-2621774 मोबाईल - 9314511048 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय नैतिक व अन्य सिद्धान्तों और जीवन मूल्यों को सहज व सुबोध रूप से प्रस्तुत करने और जीवन में प्रभावी रूप से पालन करवाने के लिए रुचिकर कहानियों का सहारा लेने की परम्परा सदैव ही रही है। महाभारत कथाओं से भरी पड़ी है। विभिन्न प्रकार की रामायणों में भी इसी प्रकार की कथाएँ हैं। बौद्ध धर्म की जातक कथाएँ भी उतनी ही रुचिकर और प्रेरक हैं। पंचतंत्र व हितोपदेश के फारसी व अन्य भाषाओं में अनुवाद हुए हैं और इन सभी भाषाओं के पाठक इन शिक्षाप्रद कथाओं से बहुत प्रभावित हैं। विश्वभर में जन सामान्य को इस कथा साहित्य ने दुरूह व कष्टसाध्य प्रयासों के बिना ही सहज रूप से स्वतः ही शिक्षित किया है। सार यह है कि कथा आध्यात्मिक अनुभूति, दार्शनिक सिद्धान्तों व नैतिक मूल्यों के संप्रेषण का सशक्त माध्यम है। प्राकृत भारती अकादमी के प्रकाशनों की एक धारा कथाओं की है, कई कथाओं के अनुवाद पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किये गये हैं। इसी क्रम में शुभशील गणि कृत पंचशती कथा प्रबन्ध पुस्तक (विक्रम संवत् १५२१ में रचित) की ६२४ कथाओं में से पहली १०० कथाओं का संस्कृत से हिन्दी में भावानुवाद पाठकों को समर्पित है। शुभशील शतक का भावानुवाद महोपाध्याय विनयसागर ने मूल संस्कृत के आधार पर हिन्दी में अपनी विशिष्ट शैली में बडे मनोयोग से किया है। उनके अनुसार इन कथाओं में से कुछ विशेष कहानियाँ मानवीय मूल्यों को अत्यन्त रोचक व प्रेरक रूप से प्रस्तुत करने वाली हैं। इस पुस्तक के ५ खण्ड और प्रकाशित होंगे। महोपाध्याय विनयसागरजी मानद निदेशक के प्रति व्यक्तिगत रूप से व संस्था की ओर से आभार व्यक्त करते हुए आशा करता हूँ कि आपकी पूर्व प्रकाशित पुस्तकों की भाँति इसे भी पाठक सराहेंगे। देवेन्द्रराज मेहता संस्थापक एवं मुख्य संरक्षक प्राकृत भारती अकादमी जयपुर For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका अनेक ग्रन्थों के निर्माता श्री शुभशीलगणि जैन कथा साहित्य, व्याकरण और कोष के उद्भट विद्वान् थे। तपागच्छाधिराज श्री सोमसुन्दरसूरि के विशाल परिवार में इनकी गणना की जाती है। इनका समय विक्रम की १५वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और १६वीं का पूर्वार्द्ध है। श्री शुभशीलगणि ने पञ्चशती - प्रबोध-सम्बन्ध के मंगलाचरण में स्वयं को श्री लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य लिखा है और इसी ग्रन्थ की प्रशस्ति में स्वयं को श्री रत्नमण्डनसूरि का शिष्य ख्यापित किया है । विक्रमादित्य चरित्र और भरतेश्वरबाहुबलिवृत्ति में अपने को श्री मुनिसुन्दरसूरि का शिष्य लिखा है। श्री मुनिसुन्दरसूरि, श्री लक्ष्मीसागरसूरि और श्री रत्नमण्डनसूरि ये सब आचार्य श्री सोमसुन्दरसूरि के ही शिष्य परिवार में थे । संभव है इन तीनों आचार्यों में किसी के पास उन्होंने दीक्षा ग्रहण की हो, किसी के तत्त्वावधान में मुनिचर्या का पालन किया हो, किसी की निश्रा में रहकर विद्याध्यन किया हो और किसी से गणि पद प्राप्त किया हो ! यह उनकी विनयशीलता थी कि सभी को अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है। I इस पञ्चशतीप्रबोध की रचना विक्रम सम्वत् १५२१४ में की है । रचना प्रशस्ति का केवल एक पद्य होने के कारण स्थल - विशेष का भी संकेत नहीं है, किन्तु यह निश्चित है कि इसकी रचना गुजरात प्रान्त में ही हुई है। १. मंगलाचरण पद्य ३ २. रचना प्रशस्ति पद्य ३. विक्रम चरित्र प्रशस्ति पद्य १२ ४. रचना प्रशस्ति For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके द्वारा लिखित निम्नलिखित कृतियाँ प्राप्त हैं १. विक्रमादित्य चरित्र २. भरतेश्वरबाहुबलिवृत्ति ( कथाकोष ) ३. शत्रुञ्जयकल्पवृत्ति ४. भोज प्रबन्ध -- - - रचना सम्वत् १४९०. रचना सम्वत् १५१८. ५. प्रभावक कथा रचना सम्वत् १५०४। इस कृति में स्वयं के छः गुरु भ्राताओं का नामोल्लेख किया है उदयनन्दिसूरि, चारित्ररत्नगणि, श्री रत्नशेखरसूरि, श्री लक्ष्मीसागरसूरि, श्री विशालराजसूरि एवं श्री सोमदेवसूरि । ६. शालिवाहन चरित्र रचना सम्वत् १५४०. ७. पुण्यधन नृप कथा रचना सम्वत् १४९६. ८. जावड़ कथा ९. भक्तामर स्तोत्र महात्म्य १०. पञ्चशतीप्रबोध सम्बन्ध ११. अष्टकर्मविपाक १२. पञ्चवर्ग-संग्रह- नाममाला १३. उणादि नाममाला रचना सम्वत् १५०९. — - रचना सम्वत् १५२१. इनमें से क्रमांक १ से १० तक की कृतियाँ कथा - साहित्य से सम्बन्धित हैं । क्रमांक १२ कोष साहित्य और नं. १३ व्याकरण साहित्य से सम्बन्ध रखती है । T संस्कृत साहित्य, व्याकरण और कोष के उद्भट विद्वान् होने पर भी प्रस्तुत पञ्चशतीप्रबोध सम्बन्ध सामान्य संस्कृत के ज्ञाता धर्मोपासकों के लिए लिखी गई हो, ऐसा प्रतीत होता है । पाण्डित्य प्रदर्शन की अपेक्षा इस कृति में देश्यभाषा के अनेक शब्दों को संस्कृत बनाकर इसमें रखने का प्रयत्न किया गया है। इसलिए यह विशुद्ध व्याकरण की दृष्टि से रचना न होकर 'यतियों की संस्कृत' अथवा 'सधुक्कड़ी भाषा' की रचना जैसी हो गई है। For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहरण के तौर पर कुछ शब्द प्रस्तुत है :- अङ्गीष्टक - अङ्गीठी, अडागर पत्र - नागरवेल का पान, अन्धल - अन्धा, अपवरक - कमरा/ओरडी, कूटमाल - झूठा आरोप, उद्वस - उजाड़, कच्च - कच्चा, रंधनी - भोजनालय आदि। रचना शैली सामान्य पाठकों के लिए भी पठनीय है। सर्वग्राही भाषा का प्रयोग किया गया है। इस प्रबन्ध में शुभशीलगणि ने छोटे-छोटे दृष्टान्तों के रूप में ६२४ लघु-कथानक लिखे हैं जो कि सर्वजनग्राह्य उपयोगी और पठनीय हैं। इस ग्रन्थ की १०० लघु कथाओं का आधार लेकर मैंने अपनी भाषा में यह शुभशीलशतक का सङ्कलन किया है। प्रस्तुत कृति इस ग्रन्थ का न तो शब्दानुवाद है और न भावानुवाद है, आधार इसका अवश्य है किन्तु स्वतन्त्र है। यही कारण है कि कथाओं के शीर्षक भी वे ही न रखकर परिवर्तित कर दिये है और आज के युगानुकूल ही इस पुस्तक का नाम शुभशीलशतक रखा है। इन लघु कथानकों में जैनाचार्यों, सम्राटों, जैन मन्त्रियों, जैन सेठों के द्वारा मन्दिर निर्माण, धार्मिक कृत्य, उदारता आदि के हैं। चालुक्यवंशीय महाराजा सिद्धराज जयसिंह, परमार्फत् कुमारपाल के मान्य मन्त्रीगण-शान्तु मेहता, उदयन, सज्जन, अम्बड़ और आभड के कथानक भी इसमें प्राप्त है। इसके अतिरिक्त कुछ लोक कथानक भी हैं जो कि १६वीं शताब्दी में प्रचलित थे, उनका भी सङ्कलन इसमें किया गया है। जैसे - जोशी टीडा की कथा। यह कथा राजस्थान में अत्यधिक प्रसिद्ध है और इसकी लोक कथा को आधार मानकर श्री विजयदान देथा ने " भगवान् की मौत'' शीर्षक से विस्तार से कहानी लिखी है जो नया ज्ञानोदय, अंक १८ अगस्त २००४ में प्रकाशित हुई है। "मन की आँखें मींच" कहानी भी कुछ परिवर्तन के बाद स्वामी विवेकानन्द और खेतड़ी नरेश अजितसिंह के दरबाद में घटित हुई थी। कुछ कहानियाँ लोक-प्रसिद्ध हितोपदेश, पञ्चतन्त्र के आधार पर भी हैं। जैनाचार्यों की कथाओं में प्रारम्भ के २ से १७ कथानक तो खरतरगच्छीय आचार्य जिनप्रभसूरि और मोहम्मद तुगलक से सम्बन्ध रखते For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। जिनप्रभसूरि के चमत्कारों की घटनाओं का उल्लेख सोमधर्मगणि (शुभशील के समकालीन) रचित उपदेश-तरंगिणी में भी प्राप्त हैं। कुछ कथाएँ नीति सम्बन्धित हैं, कुछ गणिकाओं की बुद्धिचातुर्य को प्रकट करती हैं, कुछ लोक-कथाएँ जाति व्यवस्था पर भी चोट करने वाली हैं और कुछ कथाएँ 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' के विरोध में भी हैं। यह कहा जा सकता है कि इन लघु-कथाओं के माध्यम से मानव का हृदय सद् धर्म के प्रति आकृष्ट होकर शुभाचरण की ओर अग्रसर हो, शुभ पुण्य कार्यों का संचय कर क्रमशः आत्मशुद्धि स्व-स्वरूप को प्राप्त करे, यही कृतिकार की अन्तरङ्ग शुभ कामना है। यह ठीक है कि प्रायः इन कथाओं का अन्त जैन धर्म के उपदेशों से आवृत है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि शुभशीलगणि स्वयं जैन मुनि थे। प्रस्तुत शुभशीलशतक में १०० कथाएँ प्रकाशित की जा रही हैं। इसके लेखन और प्रकाशन का श्रेय श्री डी.आर. मेहता, संस्थापक प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर को ही है, जिनके अनुरोध पर मैंने अपनी भाषा और शैली में इसका लेखन किया है। - म. विनयसागर For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभशीलशतक कथानुक्रम कथाक्रम कथा-नाम पृष्ठांक rm I ww 9 9 9 9 1 १. मेरे दीक्षित शिष्य केवलज्ञानी और मैं? २. मुल्ला की टोपी को आकाश से उतारना. घट रहित जल का आकाश में स्थिर रहना. क्या प्रतिमा भी बोलती है? वृक्ष का साथ में चलना.. किस दरवाजे से जाऊंगा ५. खल का भोजन करोगे. ६. शक्कर किसमें मीठी लगती है? ७. तालाब छोटा कैसे हो सकता है? ८. मारवाड़ की औरतें अलंकार-रहित क्यों? देवों में बड़ा देव कौन सा है? जिन प्रतिमाएँ अच्छेद्य होती हैं. अधिक उपयोगी बड़ा फूल कौन सा है? सत्यवादी झूठ नहीं बोलते. जगत में सबसे बड़ा रत्न कौन सा है? न्यासित धन लौटाना. रत्नों का मूल्य भिन्न-भिन्न है. संघ रक्षण हेतु देवियों को शिक्षा. १७. सुरताण का न्याय. तकदीर से प्रस्तर भी रत्न बन जाते हैं. १९. भीषण अकाल में जगडू शाह की दानशालाएँ सेठ जगत्सिंह का गृहचैत्य तीर्थ के समान है. २१. साधर्मिक भक्ति और जगडू शाह. २२. जगत्सिंह की शत्रुजय यात्राएँ. २३. अयोग्य व्यक्ति की पदोन्नति खतरनाक होती है. 2AM MINORM For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाक्रम कथा-नाम पृष्ठांक २४ 38 ९ ४२ ४५ ३७. ४६ २४. कामचोर का सब जगह अनादर होता है. २५. नागार्जुनः आकाशगामीनी विद्या और रससिद्धि. २६. खल भक्षण की इच्छाः धन नाश का संकेत. २७. हीन कुलोत्पन्न विद्वान श्रेष्ठ कलीन बन जाता है. धन ही भय का कारण है. २९. धर्मशालादि निष्पादन पुण्य कार्य है. ३०. सन्तान के बिना भी स्वर्गगमन होता है. ३१. शनैश्चर देव सब देवों में बड़ा है. ३२. मृग-मरीचिका में माता-पिता का त्याग. ३३. विचारानुसार ही फल की प्राप्ति होती है. ३४. व्यापार ही जाति-बोधक होता है. ३५. अच्छे-बुरे का सूचक. ३६. हाथ का दिया हुआ ही काम आता है. माता द्वारा धर्म-मार्ग दिखलाना. राम नाम से पत्थर तैरते है. समयोचित्त बुद्धि चातुर्य. आँखें मूंद जाने के बाद? आयु प्रति क्षण घटती जाती है. वस्तु तोलने में छल-कपट. ४३. विपदा में समय-यापन ही श्रेष्ठ है. ४४. विद्याभिमानी श्रीधराचार्य. ४५. कूट प्रश्नों द्वारा गर्व-हरण. अतिथि सत्कार. ४७. बुद्धि का चातुर्य. ४८. उत्कृष्ट सुख-दुःख कहाँ है? ४९. नारी के वशीभूत प्रभाचन्द्र. ५०. व्यंग का प्रभाव. ५१. बिना विचारे कार्य करना. ३८. ४७ ३९. ४७ ४०. ४८ ४१. आयुमा ४६. २ ६० For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाक्रम कथा-नाम पृष्ठांक। ६८ ७१ ७४ २ ५२. आचार ही कुल का द्योतक है. ५३. पद, देश और काल के अनुसार ही उपचार. ५४. नुस्खा लिखना ही क्या उपचार है? ५५. अयोग्य का राजा बनने पर प्रजा का दमन. ५६. छली के साथ छल करना आवश्यक है. ५७. भवितव्यता के आगे किसी का जोर नहीं है. ५८. अतिथि-सत्कार का फल. ५९. मुनि का आत्मालोचन के साथ सत्य भाषण. ६०. झूठा कलंक देना भावि-जीवन के लिए खतरनाक है. ६१. ध्यान की महिमा. ६२. गृहस्थ-जीवन में निर्मोहिता. ६३. व्यंग से मंदिर का निर्माण. ६४. फलवर्द्धि पार्श्वनाथ तीर्थ. ६५. अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ. ६६. टीडा की लोक प्रसिद्ध कथा. ६७. बिना याचना के ही मेघ वर्षा करता है. धूर्तों का चक्कर. ६९. मन की आँखें मींच. संगति का असर. ७१. जैसी भावना, वैसी ही प्रजा की प्रतिक्रिया. ७२. दान का समय नहीं होता. गणिका का बुद्धि चातुर्य. अर्थलोभी वैद्य. ७५. ताजिक ग्रन्थ की रचना का कारण. ७६. मैत्री में विश्वासघात. ७७. सत्पात्र दान आवश्यक है. ७८. सुदर्शन का दान और शील. ९३ ९४ ९७ ६ ० १०१ १०२ ७३. १०३ १०६ ७४. १०७ १०८ १११ For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथाक्रम कथा-नाम पृष्ठांक ११३ ११४ ११४ ११६ ११७ ११८ ११९ ८६. १२१ ८७ ७९. दान की महत्ता. ८०. दान का प्रभाव. क्षमा-शील युधिष्ठिर. ८२. कर्ण की कल्पित दान कथा. मारवी (मरुदेशीय) दुर्गत का सर्वस्वार्पण. ८४. लूणिग वसही का नामकरण. ८५. आचार्य देवसूरि और काह्नड़ योगी. पात्र दान में भेद. त्रिया चरित्र पुण्य बल से समृद्धि स्वतः प्राप्त होती है. ८९. अहिंसा की महत्ता. राजपितामह अम्बड़ . ९१. ऊदा का मंत्री उदयन. भाग्यशाली आभड़ . अयोग्य को नमन नहीं. वेष भावनाओं में परिवर्तन ला देता है. ९५. ध्वजारोपण. ९६. नारी का बुद्धि चातुर्य. सिद्धचक्रवर्ती विरुद और योगिनियाँ. ९८. भाग्यानुसार ही प्राप्त होता है. व्रत-पालन में अडिग मुनि १००. सौवर्णिक दण्डालक १२३ १२५ १२८ १३१ १३३ १३४ ९०. ९२. १३५ ९४. १४० १४२ ९७. १४७ १५१ १५९ ९९. १६० For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीः प्रौढ़विद्वान् श्री शुभशीलगणि रचित पञ्चशतीप्रबोध-सम्बन्ध ( प्रबन्ध - पञ्चशती) पर आधारित शुभशीलशतक प्रथम तीर्थंकर भगवान् युगादिदेव, अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर, केवलज्ञानधारी सामान्य जिन और पुण्डरीक गणधर आदि गुरुजनों को बोधि अर्थात् सम्यक्त्व/समाधि प्राप्ति के लिए मैं नमस्कार करता हूँ । कुछ गुरुजनों के मुख से सुनकर, कुछ स्व- शास्त्रों को देखकर और अन्य शास्त्रों का अवलोकन कर मैं इस पञ्चशती - प्रबोध-सम्बन्ध नाम के ग्रन्थ की रचना करता हूँ । श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी के चरण-कमलों की कृपा से शुभशील नामक शिष्य यह रचना कर रहा है। शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे दीक्षित शिष्य केवलज्ञानी और मैं? एक समय भगवान् महावीर के मुख से अष्टापद तीर्थ के नमन का फल सुन कर जब गौतमस्वामी अष्टापद तीर्थ के समीप गये, उस समय वहाँ पर तपस्या करने वाले तपस्वियों ने यह विचार किया कि 'यह क्या कर सकता है?' वे तापस गण विचार करते ही रहे और गौतम गणधर सूर्यकिरणों का आलम्बन लेकर तीर्थ पर चढ़ गये। वहाँ चक्रवर्ती भरत द्वारा बनवाये हुए मन्दिर में शरीर प्रमाण आकार की और वर्ण/रंग के अनुसार बनवाई हुई २४ तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ विराजमान थीं । क्रमशः वन्दन किया। १. क्रमशः चारों दिशाओं में ४, ८, १० और २ कुल २४ तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ विराजमान थीं, उनको वन्दन किया । निश्चित अर्थानुसार परमार्थ को प्रदान करने वाले ये सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि प्रदान करें । अष्टापद तीर्थ स्थित जिनवरों को नमस्कार कर गौतम गणधर उस पर्वत से उतरे, उस समय पर्वत की सीढ़ियों पर तपस्या करने वाले १५०३ तापसगण गौतमस्वामी के उपदेश से प्रतिबोध को प्राप्त हुए और उनके पास चारित्र को ग्रहण किया । मार्ग में चलते हुए गौतमस्वामी ने किसी ग्रामवासी के यहाँ से निर्दोष खीर को पात्र में ग्रहण किया। खीर से भरे हुए पात्र में अपना अंगूठा स्थापित कर समस्त तापसों को भोजन करवाया । लघु पात्र में भरी हुई खीर से भोजन करते हुए, गौतमस्वामी की अत्यन्त चमत्कारिणी अक्षीणमहानसी लब्धि का विचार करते हुए ५०० तापसों को केवलज्ञान प्राप्त हो गया । वहाँ से आगे चलते हुए मार्ग में भगवान् महावीर की सर्व व्यापि वाणी को सुनकर ५०० तापसों को केवलज्ञान हो गया । आगे बढ़ते हुए भगवान् के असाधारण सौन्दर्य को देख कर शेष ५०३ तापसों को भी केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। 2 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त तापसों को केवलज्ञान हो गया है, इस बात की जानकारी गौतमस्वामी को न होने के कारण उन तापसों को निर्देश दिया कि 'समवशरण में विराजमान भगवान् को प्रदक्षिणा देकर वन्दन करो।' वे तापसगण भी केवल प्रदक्षिणा देकर केवली परिषदा में जाकर बैठ गये। उस समय गौतम स्वामी ने कहा – 'मूर्ख, मूर्ख ही होते हैं, कहने पर भी भगवान् को वन्दन नहीं कर रहे हैं।' उसी समय वर्धमान स्वामी ने कहा – 'हे गौतम! केवलज्ञानधारकों की आशातना मत करो।' उत्तर में गौतमस्वामी ने कहा - 'भगवन् ! केवलियों की आशातना कैसे?' तब प्रभु ने उन तापसगणों के केवलज्ञान उत्पत्ति का प्रसंग बतलाया। तत्काल ही गौतमस्वामी तापसों के समीप जाकर नमस्कार कर उनसे क्षमायाचना की और प्रभु की तरफ मुख करके बोले - 'भगवन् ! जिनको भी मैं दीक्षा प्रदान करता हूँ उन सबको केवलज्ञान हो जाता है, किन्तु मुझे नहीं हो रहा है, इसका मुझे खेद है।' भगवान् ने कहा - 'हे गौतम! तुम्हे भी केवलज्ञान अवश्य होगा, निश्चिन्त रहो।' २. मुल्ला की टोपी को आकाश से उतारना. एक समय श्री जिनप्रभसूरि पिरोज सुरत्राण (मोहम्मद तुगलक) के साथ बैठे हुए गोष्ठी कर रहे थे। उस समय कई मौलवी वहाँ आये। एक मौलवी ने अपनी टोपी को आकाश की तरफ उछाल दिया। वह टोपी आकाश में निराधार ही खड़ी रही। यह देखकर सुलतान ने जिनप्रभसूरि की ओर देख कर कहा - 'अहो ! बड़े आश्चर्य की बात है।' सूरिजी ने कहा - वास्तव में ही आश्चर्यकारी घटना है। सूरिजी ने मंत्र/बल से उस टोपी को आकांश में स्तम्भित कर दिया। इसके बाद सुलतान ने मुल्ला को कहा - 'टोपी को वापस बुला लो।' शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुल्ला ने आकर्षण मंत्रों का कई बार प्रयोग किया किन्तु वह टोपी नीचे नहीं आई। मुल्ला हताश हो गया। उसी क्षण सुलतान ने आचार्य से कहा – 'हे जिनप्रभसूरि ! मुल्ला तो निराश हो गया है, आपमें कोई शक्ति हो तो टोपी को वापस बुलाओ।' तत्काल ही सूरिजी ने रजोहरण को मंत्रित कर आकाश की ओर उछाला। वह रजोहरण आकाश में जाकर टोपी पर चोट करते हुए उसे नीचे गिरा दिया। यह चमत्कार देख कर सुरत्राण आश्चर्यचकित रह गया। घट रहित जल का आकाश में स्थिर रहना. एक दिन पानी लाने वाली पणिहारियाँ जल से भरे हुए घड़े सिर पर रखकर सुलतान के आगे चल रही थीं। उसी समय एक मुल्ला ने मंत्र बल से उन घड़ों को आकाश में निराधार ही स्थिर कर दिया। पणिहारियाँ आगे जाकर सिर पर घड़े को नहीं देखती हैं और आकाश में उस घड़े को देखती हैं। वे विस्मय से भर जाती हैं। सुलतान इस कृत्य को देखकर अत्यन्त चमत्कृत होता है। सुलतान आचार्य के समक्ष इस चमत्कार की प्रशंसा करता है। तब जिनप्रभसूरि ने कहा – 'यदि केवल जल ही आकाश में स्थिर रहे, तभी यह प्रशंसनीय कला है।' सुलतान ने उसी समय मुल्ला की ओर इशारा किया। मुल्ला इस कला को नहीं जानता था, अत: वह चुपचाप खड़ा रहा। उसी समय जिनप्रभसूरि ने आकाश की ओर कंकर फेंका। उस कंकर के लगने से घडा फूट गया किन्तु जल निराधार ही स्थिर रहा। आचार्य की यह चमत्कार कला देखकर मोहम्मद तुगलक अत्यन्त प्रसन्न हुआ। ३. क्या प्रतिमा भी बोलती है? किसी समय मोहम्मद तुगलक की सेना ने कान्हड़ गाँव (कन्यानयन, कन्नाणा) को तहस-नहस कर डाला। वहाँ के जैन मन्दिर को भी नष्ट कर डाला और उस मन्दिर में विराजमान भगवान् महावीर की प्रतिमा को साथ में शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकर यवनलोग दिल्ली आ गये। वहाँ काफिरों की प्रतिमा समझकर मस्जिद की सीढ़ियों पर रख दिया । एक समय मोहम्मद तुगलक जिनप्रभसूरि के कन्धों पर हाथ रखकर मस्जिद में प्रवेश करने लगा । वहाँ सीढ़ियों पर भगवान् महावीर की प्रतिमा को देखकर जिनप्रभसूरि एक ओर खड़े रह गये । उसी समय सुलतान ने कहा- 'हे मित्र ! तुमने ऐसा क्यों किया ?' आचार्य - 'हमारे देवाधिदेव हैं, उनके ऊपर हम कैसे चल सकते हैं?' सुलतान - 'यह बूत क्या जानता है, कुछ भी नहीं । ' आचार्य 'यह देव सत्यवादी और ज्ञानी है । ' सुलतान - 'यदि तुम्हारा देव ज्ञानी है तो कुछ जुबान से बोले ।' आचार्य - ‘जब इस देव को पूजनीय स्थान पर विराजमान कर पूजते हैं, मानते हैं और पूछते हैं तभी वे उत्तर देते हैं । ' आचार्य के कहने पर सुलतान ने नया मन्दिर बनवाया । उस मन्दिर में विराजमान करने के लिए उस प्रतिमा को उस स्थान से उठाने लगे किन्तु प्रतिमा उस स्थान से किंचित् भी चलायमान नहीं हुई । सुलतान ने आचार्य की ओर देखा । आचार्य ने कहा- 'तुम स्वयं हाथ से उठाओगे तो प्रतिमा उठेगी।' सुलतान ने वैसा ही किया । वहाँ से प्रतिमा को लेकर आए और नूतन जिन मन्दिर में उसकी स्थापना की। सुलतान ने श्रेष्ठ पूजा सामग्री से उस देव - मूर्ति की पूजा की। मुख पर मुख कोश बाँधकर सुलतान ने भूतकाल में हुए अपने वंश के सम्बन्ध में प्रश्न किये । देवाधिष्ठित मूर्ति ने उन सबके सटीक उत्तर दिये । सुलतान अत्यन्त प्रसन्न हुआ और विशेष रूप से महावीर मूर्ति की पूजा करने लगा। इसी कारण दिल्ली में स्थित होने पर भी यह कान्हड़ महावीर कहलाए । वृक्ष का साथ में चलना. के एक समय सुलतान ग्रीष्म ऋतु में नगर के बाहर बड़ के वृक्ष नीचे बैठे थे। छायादार बड़ को देखकर सुलतान ने जिनप्रभसूरि से कहा शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 5 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'यदि इस प्रकार की शीतल छाया साथ में चले तो बहुत ही सुखदायक हो ।' जिनप्रभसूरि - 'वृक्ष भी साथ चलेगा । ' सुलतान वहाँ से उठकर आगे चलने लगे, साथ में वट-वृक्ष भी सायंकाल तक साथ चला। बाद में उस स्थान को भी देखा, वह स्थान शून्य था। सायंकाल के पश्चात् जिनप्रभसूरि ने उस वृक्ष को अपने स्थान पर वापस भेज दिया। सुलतान आश्चर्यचकित रह गया। किस दरवाजे से जाऊंगा. ४. एक समय सुलतान ने जिनप्रभसूरि से कहा - 'हे जिनप्रभसूरि ! तुम विद्वान् हो । मंत्र- कला विज्ञ हो तो यह बतलाओ कि मैं आज नगर के किस दरवाजे से बाहर जाऊँगा ।' 1 जिनप्रभसूरि ने तत्काल ही एक पत्र में लिखकर बंद कर सुलतान को दे दिया और कहा - 'नगर के बाहर निकलने पर ही इस पत्र को पढ़ें।' इधर सुलतान एक दरवाजे की ईंटें हटवाकर नगर से बाहर निकला और एक स्थान पर बैठ कर उस पत्र को पढ़ा । विस्मय विमूढ़ हो गया । पत्र में वहीं लिखा था । खल का भोजन करोगे. — एक दिन सुलतान ने कहा ' आचार्य ! यह बतलाओ - मैं आज भोजन में क्या ग्रहण करूँगा?' जिनप्रभसूरि ने एक पत्र पर लिखकर बंद कर सुलतान को दे दिया और कहा 'भोजन के पश्चात् इसे पढ़ें।' जिनप्रभसूरि को झूठा सिद्ध करने के लिए बहुत सोच-विचार के पश्चात् खल का भोजन किया । भोजनोपरान्त आचार्य के पत्र को देखा, जिसमें लिखा था कि 'आप खल का भोजन करेंगे।' सुलतान प्रसन्न हुआ । 6 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्कर किसमें मीठी लगती है? एक दिन सुरत्राण ने कहा 'आचार्य बतलाओ शक्कर किसमें डालने पर मीठी लगती है ?' मन्त्रियों और पण्डितों से भी पूछा, उनके उत्तर से सुलतान सन्तुष्ट नहीं हुआ तब जिनप्रभसूरि ने कहा 'मुख में डालने पर शक्कर मीठी लगती है । ' ७. तालाब छोटा कैसे हो सकता है? 1 एक समय सुलतान नगर के बाहर बगीचे में गये । वहाँ जल से परिपूर्ण विशाल सरोवर को देखकर उन्होंने सबके सम्मुख कहा - 'रेत की भराई के बिना ही यह सरोवर छोटा कैसे हो सकता है?' इस प्रश्न का साथ चलने वालों में से किसी ने उत्तर नहीं दिया तब जिनप्रभसूरि ने कहा ' इस सरोवर के पास में ही दूसरे विशाल सरोवर का निर्माण करा दिया जाय तो यह स्वत: ही छोटा हो जायेगा ।' सुरत्राण प्रसन्न हुआ । मारवाड़ की औरतें अलंकार - रहित क्यों? ६. ८. एक समय मोहम्मद तुगलक प्रवास करते हुए मारवाड़ में आए, गाँव की ललनाओं ने अक्षतों (चावलों) से उनको वधाया। सुलतान ने उन लोगों को धन प्रदान करने के पश्चात् आचार्य से पूछा 'ये की मारवाड़ औरतें आभरण-रहित क्यों दिखाई दे रही हैं? इनको किसी ने लूट लिया है या किसी ने इनको दण्डित किया है?" — जिनप्रभसूरि ने कहा - 'यह मारवाड़ की धरती जल के अभाव में रूखी-सूखी है, इसी कारण यहाँ की औरतें धन-रहित दिखाई दे रही हैं । ' ९. सुलतान ने उसी समय प्रत्येक औरत को सौ-सौ दीनारें प्रदान कीं । ग्राम-नारियों ने जय-जयकार किया 1 देवों में बड़ा देव कौन सा है? एक समय सुलतान मोहम्मद तुगलक ने कहा - 'जिस प्रकार कान्हड़ महावीर चमत्कारी तीर्थ है? इस प्रकार का क्या और भी चमत्कारी तीर्थ है ?' - शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 7 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सुनकर जिनप्रभसूरि ने शत्रुञ्जय तीर्थ की महिमा का विस्तार से वर्णन किया। महिमा सुनकर दर्शन करने हेतु जिनप्रभसूरि और समस्त श्रीसंघ के साथ सुलतान शत्रुञ्जय तीर्थ गया। तीर्थ को देखते ही वह भावविभोर हो गया। उसी समय आचार्य ने कहा – 'यदि मोतियों से रायण वृक्ष को वधाया जाए तो इस वृक्ष से खीर झरती है।' सुलतान ने वैसा ही किया। रायण वृक्ष से खीर झरने लगी। सुलतान ने संघपति पद का महोत्सव किया। उसने वहाँ एक लेख लिखवाया - जो भी इस तीर्थ की अवज्ञा करेगा वह अपराधी होगा। सात लक्ष्मण रेखाओं से अंकित किया। शत्रुञ्जय पर्वत से उतरते हुए सुलतान ने सब लोगों से कहा - 'अपने-अपने देवों की मूर्तियाँ लाओ।' यात्रिगण ने अपने-अपने आराध्य देव - ब्रह्मा, विष्णु, महेश और जिनेश्वर आदि की मूर्तियों को लेकर आए। उन सब मूर्तियों को एक स्थान पर विराजमान कर पूछा - 'इन देवताओं में बड़ा कौन है?' किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया, तब जिनेश्वर देव की प्रतिमा को मुख्य स्थान पर विराजमान कर और विष्णु आदि की प्रतिमाओं को उसके आस-पास में विराजमान कर दी और स्वयं जिन प्रतिमा के समक्ष आसन पर बैठ गया और अपने शस्त्रधारी सैनिकों को अपने चारों ओर नियुक्त कर दिया। तत्पश्चात् फिर सुल्तान ने पूछा - 'बड़ा कौन है?' जनसमूह ने कहा – 'स्वामी ही बड़े हैं।' अन्त में सुलतान बोला – 'यदि ऐसा ही है तो जिनेश्वर देव ही बड़े हैं क्योंकि ये शस्त्र-रहित हैं। शस्त्रधारी सब इनके सेवक हैं।' सब लोगों ने कहा - 'प्रभु के सम्बन्ध में आपके विचार ही प्रमाणभूत हैं।' १०. जिन प्रतिमाएँ अच्छेद्य होती हैं. एक समय सुरत्राण गिरिनार तीर्थ पर गये, वहाँ विराजमान नेमिनाथ की प्रतिमा का माहात्म्य सुना। कहा गया कि, 'यह प्रतिमा अच्छेद्य, अभेद्य होती है। खण्डित नहीं की जा सकती।' इसके परीक्षण हेतु उसकी आज्ञा से शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवकों ने लोहघन से प्रतिमा को तोड़ने का प्रयत्न किया। लोहघन के आघात से प्रतिमा के भीतर से अग्नि ज्वालाएँ निकलने लगीं । प्रतिमा का कुछ भी बिगाड़ नहीं हुआ। यह देखकर सुरत्राण ने भगवन् मूर्ति से अपने अपराध की क्षमा चाही । विधि पूर्वक वन्दन किया और स्वर्ण दीनारों से मूर्ति को वधाया । ११. अधिक उपयोगी बड़ा फूल कौन सा है ? एक समय सुरत्राण ने जिनप्रभसूरि से पूछा- 'भूमि में सबसे विस्तार वाला फूल कौन सा है ? ' जिनप्रभसूरि ने उत्तर दिया- 'वउनि अर्थात् कपास ।' कपास के फूल ही सब लोगों के शरीर को आच्छादित करने का काम करते हैं, अतः वही सबसे बड़ा और उपयोगी है। १२. सत्यवादी झूठ नहीं बोलते. एक दिन सुलतान के सम्मुख किसी ने ईष्यावश कहा 'सुलतान ! जगत्सिंह सज्जन पुरुष हैं, वह कभी झूठ नहीं बोलता ।' सुलतान ने इस बात का परीक्षण करने के लिए जगत्सिंह से पूछा ' हे जगत्सिंह! तुम्हारे पास कुल सम्पत्ति कितनी है ? ' जगत्सिंह ने कहा 'इसका उत्तर मैं कल दूँगा । ' वहाँ से घर जाकर अपनी सारी समृद्धि का आकलन किया और दूसरे दिन सुरत्राण की सभा में जाकर सुलतान से जगत्सिंह ने कहा 'सुरत्राण ! मेरे घर में ८४ लाख स्वर्ण टंकों की सम्पत्ति है ।' घर की सम्पत्ति का भेद कोई भी नहीं बतलाता । जगत्सिंह की सच्चाई देखकर सुलतान ने १६ लाख स्वर्ण टंक अपने कोषागार/राजभण्डार से प्रदान किये और जगत्सिंह को कोटिध्वज सम्मान से अलंकृत किया । शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 9 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. जगत में सबसे बड़ा रत्न कौन सा है? एक दिन राज सभा में बैठे हुए सुलतान ने अपने हाथ में एक अमूल्य रत्न लेकर कहा – 'हे जगत्सिंह ! जो यह रत्न मेरे हाथ में है, उससे अधिक मूल्यवाला श्रेष्ठ रत्न कहीं विद्यमान है?' जगत्सिंह ने उत्तर दिया - 'हे सुलतान! इस रत्न से भी अधिक अमूल्य रत्न जगत में विद्यमान है और वह असाधारण रत्न आप स्वयं ही हैं।' जगत्सिंह की हाजिर-जवाबी देखकर सुलतान अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसको बहुत धन दे कर सम्मानित किया। १४. न्यासित धन लौटाना. खुरसाण देश के रहने वाले वणिक ने एक समय ओसवाल जाति के मुख्य शिरोमणि सज्जन प्रकृति वाले जगत्सिंह का घर अत्यन्त विश्वसनीय और सुरक्षित समझ कर ५ लाख टंक (उस समय की मुद्रा) वहाँ रखकर चला गया। ७ वर्ष व्यतीत हो गये। इसी बीच श्रेष्ठि जगतसिंह का स्वर्गवास हो गया। उसने सुना और मन में विचार किया, 'मेरा यह न्यासित धन अकाल में ही समाप्त हो गया।' पुनः उसे विचार आया, जगत्सिंह का पुत्र मुहणसिंह भी जगत्सिंह के समान ही विश्वसनीय है, क्यों न उसका परीक्षण करूँ? सम्भव है वह गया हुआ धन मुझे वापस मिल जाए।' यह सोचकर कुछ समय के पश्चात् वह प्रवास करता हुआ मुहणसिंह के निवास पर आया। उससे मिला और उससे कहा - 'हे मुहणसिंह ! तुम्हें ज्ञात ही होगा कि तुम्हारे पिता मेरे घनिष्ठ मित्र थे। मैं तुम्हारे पिता के पास में ५ लाख टंक छोड़कर चला गया था, वर्षों बाद लौटा हूँ। अब मुझे मेरा धन वापस कर दो।' मुहणसिंह ने कहा - 'आपके झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है। आपकी बात मैं स्वीकार करता हूँ किन्तु यह लेन-देन का मामला है। व्यावसायिक दृष्टि से यदि उस समय मेरे पिताजी ने कोई पर्चा लिख कर दिया हो तो वह मुझे दिखाईये। वह धन मैं आपको सौंप दूंगा।' 10 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस खुरसाणी व्यक्ति के पास कोई लिखा-पढ़ी का कागज नहीं था। आपस में वाद-विवाद बढ़ा। दोनों पक्ष सुलतान की सभा में गये और उनके समक्ष अपने-अपने पक्ष को प्रस्तुत किया। खुरसाणी ने कहा - 'मैं शपथ लेकर यह कहता हूँ कि इसके पिता के पास मैंने ५ लाख टंक धन रखा था।' मुहणसिंह का जवाब था - 'पिताजी ने यदि ५ लाख कीमत की कोई वस्तु आप से खरीदी थी, तो उसका भुगतान उसी समय कर दिया होगा।' वाद-विवाद के अन्त में उस खुरसाणी व्यक्ति ने जगत्सिंह के हाथ का लिखा हुआ पर्चा दिखाया। तत्काल ही मुहणसिंह ने ५ लाख टंक प्रदान कर दिये। साथ ही १ लाख और अधिक प्रदान कर उसके साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित कर लिया। खुरसाणी बोला – 'सिंह से सिंह ही उत्पन्न होता है, सियार नहीं।' . वह मुहणसिंह दोनों वक्त प्रतिक्रमण करता था, त्रिकाल देव-पूजन करता था, साधुओं को भोजन-दान देने के पश्चात् ही भोजन करता था और प्रतिवर्ष संघ-पूजा के साथ स्वधर्मीवात्सल्य भी करता था। १५. रत्नों का मूल्य भिन्न-भिन्न है. एक दिन सभा में किसी जौहरी ने बेचने की इच्छा से सुरत्राण के समक्ष तीन रत्न रखे। सुलतान ने नगर के रत्नपरीक्षक समस्त जौहरियों को उन रत्नों का मूल्यांकन करने के लिए बुलाया। जौहरियों ने तीनों रत्न देखे और किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सके। अन्त में जगत्सिंह को वे तीनों रत्न दिखाए। परीक्षण करने के पश्चात् जगत्सिंह ने कहा - 'हे सुलतान ! इसमें यह रत्न बहुमूल्य/अमूल्य है। दूसरा रत्न लाख रुपये का है और तीसरा रत्न कौड़ियों की कीमत का है।' सुलतान ने पूछा - 'इस अन्तर का कारण क्या है?' शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब जगत्सिंह के कथनानुसार परीक्षण हेतु बहुमूल्य रत्न पर हथौड़े से सौ बार चोट की गई, किन्तु वह नहीं टूटा। दूसरा रत्न दस बार चोट खाने पर कुछ खण्डित हो गया। तीसरे रत्न पर हथौड़े के चोट पड़ते ही दो टुकड़े हो गये और उसमें से मृत मेंढ़क के अवशेष नजर आए। परीक्षणोपरान्त सुलतान ने जगत्सिंह को सम्मानित किया और उस व्यापारी से पहले रत्न के ३ लाख, दूसरे रत्न के १ लाख और तीसरे रत्न के लिए कौड़ियाँ देकर रत्न खरीद लिये। १६. संघ रक्षण हेतु देवियों को शिक्षा. एक नगर में श्रीसंघ में कोई रोग उत्पन्न हो गया था। अनेक उपचार करने पर भी उसका निवारण न हो सका था, इसलिए समाज ने रोग निवारण हेतु जिनप्रभसूरि के पास दो श्रावकों को भेजा। जिस समय वे दोनों उपासक जिनप्रभसूरि के पास पहुँचे, उस समय जिनप्रभसूरि ध्यान कर रहे थे और उनके समीप में उन श्रावकों ने दो तरुणियों को देखा। उन्होंने विचार किया कि 'ये गुरु तो स्त्री-परिग्रहधारी हैं, अत: उनसे क्या निवेदन किया जाए?' वे दोनों श्रावक उलटे पैर ही वापस चले, उसी समय वे दोनों उसी स्थान पर स्तम्भित हो गए। स्तम्भित अवस्था में ही उन दोनों ने आश्चर्यजनक चमत्कार देखा। ध्यान पूर्ण होने पर दोनों देवियों ने आचार्यश्री से पूछा - 'यहाँ आपने हमें किसलिए बुलाया है?' आचार्य ने उत्तर दिया - 'तुम दोनों संघ में उपद्रव मचा रही हो, अतः शिक्षा देने के लिए मैंने तुम्हे बुलाया है।' तत्काल ही दोनों देवियों ने हाथ जोड़कर निवेदन किया-'आज से हम श्रीसंघ में किसी प्रकार उपद्रव नहीं करेंगे।' उन दोनों की ओर से स्वीकृति मिलने पर आचार्य ने उन्हें वापस जाने का आदेश दिया। दोनों दर्शक श्रावक अत्यन्त प्रमुदित हुए और आचार्य को नमस्कार किया और दोनों देवियों के सम्बन्ध में पूछा। शुभशीलशतक 72 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ने उत्तर दिया - 'आपके नगर में जो उपद्रव हो रहा है, ऐसा मैंने सुना है। उस उपद्रव के निवारण के लिए मैंने इन देवियों को बुलाया था। आज से संघ में किसी प्रकार का कोई उपद्रव नहीं होगा। आप दोनों ने देखा है कि उपद्रवकारी दोनों देवियों ने यह स्वीकार किया है।' तदनन्तर दोनों श्रावक अपने नगर को लौटे। श्रीसंघ के समक्ष पूर्ण घटनाचक्र सुनाया। देवियों के कथनानुसार उपद्रव भी शान्त हो गया था। १७. सुरताण का न्याय. एक समय मेवाड़ का रहने वाला पाल्हाक नामक वैद्य सुलतान की चिकित्सा करने के लिए वहाँ आया था। एक दिन वह वैद्य कोमलगच्छ के आचार्यों के निवास स्थान पर गया, उस समय वहाँ विराजमान कोमलगच्छ के आचार्यों ने तपागच्छ के आचार्यों की भरपेट निंदा की। तपागच्छ का अनुयायी समझ कर उस वैद्य को वहाँ से निकाल दिया। वैद्य ने अनुभव किया कि वास्तव में आचार्य कोमल अर्थात् शिथिलाचारी हैं । जब यह घटना तपागच्छ के अनुयायिओं को ज्ञात हुई तो वे झगड़े के लिए आमादा होकर वहाँ पहुँच गये, दोनों की आपस में बोलचाल हुई और बढ़ती हुई झगड़े तक पहुँच गई। हाथापाई होने लगी। हाथापाई में कुछ के हाथ टूट गये, कुछ के मुख पर चोट आई। अन्त में आपसी कलह को दूर करने की दृष्टि से दोनों ओर के लोग सुलतान के पास पहुँचे। दोनों ने अपने-अपने पक्ष रखे। दोनों पक्षों की पूर्ण घटना सुनकर सुरताण ने कहा - 'किसको दण्ड दिया जाए? आप सब न्याय करने वाले है और अभी अन्याय के मार्ग पर चल रहे हैं। जाओ शान्ति से रहो, आगे से किसी प्रकार का झगड़ा मत करना।' १८. तकदीर से प्रस्तर भी रत्न बन जाते हैं. समुद्र के किनारे बसे हुए भद्रेश्वरपुर में साधु पुरुष जगडू शाह निवास करता है। वह जल और स्थल दोनों प्रकार के व्यवसाय करता है। एक समय जगडू वणिक जहाज में विक्रय योग्य माल रखकर हरिमज द्वीप को गया। वहाँ माल रखने के लिए एक भण्डार/गोदाम किराये पर लिया। शुभशीलशतक 13 For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहाजों से माल उतारा, क्रय-विक्रय करने लगा। उस समुद्र के किनारे पर ऐसे अनेक भण्डार थे । एक समय दो भण्डारों के बीच में एक बहुत बड़ी शिला निकली। उसको बाहर निकाल कर एक स्थान पर रख दिया। उस शिला पर दो व्यापारी बैठ कर वस्तुओं का भाव-ताव करने लगे । उन दोनों में विवाद उत्पन्न हो गया। एक ने कहा कि, जिस शिला पर बैठे हो, वह मेरी है। दूसरे ने कहा कि, मेरी है । विवाद बढ़ता गया और विवाद के निपटारे के लिए दोनों व्यापारी राजा के पास में गये। उस शिला की बोली लगने लगी। दूसरे व्यापारी ने ३००० रु० की बोली लगाई। जगडू सेठ ने अधिक बोली लगाकर उस शिला को अपने कब्जे में कर लिया और उसको अपने जहाज में रख दिया, वापस लौटते हुए भद्रेश्वर नगर के किनारे पहुँचे । 1 " उस समय एक पुरुष जगडू सेठ के पास पहुँचा और इधर-उधर की बात करने के उसने कहा पश्चात् आप बहुत धन और माल खरीद कर लाये हैं, सुना है कि एक बहुत बड़ी शिला भी खरीद कर लाए हो। वह तो तुम्हारे घर को ही भर देगी ।' उसके मजाकिया लहजे को समझकर जगडू ने कहा- 'व्यापारी व्यापार में सभी प्रकार की वस्तुओं को श्रेष्ठ समझकर खरीद करता है । व्यापारी का जैसा भाग्य होता है, वैसे ही वह वस्तु खरीदता है और उसका लाभ भी प्राप्त करता है । इसमें विचार न करें तो अच्छा है । ' - उसके पश्चात् जगडू समुद्र के किनारे गया और उस शिला को अपने घर पर ले आया और कहा 'कर्म की गति के आगे हँसने अथवा रोने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। मैं इस शिला का महत्त्व समझता हूँ। ऐसा कहते हुए उस शिला को घर के बीच में रखवा दिया।' एक दिन उस शिला पर बैठे हुए जगडू सेठ ने विचार किया अपनी समृद्धि का दान करते हुए मैं पृथ्वी के समस्त लोगों को सुखी कर दूँ ।' एक दिन वह गुरु की सेवा में पहुँचा और उस पत्थर के सम्बन्ध में सारी घटना उनको सुनाई और पूछा - 'यह शिला मुझे लाभदायक है या नहीं ? " ने उत्तर दिया- 'शिला के मध्य में अपार सम्पत्ति है । ' गुरु 14 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगडू ने घर जाकर इस शिला के टुकड़े करवाये, उस शिला में से लाखों रुपये के रत्नों का भण्डार निकला। उस सम्पत्ति से वह समृद्धशाली बन गया। १९. भीषण अकाल में जगडू शाह की दानशालाएँ. . भद्रेश्वर नगर में भाडल नाम का राजा राज्य करता था, वह पत्तन नगर के राजा बीसलराज की सेवा करता था। वहाँ सालग श्रेष्ठि अपनी पत्नी श्रीदेवी के साथ रहते थे। उनके तीन पुत्र थे - जगडू, पद्मराज और मल्ल। इनमें से जगडू सेठ ने समुद्र के किनारे अपना बाजार लगाया। एक दिन समुद्र में रहे हुए जहाज के एक मालिक ने जगडू सेठ के पास आकर कहा - 'हमारा एक जहाज मोम के माल से भरा हुआ है। यदि आपको रुचिकर हो तो खरीद कर ग्रहण कर लें।' यह सुनकर जगडू सेठ वहाँ गये और तोल-मोल करके मोम से भरे हुए जहाज को खरीद लिया। जहाज से माल उतार कर बैलगाड़ी में भर कर घर भिजवा दिया। जगडू सेठ के कर्मचारियों ने सेठ के घर जाकर उसकी पत्नी को कहा – 'जगडू साधु ने मदन (मोम) खरीदा है, कहाँ उतारें?' उस पर सेठ की पत्नी ने उत्तर दिया - 'हमारे घर में पाप/बन्धन/ कारक मदन को उतारने के लिए स्थान नहीं है।' नौकरों ने भी वहाँ नहीं उतारा और घर के आंगन में नीम के वृक्ष के नीचे वह माल उतार दिया। जगडू सेठ का अपनी पत्नी के साथ झगड़ा हुआ। पत्नी ने धिक्कारते हुए कहा कि 'मदन के व्यापार में बहुत पाप लगता है।' इस आपसी कलह से दोनों रुष्ट हो गये। जगडू अपनी पत्नी के साथ नहीं बोलता था और पत्नी जगडू के साथ नहीं बोलती थी। तीन माह बीत गये। ___ सर्दी का मौसम आ गया। सेठ जगडू के पुत्र ने सर्दी से बचाव के लिए अँगीठी जलाई और उसमें घास और लकड़ी डालने लगा। बालक ने शुभशीलशतक 15 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चपलता से मोम की एक ईंट उसमें डाल दी। मोम गल गया । उसमें से सोने की ईंट नजर आई। सेठानी ने देखा और मन में सोचा, . बोलचाल न होते हुए भी धन के लोभ से जगडू को कहा 'इधर देखो ।' जगडू ने सामने होते हुए भी रुष्ट होने के कारण उसको नहीं देखा, तब सेठानी ने कहा - 'हमारी मेण की ईंटें स्वर्ण की ईंटें बन गई हैं । ' सेठ ने उस स्वर्ण की ईंट को देखा, सोचा कि परीक्षण किया जाए कि क्या मोम में छुपी हुई सब ही सोने की ईंटें हैं? परीक्षण किया, मोम से आच्छादित सोने की ईंटें ही निकली। पश्चात् प्रच्छन्न रूप से घर में लाकर मेण को अलग कर शुद्ध सोने को रख लिया । - उस समय सेठ की पत्नी ने सेठ को कहा - 'गुरु महाराज को बुलाते 4 धर्म कार्यों में धन खर्च करना है ।' बुलाने पर गुरुराज आये । उन्होंने कहा चाहिए | धन शाश्वत नहीं होता है । ' गुरु महाराज ने जब लोगों से मुख से यह सुना कि 'सेठ जगडू ने मेण का व्यापार किया है तो वे मन में व्यथित हुए और जगडू सेठ के यहाँ गौचरी / भोजन लेने के लिए नहीं जाने लगे । उनके घर को छोड़कर अगले घरों में चले जाते । ' - एक दिन देववन्दन के लिए शिष्य सहित गुरुदेव को बुलाया। गुरुदेव गृहमन्दिर में जिनेश्वर देव का वन्दन करते हैं, उसी समय एक छोटे साधु ने कहा - 'गुरुदेव ! क्या जगडू के घर में सोने की लंका आ गई है? इधर देखिये तो सही । ' 16 तब गुरुराज ने स्वर्ण की ईंटों को देखकर जगडू से पूछा- 'ये सोने की ईंटें कहाँ से आई हैं?' जगडू ने मोम की ईटों के व्यापार की जो भी घटना हुई, वह उनको बतलाई। जगडू से उत्तर प्राप्त कर गुरु महाराज हर्षित हुए, वहाँ से उपाश्रय में आए। उस समय जगडू ने कहा - ' 'गुरुदेव ! मैंने मोम के भ्रम से यह ईंटें खरीदी थीं। वे ईंटें ही स्वर्णमय हो गईं। राज-भय से हम कुछ नहीं बोले ।' उन स्वर्णमय ईंटों के व्यापार से जगडू सेठ करोड़पति बन गया । शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक समय भविष्यकाल को देखते हुए गुरु महाराज ने भाषा-समिति को ध्यान में रखते हुए संकेत किया - 'सम्वत् १३१५, १३१६ और १३१७ में दुर्भिक्ष/अकाल पड़े।' उस भावी संकेत को समझ कर जगडू सेठ ने ग्रामग्राम और नगर-नगर में वणिक - पुत्रों को भेज कर धान्य का अपूर्व संग्रह कर लिया। दुष्काल के आने पर उसने बड़ी-बड़ी ११२ भोजनशालाएँ खोली । जिसमें प्रतिदिन १०,५०० व्यक्ति मुफ्त भोजन करते थे । अनाज के बिना अन्य राजा लोग भी दुःखी हुए। उनके दुःख को ध्यान में रखते हुए पत्तनाधिपति बीसलदेव राजा के पास ८,००० मूढ़क भिजवाए। (१०० मन का एक मूढ़क होता है) १२,००० मूढ़क हम्मीर राजा के पास भिजवाएँ । इसी समय जगडू के पास में गजनी का सुरताण धान्य की याचना के लिए आया । उस समय जगडू उनके समक्ष गया । हूँ ।' सुरताण ने कहा - 'जगडू कौन है?' जगडू ने कहा जगडू ने कहा कहा 'रंक निमित्त धान्य इनको दे दो ।' - सुरताण ने कहा ‘न्याय से धान्य का दान करके तुमने जगत् का उद्धार किया है, इसलिए तुम ही जगत्पिता हो ।' पश्चात् सुरताण ने धान्य की याचना की। — 'मैं जगडू 'ग्रहण कीजिए।' उसने कोठार के अध्यक्ष को यह सुनकर सुरताण ने कहा - 'रंक निमित्त धान्य मैं नहीं लेता, वापस जाता हूँ।' तब जगडू सेठ ने स्पष्ट करते हुए कहा 'रंक निमित्त का अर्थ २१,००० मूढ़क होता है।' सुरताण ने उतना धान्य स्वीकार किया । अट्ठ य मूढसहस्सा वीसलरायस्स बार हम्मीरे । इगवीसा सुरताणे तई, दिद्धा जगडू दुब्भिक्खे ॥ अर्थात् - दुर्भिक्ष के समय जगडू सेठ ने बीसलराज को ८,००० शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 17 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूढ़क और हम्मीर राजा को १२,००० मूढ़क तथा सुरताण को २१,००० मूढ़क प्रदान किये। (१०० मन का एक मूढ़क होता है) दानसाल जगडू त्रणी, केती हुई संसारि। नवकरवाली मणी अड तेहिं अग्गला विआरि॥ अर्थात् - जगडू शाह की दानशालाओं के समान संसार में कितनी दानशालाएँ है? जैसे नवकरवाली (माला) में १०८ मणियें होते हैं, उसके आगे का विचार करना चाहिए। एक दिन पाटन नगर के पास में ही जगडू सेठ की दानशाला होने के कारण बीसल राजा वहाँ पर पहुँचा। उसने वहाँ देखा कि उस दानशाला में २०,००० लोग भोजन कर रहे थे। यह दृश्य देखकर बीसलराज ने जगडू शाह को कहा - 'अन्न तुम्हारा हो और मेरी तरफ से घी भी हो।' तदनुसार भोजन में घी भी दिया जाने लगा। बीसल राजा ने तेल भेजा किन्तु जगडू शाह अपने सत्रागार में घी भी देने लगा। एक समय राजा ने जगडू के पास से जी जी शब्द सुना, उसी समय किसी चारण ने कहा बीसल तूं विरुई करइं, जगडू कहावइ जी। तुं नमावइ तेलसुं उअ नमावइ घीइ॥ अर्थात् - हे बीसल! तू राजा कहलाता है और जगडू शाह जी कहलाता है। तू तेल देकर जगत को नमनशील बनाता है और जगडू शाह घी देकर दुनिया को अपनी ओर आकर्षित करता है। जगडू सेठ ने अपने जीवन काल में १०८ नये जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया, शत्रुञ्जय तीर्थ की बड़े महोत्सव के साथ तीन बार यात्रा की और वह प्रति वर्ष आठ बार साधर्मिक वात्सल्य के साथ संघ पूजा करता था और दीन-दुखि:यों के दुःख को दूर करता था। २०. सेठ जगत्सिंह का गृहचैत्य तीर्थ के समान है. एक समय तीर्थ-यात्रा को ध्यान में रखकर जिनप्रभसूरि गाँव-गाँव और नगर-नगर में देवमंदिरों को नमस्कार करते हुए चले। श्री अहमद शाह शुभशीलशतक 18 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरनाम फिरोज सुरताण के साथ यात्रा करते हुए देवगिरि पहुँचे। वहाँ के उपासकों ने बड़े महोत्सव के साथ उनका नगर प्रवेश करवाया। देवगिरि के समस्त मंदिरों को नमस्कार करते हुए जिनप्रभसूरि सेठ जगतसिंह के घर देरासर पहुँचे, वहाँ घर देरासर में विराजमान श्रेष्ठतम वैडूर्य रत्न, स्फटिक रत्न, स्वर्णमय और रजतमय प्रतिमाओं को देखकर नमन किया। सेठ के घर को तीर्थस्वरूप समझ कर आचार्य जिनप्रभ अपना मस्तक धुनाने लगे, तब जगतसिंह ने पूछा - 'आप अपना सिर क्यों धुना रहे हैं?' जिनप्रभसूरि ने कहा – 'हमने स्थान-स्थान में ग्राम-ग्राम में और नगर-नगर में जिनचैत्यों की वन्दना की। तत्रस्थ आचार्यों को भी वन्दन किया किन्तु एक तो आपका गृहचैत्य और जंघरालयपुर में विराजमान तपागच्छीय आचार्य सोमतिलकसूरि को वन्दन किया। इस युग में ये दोनों ही तीर्थ सर्वोत्कृष्ट हैं, ऐसा विचार मन में आने पर ही मेरा सिर कंपायमान हुआ है।' तीर्थ वन्दन से मुक्ति सुख प्राप्त होता है। कहा भी गया है - अरिहंतनमुक्कारो, जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए । अर्थात् - हजारों भवों से संसार में परिभ्रमण करने वाला जीव अरिहन्त को नमस्कार करने पर संसार से मुक्त हो जाता है। भाव से वन्दन करने वाला जीव बोधिलाभ अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः। सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ-देशको गुरुरुच्यते॥ अर्थात् - धर्मज्ञ, धर्मक्रिया-कारक, धर्म की प्रवर्तना करने वाला भव्य जीवों को उपदेश देने वाला और शास्त्रार्थ के द्वारा धर्म की स्थापना करने वाला गुरु कहलाता है। अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानाञ्जनशलाकया। नेत्रमुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ । अर्थात् - अज्ञान रूपी अन्धकार को नाश करने के लिए ज्ञान रूपी अंजनशलाका से जिसने नेत्र उद्घाटित कर दिये है, वैसे गुरु को नमस्कार हो। शुभशीलशतक 19 For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह धर्मोपदेश सुनकर धर्मानुरागी सेठ जगत्सिंह ने आचार्य जिनप्रभसूरि की श्रेष्ठ वस्त्र, अन्न, पान आदि का दान देकर विशेष रूप से भक्ति की । २१. साधर्मिक भक्ति और जगडूशाह. गुरुजनों के मुख से 'साधर्मिक भक्ति का फल मुक्ति को देने वाला है' ऐसा सुनकर सेठ जगत्सिंह ने देवगिरि में ३६० स्वधर्मी - बन्धुओं को अपने तुल्य व्यवहारिक बनाने के लिए अर्थ - सहायता और व्यवसाय में सहयोग देकर अपने समान ही समृद्धशाली बनाया। इतना ही नहीं प्रत्येक साधर्मिक भाई के घर में एक-एक दिन मिठाई के साथ रसवती भोजन बनता था । वहाँ परिवार के साथ समस्त साधर्मिक भाई भोजन करते थे । प्रत्येक दिन के भोजन का खर्च ७२,००० रु० होता था । इस प्रकार प्रति घर में भोजन करते हुए दूसरे वर्ष में उसके घर में भोजन करने का समय आता था । इस प्रकार धर्म कृत्य करते हुए जगत्सिंह सेठ ने पूर्ववर्ती भरत और दण्डवीर राजा की साधर्मिक भक्ति का स्मरण कराया । २२. जगत्सिंह की शत्रुंजय यात्राएँ. एक समय जगत्सिंह ने आचार्य श्री सोमतिलकसूरि से धर्म का स्वरूप पूछा । आचार्य ने कहा - मिथ्या रूपी अज्ञान अंधकार से रहित व्यक्ति के समक्ष ही धर्म का स्वरूप कहना चाहिए। जैन - परम्परा में कहा है धम्मेण धणं विउलं, आउं दीहं सुहं च सोहग्गं । दालिद्दं दोहग्गं, अकालिमरणं अहम्मेण ॥ अर्थात् - धर्माराधन से विपुल धन, दीर्घ आयु, सुख एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है और अधर्म से दरिद्रता, दुर्भाग्य और अकाल मरण प्राप्त होता है। 20 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथमुत्पद्य कथं वा अर्थात् - धर्म का आविर्भाव कैसे होता है? उसका वर्द्धन किस प्रकार होता है? धर्म की स्थापना कैसे की जाती है ? और धर्म का विनाश कैसे होता है ? धर्मः स्थाप्यते स्वाख्यातः यं कथं धर्मो धर्मः, कथं धर्मो धर्मसिद्धौ दुग्धोपलब्ध सत्येनोत्पद्यते क्षमया स्थाप्यते धर्मः, अर्थात् - सत्य से धर्म का आविर्भाव होता है, दया एवं दान से उसका वर्द्धन होता है, क्षमा से धर्म की स्थापना होती है और क्रोध एवं लोभ से उसका विनाश होता है । धर्मोऽथाधर्मः प्राणिनां वधः । अहिंसालक्षणो तस्माद् धर्मार्थिना नित्यं कर्त्तव्या प्राणिनां दया ॥ अर्थात् - धर्म का लक्षण अहिंसा है और प्राणियों का वध करना अधर्म है, अत: धर्मार्थियों को सर्वदा प्राणियों पर दया भाव रखना चाहिए । धर्मो, " धर्मोऽयं, खलु समालम्ब्य[ लम्ब ]मानो हि, न शौचं, अर्थात् - जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म का आलंबन लेकर आचरण करने से प्राणि संसारसागर में गोते नहीं लगाता है। संयमः सूनृतं क्षान्तिमार्दवमृजुता, अर्थात् - धर्म १० प्रकार का कहा गया है - १. संयम, २. सत्य, ३. पवित्रता, ४. ब्रह्मचर्य, ५. अपरिग्रह, ६. तप, ७. क्षमा, ८. मृदुता, ९. ऋजुता और १०. मुक्ति । मुक्तिश्च दयादानेन वर्धते । क्रोधलोभाद्विनश्यति ॥ ध्रुवं सुलभा, विवर्धते । विनश्यति ॥ भगवद्भिर्जिनोत्तमैः । मज्जेद्भवसागरे ॥ ब्रह्माकिञ्चनता शुभशीलशतक दशधा स सिद्धि - द्युम्नप्रद्युम्रयोरपि । संपत्तिर्दधिसर्पिषोः ॥ For Personal & Private Use Only तपः । तु ॥ 21 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् - जिस प्रकार दूध से दही और घी की प्राप्ति होती है वैसे ही धर्मोपासना से निश्चित रूप से द्युम्न और प्रद्युम्न की तरह सिद्धि प्राप्ति होती है। नमस्कारसमो मंत्रः, शत्रुञ्जयसमो गिरिः। गजेन्द्रपदजं नीरं, निर्द्वन्द्वं भुवनत्रये ॥ अर्थात् - त्रिभुवन में निश्चित रूप से नमस्कार के समान मंत्र नहीं है, शत्रुजय के समान कोई तीर्थ नहीं है और गजेन्द्र पद के समान कोई निर्मल जल नहीं है। कृत्वा पापसहस्राणि, हत्वा जन्तुशतानि च। शत्रुञ्जयं समाराध्य, तिर्यञ्चोऽपि दिवं गताः॥ अर्थात् - हजार तरह के पाप करने पर और सैंकड़ों प्राणियों का नाश करने पर भी शत्रुजय तीर्थ की आराधना करने से तिर्यंच गति के प्राणि भी देवगति को प्राप्त होते हैं। स्पृष्ठा शत्रुञ्जयं तीर्थं, नत्वा रैवतकाचलम्। स्नात्वा गजपदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते॥ अर्थात् - शत्रुजय तीर्थ का स्पर्श करने से, रैवतगिरि को नमस्कार करने से और गजपद कुण्ड में स्नान करने से पुनर्जन्म नहीं होता है। आचार्यश्री के मुख से इस प्रकार उपदेश सुन सेठ जगत्सिंह ने आचार्य सोमतिलकसूरि की अध्यक्षता में समस्त श्रीसंघ के साथ शत्रुजय और गिरिनार तीर्थ की यात्रा हेतु संघ निकला। इसमें २९०० बैलगाड़ियाँ, १००० घोड़े तथा ५२ जिनालय भी साथ चलते थे। यस्मात् श्रीभरतेश्वराग्रिमनृपाः संजज्ञिरे चक्रिणः। श्रीमच्छेणिकसम्प्रतिप्रभृतयस्तीर्थेशभावाञ्चिताः ॥ निःसीमद्रविणानुबन्धिसकताः श्रीशालिभद्रादय-। स्तस्मिन्निर्मलधर्मकर्मणि सदा कार्यः प्रयत्नो बुधैः॥ फलं च पुष्पं च तरुस्तनोति, वित्तं च तेजश्च नृपप्रसादः। वृद्धिं प्रसिद्धिं तनुते सुपुत्रो, भुक्तिं च मुक्तिं च जिनेन्द्रधर्मः॥ शुभशीलशतक 22 For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अर्थात् - धर्म के प्रभाव से पूर्व में भरतचक्रवर्ती आदि हुए है और श्रेणिक तथा सम्प्रति राजाओं ने इस तीर्थ की भावपूर्वक पूजन वन्दना की है। शालिभद्र ने भी असीम धन प्राप्ति का बंधन भी इसके प्रभाव से किया था, अतः बुद्धिमानजनों को निर्मल धर्म कार्य में सदा प्रयत्न करना चाहिए। अर्थात् - जिस प्रकार वृक्ष से पुष्प और फल होते हैं, राजा की कृपा से धन, पद और सौभाग्य बढ़ता है, सुपुत्र से कुल की वृद्धि और यश फैलता है, उसी प्रकार जिनेश्वर भगवान् के प्रताप से भोग और मुक्ति भी प्राप्त होती है। २३. अयोग्य व्यक्ति की पदोन्नति खतरनाक होती है. एक नगर में भीमराजा राज्य करता था। अपनी चापलूसी के कारण नापित/नाई उसका मुख्यमंत्री बन गया। राजा मंत्रियों की कोई भी बात नहीं सुनता था और उनका परामर्श भी नहीं मानता था। एक समय वैरी राजाओं ने उसके राज्य को चारों तरफ से घेर लिया। उस समय अनेक लोग कहने लगे- 'मन्त्रियों के बिना राज्य की रक्षा नहीं हो सकती।' यह समाचार चमचों के द्वारा राजा के पास भी पहुँचा। एक मित्र ने राजा से कहा - 'नाई की परीक्षा करो कि वैरियों से घेरे जाने पर राज्य की रक्षा कैसे की जाती है?' राजा ने भी मान लिया और एक रोज राजा ने नाई से पूछा – 'हे नाई! मान लो कभी शत्र राजा की सेनाएँ इस नगर को घेर ले तो उस पर विजय कैसे प्राप्त करोगे? कौन सी बुद्धि का प्रयोग करोगे?' नाई बोला – 'राजन् ! मैं हाथ में दर्पण/शीशा लेकर निकल जाऊँगा और उसके माध्यम से ही मैं युद्ध करूँगा तथा उस शीशे को देखकर वे सब शत्रु सैनिक भाग जायेंगे।' ___ उस नाई के मुख से यह बात सुनकर राजा की बुद्धि ठिकाने आई, वह समझ गया कि यह प्रधान बनने के योग्य नहीं है। मैंने पहले जिन मन्त्रियों को अपमानित कर निकाल दिया था, वह मैंने अच्छा नहीं किया था। यदि मन्त्रियों को मैं सम्मान देकर वापस नहीं बुलाऊँगा तो यह राज्य भी मेरे हाथ से चला जायेगा। ऐसा सोचकर राजा ने पूर्व मन्त्रियों को बुलाकर सम्मानित किया और पुनः मन्त्री पद प्रदान किया। मन्त्री ने अपनी राजनैतिक सूझबूझ से उन शत्रु राजाओं को भी वश में कर लिया। शुभशीलशतक 23 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामचोर का सब जगह अनादर होता है. श्रीपुर नगर में धन सेठ रहता था । उसका पुत्र कुन्तल था, वह विवाह योग्य हो गया था । यह समाचार चन्द्रपुर के मदन सेठ ने सुना और उसके साथ अपनी पुत्री का सम्बन्ध करने की दृष्टि से वहाँ आया । वहाँ उसने देखा कि वह श्रेष्ठ पुत्र कुन्तल सूर्य की ओर मुख कर, पैर ऊँचा कर, खड़ेखड़े कलसी (पात्र) में पेशाब कर रहा था । मदन सेठ विचार में पड़ गया और श्रीपुर में रहने वाले अपने मित्र के पास कुन्तल की जानकारी के लिए गया। उसने मित्र से पूछा - 'इस धन सेठ के कितने पुत्र हैं ? ' पुत्र उस मित्र ने भी व्यंग्य से उत्तर देते हुए कहा - इसके नौ कुछ क्षण बाद पुन: सेठ ने इसके कितने पुत्र हैं? मित्र ने उत्तर दिया – पाँच पुत्र हैं पूछा - I कुछ देर के बाद उस मित्र से पुन: पूछा उस मित्र ने फिर उत्तर दिया - तीन पुत्र २४. हैं - हैं I पुनः यही प्रश्न दोहराने पर उसने कहा - पाँच पुत्र हैं। पुनः पुनः पूछने पर उसने तीन पुत्र और एक पुत्र कहा । 1 इसके कितने पुत्र हैं? यह सुनकर मदन सेठ ने कहा - मित्र तुम मुझे अलग-अलग बात कहकर भम्र में क्यों डालते हो? For Personal & Private Use Only मित्र ने कहा मैंने तुम्हे जो कुछ भी कहा है, वह सत्य है । यह श्रेष्ठि पुत्र कुन्तल ऊपर बैठकर सूर्य की तरफ मुख कर कलसी में पेशाब कर रहा था, तब मैंने सेठ के तीन पुत्र हैं, कहा । यह कुन्तल पाँच मनुष्यों का भोजन एक समय में ही खा लेता है, अतः मैंने सेठ के पाँच पुत्र बतलाए । यह कुन्तल सोते समय अपने शरीर को नौ प्रकार से सर्प के समान कुण्डली करके सोता है, अतः मैंने इस सेठ के नौ पुत्र बतलाए । इस प्रकार का वर तुम्हे ढूँढने पर भी प्राप्त नहीं होगा। यह एक मात्र है, इसलिए मैंने एक बतलाया। हे मित्र सेठ! इस प्रकार का निखट्टू जामाता आपको अच्छा लगता 24 शुभशीलशतक Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो, तो आप अपनी पुत्री इसको दे सकते हैं। उसकी मूत्रलीला आप देख ही चुके हैं। इससे अधिक मैं क्या कहूँ? ___ अपने मित्र के मुख से यह बात सुनने के बाद वह मदन सेठ वहाँ से वापस लौट आया। कुछ समय पश्चात् वर की खोज करते-करते पद्मपुर निवासी वीर सेठ के पुत्र धरण के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। इधर धन सेठ अपने पुत्र कुन्तल को अनेक प्रकार की शिक्षा देता है, किन्तु वह अपने आलसी स्वभाव को नहीं छोड़ता है। वर के रूप में उसको देखने के लिए अनेक सेठ आते हैं, किन्तु उसके इस अरुचिकर व्यवहार को देखकर अपनी पुत्री का सम्बन्ध वहाँ नहीं करते हैं। कहा भी है - गच्छन् जल्पन् हसंस्तिष्ठन्, शयानो भक्षयन्पुनः । मूर्खः सर्वत्र लभते, पदे पदे पराभवम्॥ अर्थात् - चलते हुए, बड-बड बोलते हुए, बेकार में हँसते हुए, निरुद्देश्य बैठते हुए, सोते हुए और बारम्बार खाते हुए मूर्ख व्यक्ति सब जगह प्राप्त हो जाते हैं और वे पग-पग पर तिरस्कार को प्राप्त करते हैं। कुन्तल के आलस के कारण उसका विवाह नहीं हुआ। कुछ समय पश्चात् उसके पिता का देहावसान हो गया और वह कुन्तल अपनी मूर्खता, आलस और निखट्टपन के कारण स्थान-स्थान पर अपमान को प्राप्त करता रहा। २५. नागार्जुनः आकाशगामीनी विद्या और रससिद्धि सौराष्ट्र देश के अलंकारभूत ढुंक पर्वत पर रणसिंह नाम का राजा राज्य करता था। वह न्यायपूर्वक प्रजा-पालन करता था। उसके पद्मावती नाम की रानी थी। उनके एक राजकुमारी थी जिसका नाम भोपाला था। समस्त प्रकार की विद्याओं का अध्ययन करने के पश्चात् तारुण्यावस्था में नवसारिका नगर के भूपति हरिमर्दन के साथ उसका विवाह कर दिया। इधर नागराज वासुकी उसके रूप पर मोहित हो गया था। कहा भी है - शुभशीलशतक 25 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्खाण [र] सणी कम्माण मोहणी, हंत वयाण बंभवयं। गुत्तीण य मणगुत्ती, चउरो दुक्खेण जिप्पंति॥ अर्थात् - मोहनीय कर्म के उदय से कर्णेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय परवश होने के कारण मनोगुप्ति आदि के पालन न करने से विचक्षण व्यक्ति भी ब्रह्मचर्य भ्रष्ट हो जाता है और दुःख को प्राप्त करता है। वासुकी नागराज रूप सौन्द्रर्यलुब्ध होकर रूप परिर्वतन कर राजकुमारी भोपाला के साथ भोग भोगने लगा। उनके पुत्र हुआ, जिसका नाम रखा गया नागार्जुन । पिता का वात्सल्यभाजन होने के कारण वह अन्न की अपेक्षा फलों के मूल और दलों का भोजन करता था। वनस्पति औषधियों के प्रभाव से वह सिद्ध-पुरुष और बलिष्ठ बन गया। उसकी प्रसिद्धी सुनकर प्रतिष्ठानपुर के नरेन्द्र सातवाहन राजा ने उसे बुलाया और अपना विद्या गुरु बना लिया। कहा भी है विद्वत्वं च नृपत्वं च, नैव तुल्यं कदाचन। स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥ अर्थात् - समृद्धिशाली राजा और विद्वान् की समान तुलना नहीं की जा सकती। राजा अपने देश में ही पूजित होता है जबकि विद्वान् समस्त भूमण्डल में पूजित होता है। श्री पादलिप्ताचार्य आकाशगामिनी विद्या के प्रभाव से व्योम यात्रा द्वारा सर्वत्र विचरण करते थे। उन आचार्य से यह आकाशगामिनी विद्या प्राप्त करने के लिए नागार्जुन पादलिप्त नगर में विराजमान पादलिसाचार्य की सेवा में आकर रहने लगा। वे आचार्य औषधियों का पैर में लेपन करने के बल से समय-समय पर अष्टापद, सम्मेतशिखर, शत्रुजय, गिरिनार और अर्बुदाचल के तीर्थस्थानों में विराजमान जिनेन्द्र देवों की वन्दना करने के लिए जाते रहते थे। यात्रा से वापिस लौटने पर नार्गाजन ने आचार्य के चरणों का जल प्रक्षालन किया। गन्ध-दृष्टि अत्यन्त बलवती होने के कारण नागार्जुन ने लेप में प्रयुक्त १०७ औषधियों का निर्णय कर लिया। उक्त १०७ औषधियों का चूर्ण बना कर पादलेप तैयार किया और गुरु के उपदेश तथा आम्नाय के बिना ही शुभशीलशतक 26 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पादलेप करके मुर्गे की तरह उडाई भरने लगी। ऊपर नीचे होकर के जमीन पर गिरे, शरीर पर कई जगह चोटें आईं। दूसरे दिन आचार्य पादलिप्त ने पूछा- शरीर में ये चोटें किस कारण से आईं? तब नागार्जुन ने सारा किस्सा सुना दिया। आचार्य नागार्जुन की घ्राण शक्ति, ग्रहण शक्ति और चातुर्य देखकर मन में अत्यधिक प्रमुदित हुए। सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखकर बोले - महानुभव ! गुरु के द्वारा दी हुई विद्या सम्पूर्ण आम्नाय के बिना कभी भी सफल नहीं होती है। नागार्जुन बोला - भगवन् ! मुझे कृपा कर प्रसन्न होकर शीघ्र ही विद्याम्नाय देने का अनुग्रह करें। आचार्य पादलिप्त बोले - यदि तुम शत्रुजय आदि तीर्थों की तीर्थयात्रा करके आओ तब मैं तुम्हे शेष रही १०८वीं औषधी का नाम और आम्नाय बतला दूंगा। नागार्जुन ने स्वीकार किया और शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा कर गुरु से निवेदन किया - अब मुझे कृपा कर आम्नाय बतलाइये। ___ आचार्य बोले - ६० चावलों के जल के साथ समस्त औषधियों को घिसकर एकरूप बना कर उसका लेप तैयार करो और उस लेप को पैरों पर . लेपन करने से तुम आकाशगामी हो सकोगे। नागार्जुन ने उसी प्रकार किया और वह आकाशगामी हो गया। आचार्य के कथनानुसार पादलेप-सिद्धि होने पर वह प्रतिदिन देव नमस्कार करने के पश्चात् ही भोजन करता था। एक समय गुरु मुख से स्वर्णरससिद्धि के सम्बन्ध में सुनकर उसने रस-सिद्धि करने का प्रयत्न किया और रस का निर्माण भी किया, किन्तु उस रस-सिद्धि में पारद की स्थिरता नहीं हो पाई थी। ऐसी स्थिति में उसने पुनः आचार्य से रस की स्थिरता का स्वरूप पूछा। शुभशीलशतक 27 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य ने कहा - अतिशय प्रभाव युक्त पार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा के सम्मुख कोई महासती सुलक्षणा नारी खरल में घुटाई करे तो यह पारद स्थिर हो सकता है और स्वर्ण बन सकता है 1 यह सुनकर नागार्जुन ने अपने पिता नागराज वासुकी का ध्यान एवं आराधन किया । नागराज प्रकट हुए और उन्होंने पूछा - किसलिए मुझे स्मरण किया? नागार्जुन ने कहा- अतिशय प्रभावशाली पार्श्वनाथ की प्रतिमा कहाँ प्राप्त होगी? बताईये। वासुकी ने कहा- पूर्व में द्वारिका नगरी के अधिपति श्री कृष्ण ने भगवान् नेमिनाथ के मुख से पार्श्वनाथ की प्रतिमा का प्रभाव सुनकर, प्राप्त कर ७ वर्षों तक नियमित रूप से पूजन किया । द्वारिका नगरी का विनाश होने पर देवताओं ने वह प्रतिमा समुद्र के मध्य में विराजमान कर दी थी । कालान्तर में कान्तिपुर नगर का निवासी धनदत्त सेठ का जहाज समुद्र के मध्य में चक्कर खाने लगा। उस समय देव ने कहा - इसके अधोतल में भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति है और वह मूर्ति किसी सती औरत के द्वारा ७ कच्चे तंतुओं के बंधन से प्राप्त हो सकती है। उस व्यापारी धनदत्त ने वैसा ही किया और वह मूर्ति उसे प्राप्त हो गई । कान्तिपुरी नगरी में लाकर उसे विराजमान कर दिया । कहा हैमनोहरम्। - पार्श्व नाथबिम्बं सुप्रभावमयं कान्त्यां पुरि जैन: पूज्य मानमस्ति जिनालये ॥ - अर्थात् - प्रभावपूर्ण भगवान् पार्श्वनाथ की वह मनोहर मूर्ति कान्तिपुर के जिनालय में विराजमान और वहाँ के निवासियों द्वारा पूजित है । वासुकी के मुख से सुनकर नागार्जुन कान्तिपुर गया और उस प्रतिमा के अपहरण की योजना बनाने लगा, किन्तु वहाँ उसने देखा कि दर्शनार्थियों का दिन भर तांता लगा रहता है, अतः हरण करना संभव नहीं है । रात-दिन निगरानी करता रहा और मौका देखकर छल के द्वारा उस प्रतिमा का हरण कर लिया। वहाँ से उस प्रतिमा को लाकर सेढ़ी नदी के किनारे पर विराजमान 28 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया और रस-सिद्धि के लिए सातवाहन राजा की लड़की महासती चन्द्रलेखा को वहाँ लाया। नागार्जुन ने उसे अपनी बहन बनाया। वह चन्द्रलेखा रससिद्धि के लिए रसों का मर्दन करने लगी। एक समय उसने इसका कारण पूछा तब नागार्जुन ने बतलाया - 'यह प्रयत्न मैं स्वर्ण सिद्धि के लिए कर रहा हूँ।' औरत के पेट में बात टिकती नहीं, इसी कहावत को उसने फलित भी किया। एक समय उसने वहाँ आये हुए बलवान दो राजपुत्रों के सम्मुख यह रहस्य खोल दिया। वे दोनों भी राजसुख और वैभव का त्याग कर स्वर्णसिद्धि के लोभी होने के कारण छल पूर्वक नागार्जुन की सेवा करने लगे। स्वर्णसिद्धि निर्माण का इच्छुक नार्गाजुन जहाँ भोजन करता था, वहाँ उस पाकशाला में जाकर बनाने वाली को गुप्त रूप से पूछा – 'यहाँ भोजन करने के लिए कौन आता है?' उसने कहा – 'नार्गाजुन यहाँ भोजन करने के लिए पधारते हैं।' ___ तब उन दोनों ने उस भोजन बनाने वाली को मनपसन्द भेंट देकर प्रसन्न किया और कहा - 'तुम उनके लिए नमक युक्त भोजन बनाओ और जब भोजन करते हुए नागार्जुन के मुख से यह निकले कि आज भोजन खारा क्यों है? तब तुम हमें बता देना।' क्षार युक्त भोजन करते हुए छ: महीने बीत गये। एक दिन उनके मुख से निकला – 'खाने में नमक बहुत ज्यादा है।' उसी दिन रसोईदार महिला ने तत्काल ही उन दोनों राजकुमारों को यह बात बतला दी। उन दोनों ने जान लिया कि अब हमें शीघ्र ही रस मिल जायेगा। उन्होंने नागपति वासुकी से जानकारी ले ली कि 'कुशाग्र से नागार्जुन की मृत्यु होगी।' इधर शुद्ध रस की सिद्धि होने पर नागार्जुन दो कुतप (तेल रखने की चमड़े की कुप्पी) भरकर ढुक पर्वत की गुफा में प्रच्छन्न रूप से रख दिये। वहाँ से लौटते हुए नागार्जुन का कुशाग्र से क्षत्रियों ने वध कर दिया। नागार्जुन स्वर्गवासी हो गया। कहा है अजाते चित्रलिखिते, मृते च मधुसूदनः। क्षत्रिये त्रिषु विश्वास-श्चतुर्थो नोपलभ्यते॥ अर्थात् - अज्ञात चित्रशाला, मरते हुए मधुसूदन का और क्षत्रिय का इन तीन का ही विश्वास करना चाहिए, चौथा विश्वास का स्थान नहीं है। शुभशीलशतक 29 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इधर दोनों राजकुमार उस रसकूपिका को अपने हस्तगत करने का प्रयत्न करने लगे। उनके हाथ वह रसकूपिका नहीं आई क्योंकि वह देवाधिष्टित थी । उन दोनों को हत्यारा जानकार देवताओं ने उन दोनों को खत्म कर दिया । वे दोनों मरकर नरक में गये और पापजनित अशुभ कर्मों का फल भोगने लगे । रसस्तम्भन के कारण वह त्रम्बावती स्तम्भन के नाम से प्रसिद्ध हो गई। भगवान् पार्श्वनाथ भी वही स्तम्भित हो गये । कालान्तर में सेढी नदी के किनारे स्तम्भन पार्श्वनाथ की मूर्ति प्रकट होने पर वह स्थान स्तम्भनपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो कि आज भी उसी नाम से पूजा जाता है। २६. खल भक्षण की इच्छाः धन नाश का संकेत. चन्द्रपुर नगर में धन सेठ रहता था । वह ४ करोड़ सोनैयों का मालिक था । वह सर्वदा श्रेष्ठ एवं पवित्र वस्त्र पहन कर देव गुरु की भक्ति करता था, श्रीसंघ की संघपूजा कर मधुर भोजन करवाता था तथा सज्जन पुरुषों का सदा सत्कार-सम्मान करता था । 1 एक समय राजमार्ग पर राजा की सवारी चल रही थी । उसने एक महल पर ४ ध्वजा-पताकाएँ देखकर मंत्री से पूछा इस मकान पर १-१ नहीं ४-४ ध्वजाएँ क्यों लगी हैं? मंत्री ने उत्तर दिया- राजन् ! ४ करोड़ सोनैयों के मालिक का यह घर है, इसलिए ४-४ ध्वजाएँ लगी हैं । राजा ने सुना, उसके मन में लोभ समाया और सोचने लगा - 'वापस लौटते हुए इस भण्डार को हस्तगत कर लेंगे। अभी तो जिस गाँव में जा रहे है, वहाँ चलें ।' राजा आगे चला गया। इधर सेठ को अकस्मात् ही खल खाने की इच्छा हुई। सेठ ने विचार किया- 'मेरा खल खाने की अभिलाषा यह स्पष्ट संकेत देती है कि यह सारा माल राजा हड़प लेगा और मैं खल भक्षण के योग्य कंगाल हो जाऊँगा अथवा 30 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस माल का हरण चोर करेंगे अथवा जल कर खत्म हो जायेगा।' कहा भी दामादाः स्पृहयन्ति तस्करगणा मुष्णन्ति भूमीभुजो, गृह्णन्तिच्छलमाकलय्य हुतभुग्भस्मीकरोति क्षणात्। अम्भः प्लावयति क्षितौ विनिहितं यक्षा हरन्ते हठात्, दुर्वृत्तास्तनया नयन्ति निधनं धिग्बह्वधीनं धनम्॥ अर्थात् – इस चञ्चल लक्ष्मी को प्राप्त करने के अनेक अभिलाषी हैं। जैसे - जामाताओं की दृष्टि सदा इस पर गड़ी रहती है, तस्करगण हरण करने की इच्छा करते हैं, राजागण छलपूर्वक ग्रहण करने की इच्छा करते हैं, अग्नि अपनी लपटों में लपेटने की कामना करती है, समुद्र अपने तल में स्थापन करने की इच्छा रखता है, पृथ्वी में खोद कर रखा जाता है जिसका यक्षगण हरण कर लेते हैं और दुराचारी संतानें इसको उड़ा कर कंगाल हो जाते हैं। अरे! इस धन के तो अनेक मालिक हैं, अतः धिक्कार हो। इस सूक्ति पर विचार करते हुए धन श्रेष्ठ ने अपनी सारी सम्पत्ति सातों क्षेत्रों में और दीन-दुःखियों में बाँट दी। ___ इधर लौटते हुए राजा ने जब उस हवेली को ध्वजापताकाओं से रहित देखा तो पूछ बैठा - अरे! जिस समय मैं गया था, उस समय इस हवेली पर ४-४ ध्वजापताका लग रही थीं और लौटते हुए देखता हूँ कि एक भी ध्वजापताका नहीं, क्या कारण है? जब उसे जानकारी मिली कि सेठ ने अपनी अढलक सम्पत्ति का दान कर दिया है, तो राजा विस्मय-विमूढ हो गया। राजा ने सेठ को बुला कर पूछा - हे सेठ! तुमने ऐसा क्यों किया? तब सेठ ने उत्तर दिया- महाराज ! मुझे क्षमा करें । आज जब आपने इधर से जाते हुए मेरी हवेली पर दृष्टिपात किया था तब उसी समय मेरी अभिलाषा खलभक्षण की हुई। इस इच्छा पर दूरदर्शिता से विचार करते हुए मैंने यह संकेत माना कि मेरी यह सारी सम्पत्ति जाने वाली है। जो जाने वाली शुभशीलशतक 31 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, उसका अपने हाथों से ही सद्उपयोग क्यों न कर लूँ? इस प्रकार के विचार पुष्ट होते ही मैंने सारी सम्पत्ति का दान कर दिया। राजा उसकी दूरदर्शिता पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपने राज्य भण्डार से ४ करोड़ की कीमत का सोना उसे प्रदान किया। सेठ के पुण्य प्रभाव से जितनी मात्रा में उसने दान किया था, उतनी ही समृद्धि अकस्मात् ही उसको प्राप्त हो गई। अपने जीवन में चिरकाल तक अपनी लक्ष्मी का सात क्षेत्रों में उपयोग करते हुए वह स्वर्ग को प्राप्त हुआ। २७. हीन कुलोत्पन्न विद्वान् श्रेष्ठ कुलीन बन जाता है. किसी नगरी में एक वेश्या रहती थी। उसके एक पुत्र था । वृद्धावस्था में उस वेश्या ने सोचा - 'मैंने जीवन में बहुत पाप किये हैं। यह पुत्र भी पाप की निशानी है । यदि मैं इसका नाश करती हूँ तो भी मुझे पाप लगता है, अत: मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि गंगा नदी के किनारे जाकर गंगा नदी में स्नान कर अपने पापों का विमोचन कर लूँ।' ऐसा विचार कर वह वेश्या अपने पुत्र के साथ गंगा नदी के किनारे गई, वहाँ मठ बना कर रहने लगी। वहाँ रहते हुए पुत्र के साथ गंगा-स्नान, दान-पुण्य आदि कर्म भी करने लगी। वेदवित् ब्राह्मणों के मुख से सुन-सुन कर वह वेश्यापुत्र भी वेद, स्मृति और पुराणों का ज्ञाता बन गया। उसको वेदविज्ञ, बहुदानी और विचक्षण जान कर मुकुन्द नामक ब्राह्मण ने विचार किया – ‘ऐसा योग्य लड़का मिलना बहुत कठिन है। मैं यदि अपनी पुत्री का विवाह इसके साथ कर दूँ तो बहुत बढ़िया होगा। देखो! इसकी माता भी कितनी धर्मशीला है, कितना दान देती है। इससे स्पष्ट है कि यह धनवान भी है।' ऐसा विचार करके मुकुन्द ब्राह्मण ने अपनी पुत्री का विवाह मठवासी वेश्यापुत्र के साथ कर दिया। इस उल्लासमय वातावरण में वह वृद्धा पुत्र और पुत्रवधु को अपने कंधे पर बिठाकर नाचती हुए कहने लगी - 32 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोनईशाखा धनि कुलकोट्ठइ वेद वियारि। दे मति केरो बेटडो परिणइ दीक्षित कुआरि॥ अर्थात् - समृद्धि से व्यक्ति धनवान और कुलीन बन जाता है। वेद का ज्ञान होने से वह विद्वान् बन जाता है। देखो! यह किसका पुत्र है? किन्तु इसका विवाह कुलीन, दीक्षित ब्राह्मण की पुत्री से हुआ है। ____ मुकुन्द दीक्षित को जब यह जानकारी मिली तो वह भौंचक्का सा हो गया। मौन धारण कर लिया। लोगों की जिज्ञासा का उत्तर या काट करने की दृष्टि से उसने सोचा - समृद्धिमान और विद्यादि युक्त गुणों से होने पर उसका कुल नहीं देखा जाता है, अपितु उसका आचार देखा जाता है। कहा भी है कैवर्तीगर्भसम्भूतो, व्यासो नाम महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माज्जातिरकारणम्॥ अर्थात् - पूर्व में भी कैवट की लड़की से उत्पन्न व्यास नाम के महान् मुनि हुए हैं, किन्तु वे अपने तप के बल से ब्राह्मण कहलाये, अत: जन्मजात जाति का मानना व्यर्थ है। शुशुकी[ शशकी] गर्भसम्भूतो, ऋष्यशृङ्गो महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम्॥ अर्थात् - भूतकाल में भी शशकी के गर्भ से उत्पन्न ऋष्यशृङ्ग नाम के महामुनि हुए हैं, किन्तु वे अपने तप के बल से ब्राह्मण कहलाये, अतः जन्मजात जाति का मानना व्यर्थ है। मण्डूकीगर्भसम्भूतो, माण्डव्यश्च महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माज्जातिरकारणम्॥ अर्थात् - पूर्व में भी मेढ़की के गर्भ से उत्पन्न माण्डव्य नाम के महामुनि हुए हैं, किन्तु वे अपने तप के बल से ब्राह्मण कहलाये, अत: जन्मजात जाति का मानना व्यर्थ है। उर्वशीगर्भसम्भूतो वशिष्ठश्च महामुनिः। ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम् ॥ तपसा शुभशीलशतक 33 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् - भूतकाल में भी उर्वशी देवांगना के गर्भ से वशिष्ठ नाम के महामुनि हुए हैं, किन्तु वे अपने तप के बल से ब्राह्मण कहलाये, जन्मजात जाति का मानना व्यर्थ है । अतः शीलं प्रधानं न कुलं प्रधानं, कुलेन किं शीलविवर्जितेन । बहवो जना नीचकुले प्रसूताः, स्वर्गं गताः शीलमुपेत्य वर्यम् ॥ अर्थात् - शील प्रधान ही आचार-व्यवहार से कुलीन होता है न कि किसी कुल में उत्पन्न होने से प्रधान होता है। यदि उत्तम कुल में जन्म ग्रहण कर भी ले और वह शीलरहित हो तो उस कुल का और कुलीनता का क्या? बहुत से नीचकुल में उत्पन्न हुए व्यक्ति भी श्रेष्ठ शील को धारण करके स्वर्ग को गये हैं । वह वेश्या-पुत्र भी क्रमशः अपनी योग्यता के बल पर बढ़ता हुआ द्विजों में मुख्य और वेदवित् कहलाने लगा। २८. धन ही भय का कारण है. एक नगर से एक योगी अपने शिष्य के साथ दूसरे ग्राम जाने के लिए चला। मार्ग में रास्ते अलग-अलग जा रहे थे, उस समय योगी ने लोगों से पूछा - चन्द्रपुर की ओर कौन सा रास्ता जाता है ? एक ने उत्तर दिया - यहाँ से दो मार्ग जाते हैं। एक मार्ग नजदीक पड़ता है और वह सीधा मार्ग है किन्तु उस रास्ते पर चोर, डकैतों का भय है। दूसरा मार्ग विषम है किन्तु वह सब प्रकार से भयों से रहित है । उस पर योगी ने विचार किया कि हम द्रव्यरहित हैं, अत: उपद्रवकारी मार्ग होते हुए भी सरल और नजदीक है, उसी मार्ग पर चला जाए। किन्तु योगी-शिष्य उस मार्ग पर जाना नहीं चाहता था क्योंकि उसके पास परिग्रह होने के कारण उसे भय था कि कहीं चोर लोग लूट न लें। योगी ने शिष्य के वचनों पर ध्यान न देते हुए भयकारी मार्ग को ही चुना और उस पर ही आगे बढ़ा। चन्द्रपुर पहुँचने के पश्चात् शिष्य किसी काम से नगर में गया हुआ था, उस समय में उसकी झोली ( वस्त्रों) के मध्य में रुपयों से भरी हुई थैली 34 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नजर आई। योगी विचार करने लगा – 'धन जाने के भय से चेलाजी भयकारी मार्ग पर चलने को तैयार नहीं थे। हम तो तपस्वी साधुगण है, अत: धन का क्या लेना-देना।' ऐसा सोचकर योगी ने उस वासनिका (रुपये रखने की थैली) को उसकी अनुपस्थिति में कुएँ में डाल दिया। शिष्य नगर से लौटकर आया और वासनिका को नहीं देखकर बोला - 'जिस मार्ग पर इच्छा हो चलिए, मुझे कोई दिक्कत नहीं है।' तत्पश्चात् दोनों ही निर्ग्रन्थ (अपरिग्रही) होकर उपद्रवकारी मार्ग पर चले। धन को ही तपस्वीजनों के लिए क्लेश और भय का कारण मान कर दोनों निःस्पृह हो गये। अन्त में श्वेताम्बर समाज के दमघोषसूरि के पास उन दोनों ने दीक्षा ग्रहण की और तपस्या करते हुए स्वर्ग को प्राप्त हुए । क्रमशः वे दोनों मुक्ति को जायेंगे। २९. धर्मशालादि निष्पादन पुण्य कार्य है. एक गाँव में भीम नाम का सज्जन रहता था। अपने मकान-निर्माण हेतु उसने बढ़िया लकड़ी मँगवायी। उस लकड़ी को देखकर भीम की पत्नी बड़ी प्रसन्न हुई और उसने कहा - 'बहुत सुन्दर लकड़ी है, इस लकड़ी से घर बनने पर घर ही स्वर्ग के समान लगेगा, किन्तु यह कार्य केवल अपने घर तक ही सीमित है। यदि इस बढ़िया लकड़ी का उपयोग धर्मशालादि बनाने में धर्मकार्यों में लगाएँ तो बहुत अच्छा होगा।' भीम को अपनी पत्नी की बात पसन्द आई और उसने पूछा - धर्मकार्यों के लिए इस लकड़ी का उपयोग कहाँ हो सकता है? भीमपत्नी ने उत्तर दिया - यदि धर्मशाला बनाई जाए तो बहुत पुण्य होगा। कहा भी है - वसही-सयणासण-भत्त-पाण-भेसज्ज-वत्थ-पत्ताइ। जइवि न पज्जत्तधणो थोवा वि हु थोवयं देइ॥ अर्थात् - आवास-स्थान, सोने का स्थान, भोजन-पानी, औषध, वस्त्र आदि श्रेष्ठ कार्यों में उपयोग किया जा सकता है। अपने पास ज्यादा धन नहीं है, थोड़ा है तो वह भी श्रेष्ठ कार्यों में लगाया जाए। शुभशीलशतक 35 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा विचार कर स्तम्भ तीर्थ की आलिंग वसति में पुण्य हेतु धर्मशाला बनवाई। इस कार्य में भीम में १४०० टंक खर्च किए। उस समय किसी एक ने भीम से कहा - शाला के निर्माण में तुमने बहुत धन खर्च किया है, किन्तु यह शाला नगर से बाहर है। यहाँ इतनी दूर आकर कौन धर्म की आराधना करेगा? भीम ने उत्तर दिया - कदाचित् प्रातः, मध्याह्न या रात्रि में कोई भी पथिक अथवा कोई भी व्यापारी आकर ठहरेगा और उसमें से कोई भी वहाँ रहकर एक भी सामायिक करेगा तो मैं इस शाला के निर्माण धन से अधिक असीम धन का उपार्जन करूँगा। कहा भी है सामाइयंमि उ कए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं, बहुसो सामाइअं कुजा।। अर्थात् - सामायिक ग्रहण की अवस्था में रहता हुआ श्रावक भी श्रमण के समान होता है। इस कारण के अधिक से अधिक सामायिक करनी चाहिए। सामाइअं कुणंतो, समभावं सावओ घडीदुग्गं। आउं सुरे सुबंधइ, इत्तीमित्तई पलिआई॥ अर्थात् - सामायिक करते हुए श्रावक यदि दो घड़ी के लिए भी समता भाव (समत्व) की दशा को प्राप्त हो जाता है तो देवता के आयुष का भी बंधन कर लेता है और उसे श्रेष्ठ पत्नी, मित्र आदि भी प्राप्त हो जाते हैं। बाणवइकोडीओ, लक्खा गुणसट्ठि, सहसपणवीसा। नवसय पंचवीसाए, सतिहा अडभाग पलिअस्स॥ अर्थात् - समत्व की दशा में रहते हुए एक सामायिक का लाभ बाणवें करोड़, उनसठ लाख, पच्चीस हजार, नौ सो पच्चीस द्रव्य से अधिक सामायिक का लाभ कहा गया है। 36 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्तान के बिना भी स्वर्गगमन होता है. पूर्व समय में आलिंग नाम का ब्राह्मण हुआ था । उसके नाम से ही वसती/ ग्राम का नाम भी आलिंग वसती पड़ गया। एक समय आलिंग ब्राह्मण ने धर्मघोषसूरि के मुख से यह सुना - 'जिन मंदिर आदि का निर्माण करने से महान् पुण्य होता है । ' ३०. यह सुनकर आलिंग ने कहा भगवन् लोगों के मुख से मैं यह सुनता आ रहा हूँ कि सन्तान के बिना स्वर्ग नहीं होता है, क्या यह सत्य है ? धर्मघोषसूरि ने उत्तर दिया- हाँ, सन्तान के बिना भी स्वर्ग जाते हैं। सन्तान की विद्यमानता में जो स्वर्ग प्राप्त होता है, वह अपने किये हुए सुकृत कार्यों के प्रभाव से ही होता है। यदि हम स्वीकार करें कि सन्तान से ही स्वर्ग प्राप्त होता है तो कुतिया बहुत पिल्लों को जन्म देती है, उन्हें भी स्वर्ग मिलना चाहिए? संतान रहित भी मुक्ति को जाते हैं। कहा है बहूनि हि दिवं गतानि सहस्त्राणि, विप्राणा-म‍ -मकृत्वा अर्थात् - कुमार एवं ब्रह्मचारी लोग भी लाखों की संख्या में देवलोक को गये है, अतः कुलसन्तति ही स्वर्गगमन का कारण मानना युक्तिसंगत नहीं है । - कुमारब्रह्मचारिणाम्। कुलसन्ततिम् ॥ आचार्य ने कहा यदि भगवान् ऋषभदेव की काले पाषाण की प्रतिमा निर्माण कराई जाए तो अनन्त पुण्य होता है और वह मुक्तिगमन का कारण बन जाता है किन्तु उस व्यक्ति के सन्तान नहीं होती । आचार्य के मुख से ऐसा सुनकर आलिंग ने कहा भगवन्! मैं काले पाषाण की भगवान् ऋषभदेव की मूर्ति बनवाऊँगा जिससे मुझे श्रेयस्कर पुण्य की प्राप्ति होगी। मुझे सन्तान से क्या लेना-देना है । सन्तानें होने पर भी रावण, श्रीकृष्ण, दुर्योधन, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि नामधारी पुरुष भी नरक में गये हैं । अतः मैं काले पाषाण की भगवान् ऋषभदेव की शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only - 37 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा बनवाऊँगा। तत्पश्चात् उसने काले पत्थर की भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा का निर्माण करवाकर अपने मंदिर में स्थापित की। प्रतिदिन भावशुद्धिपूर्वक पूजा और उपासना करते हुए मुक्ति-गमन योग्य प्रकर्ष पुण्य का उपार्जन किया। ३१. शनैश्चर देव सब देवों में बड़ा है. एक समय देवताओं की सभा में ब्रह्मादि समस्त देव अपने-अपने तेज और प्रताप का वर्णन कर रहे थे। उस समय शनि देव ने कहा - मैं सबसे बड़ा देव हूँ। मैं समस्त देवताओं को सुख अथवा दुःख प्रदान करने में समर्थ हूँ। उस समय महादेव ने कहा - 'रहने दो, अपनी बड़ाई मत करो, तुम किस प्रकार का सुख-दु:ख दे सकते हो, यह मैं देखूगा।' ऐसा कहकर शिवजी अपने निवास स्थान पर आये और पार्वती के समक्ष इस घटना का वर्णन किया। शनि के घमण्ड को चूर करने की दृष्टि से शिव और पार्वती ने भैंस और भैंसे का रूप बनाया और नगर का जो सबसे बड़ा गदंगी भरा नाला था, दो दिन उसी में निवास किया। तीसरे दिन अशुचिपूर्ण नाले से दोनों निकलकर स्वस्थान को आये। तत्काल ही शनि के पास गये और कहा 'हम दोनों दो दिन तक गन्दे नाले में रहे। तुम अपने प्रभाव से किसी प्रकार का सुख-दुःख नहीं दे सके।' शनि ने कहा - आप कौन से स्थान पर रहे थे? शिवजी ने कहा - हम गन्दे नाले में रहे। शनि ने कहा - मैं किसी के कन्धे पर चढ़कर अपना प्रभाव थोड़े ही दिखलाता हूँ। मैं तो उसके हृदय में निवास कर ऐसी बुद्धि पैदा करता हूँ कि स्वयं वह दुःख में फंस जाए। आप दोनों में मैंने ऐसी बुद्धि उत्पन्न कर दी थी कि आप जैसे ईश्वर पुरुष भी दो दिन तक गन्दे नाले में रहे। इससे ज्यादा दु:खदायी स्थिति क्या होगी? हे देव! वस्तुतः मैं किसी को सुख-दु:ख नहीं देता हूँ किन्तु मेरे प्रभाव से उसके कर्म उसी प्रकार के कार्यों के लिए प्रेरित कर देते हैं। मैं तो निमित्त मात्र बनता हूँ। शुभशीलशतक 38 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवजी ने कहा तुम सत्य कह रहे हो । स्वकृत कर्म ही सुखदुःख के कारण होते हैं । कहा भी है . यादृशं तादृशं क्रियते कविवन्नूनं, मृग-म‍ माता गङ्गासमं तीर्थं फलति अर्थात् - पूर्व में व्यक्ति जिस प्रकार का शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसी प्रकार की उसकी मति बन जाती है और उसी के अनुसार वह सुखदुःख को प्राप्त करता है । ३२. -मरीचिका में माता-पिता का त्याग. तीर्थं, पिता पुष्करमेव माता- तीर्थं पुन: चित्तं, कालेन, जायते देहिभिर्वर्णनादिषु । सन्ततं जने ॥ - अर्थात् - माता गंगा के समान तीर्थस्थल है और पिता पुष्कर तीर्थ के समान है। तीर्थों की यात्रा कालान्तर में फल देती है और मातृतीर्थ का फल सदैव और पुन: पुन: प्राप्त होता है । इस युक्ति को ध्यान में रखते हुए और माता - पिता की तीर्थस्थान करने की इच्छा को प्रधानता देते हुए एक ब्राह्मण-पुत्र अपने माता-पिता को कावड़ में बिठा कर तीर्थ यात्रा के लिए चल देता है । अनेक तीर्थों की यात्रा करते हुए वह मरुस्थली / मारवाड़ की धरती पर आता है। मारवाड़ की धरती पर चारों तरफ रेत के टीले-ही-टीले है । उस रेतीले प्रदेश में चलते हुए वह स्वयं को कावड़ के बोझ को उठाकर चलने में असमर्थ पाता है, उसे भंयकर प्यास भी लगती है किन्तु वहाँ जल नजर नहीं आता । मृग-तृष्णा के समान उसे उस रेतीले प्रदेश में जल की भ्रान्ति होती है और वह भागते हुए उस जल को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । भ्रान्ति भ्रान्ति ही रहती है । अपने को आगे चलने में असमर्थ समझ कर सबसे पहले अपने पिता को कावड़ में से नीचे उतार देता है । I पिता कहता है पैदल चल नहीं सकता। मुझे क्यों उतार रहा है ? शुभशीलशतक च। पुनः ॥ अरे पुत्र ! मैं तीर्थयात्रा करने में असमर्थ हूँ, For Personal & Private Use Only 39 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र - पिताजी ! यह रुखी-सुखी मरुस्थली, मैं बोझ उठाकर चलने में असमर्थ हूँ, क्या कर सकता हूँ? इसी प्रकार वह माता को भी उस रेतीले प्रदेश में उतार देता है और अपनी इच्छानुसार आगे बढ़ता जाता है। दुर्बल होने पर भी मातापिता दुःखित होकर उस पुत्र के पीछे-पीछे चलने का प्रयत्न करते हैं। ३३. विचारानुसार ही फल की प्राप्ति होती है. यादृशं क्रियते चित्तं, सदसद्वस्तुवर्णने। कवेरिव भवे तादृग, जनानां भावुकात्मनाम्॥ अर्थात् - सत् और असत् वस्तु के वर्णन में जिस प्रकार की विचारधारा चलती है, वैसा ही कवि वर्णन करता है। उसी प्रकार भावुकजनों के लिए भी मानसिक विचारधारा के अनुसार ही फल प्राप्त होता है। श्रीराम के समय में सुबुद्धि नाम का कवि था। वह श्रीराम द्वारा निर्मापित पम्पासर का नवीन काव्यों के द्वारा वर्णन करता था। श्रीराम के परिवार में किसी भी प्रकार का रोग हो जाने पर उसकी चिकित्सा के लिए अनेक वैद्य रहते थे। सुबुद्धि कवि द्वारा निरन्तर पम्पासर का वर्णन और निरन्तर ध्यान रहने के कारण उसे जलोदर रोग हो गया। वह रोग बढ़ने लगा। अनेक वैद्यों ने अनेक प्रकार से चिकित्सा की, पर उस चिकित्सा या औषध का उसे फल नहीं मिला। कहा है वैद्यस्तर्कविहीनो, निर्लज्जा कुलवधूती पीनः । कटके च प्राघूर्णको, मस्तकशूलानि चत्वारि॥ अर्थात् - वैद्यगण तर्कविहीन/विचारशून्य हो, कुलवधु निर्लज्ज हो, वृत्ति/तपस्वी स्थूलकाय हो और सेना में महमान/याचना करने वाला अतिथि हो, तो ये चारों ही सिरदर्द के कारण होते हैं। ___ एक समय विचारशील अनुभवी अवस्थावृद्ध वैद्य वहाँ आया। राजा ने सुबुद्धि के जलोदर की चिकित्सा के लिए आदेश दिया। तब उस वृद्ध वैद्य ने शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके शरीर का अच्छी तरह निदान किया और खाने के लिए चावल, दाल, घी आदि पदार्थ बतलाए। वह जब भोजन कर रहा था, तब उस वृद्ध वैद्य ने कहातुम मरुस्थल का वर्णन करो। वह मरुस्थल का इस प्रकार वर्णन करता है - मृगतृष्णां सदा दर्श, दर्श तृषितवक्षसम्। ओष्ठ-तालु-गलादीनि, शुष्यन्ति स्म दिने दिने । अर्थात् - जहाँ मृग-तृष्णा सदा दिखाई देती है, जहाँ प्यास की अकुलाहट के कारण हृदय नीचे-ऊपर होता है और जहाँ होठ, तालु और गला आदि प्रतिक्षण सूखते रहते हैं। हर समय इस प्रकार मरुस्थली का वर्णन करते-करते उसका जलोदर रोग समाप्त हो गया। श्रीराम ने वैद्य से पूछा - वैद्यराज ! बतलाइए मरुस्थल का वर्णन करते-करते यह रोग-रहित कैसे हो गया अथवा इसका जलोदर रोग कैसे नष्ट हो गया? वैद्य ने उत्तर दिया - राजन् ! इस सुबुद्धि को रात-दिन पम्पा-सरोवर का वर्णन करते हुए उसके दृष्टि के सम्मुख जल ही जल नजर आता था। उसका ध्यान प्रति-समय जल की ओर ही रहता था। निरन्तर जल के ध्यान के कारण उसे जलोदर रोग हो गया और इन दिनों निरन्तर, प्रतिक्षण मरुस्थल का वर्णन करते हुए इसका ध्यान रूखे-सूखे पर ही केन्द्रित हो गया, इसी कारण यह रोग मुक्त हो गया है। जिस प्रकार का हर समय ध्यान रहता है। वैसी ही मानसिक विचारधारा बन जाती है, यही नहीं, शुभ अथवा अशुभ वर्णों को हर समय सुनने से मन भी प्रसन्नता या अप्रसन्नता का अनुभव करता है। कहा भी है - वीतरागं स्मरन् योगी, वीतरागत्वमश्नुते। सरागं ध्यायतस्तस्य, सरागत्वं तु निश्चितम्॥ अर्थात् - वीतराग का स्मरण करते हुए योगीगण वीतरागता को प्राप्त करते हैं । सराग का ध्यान करने पर सराग वस्तु निश्चित रूप से प्राप्त होती है। शुभशीलशतक 41 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येन येन हि भावेन, युज्यते यन्त्रवाहकः। तेन तन्मयतां याति, विश्वरूपो मणी यथा॥ अर्थात् - जिन-जिन भावों से तन्मय होकर यंत्रचालक नगों की कटाई करता है, उसी प्रकार की मूल्यवान मणि बन जाती है। इलिका भ्रमरीध्यानात, भ्रमरी जायते यथा। तथा ध्यानानुरूपः स्यात्, जीवोऽशुभशुभात्मवान्॥ अर्थात् - जब इलिका भ्रमरी के गुंजारव की ओर ध्यान केन्द्रित कर लेती है, तब वह मरकर स्वयं ही इलिका के स्थान पर भ्रमरी बन जाती है। प्राणी ध्यान के अनुरूप ही शुभ-अशुभ कर्मों का बन्धन करता है। अत: हे राजन्! मरुस्थल का वर्णन करते-करते यह कवि स्वयं ही रोग मुक्त हो गया। राजा ने उस वृद्ध वैद्य का सम्मान किया। कहा है - अलङ्करोति हि जरा, राजामात्यभिषग्यतीन्। विडम्बयति पण्यस्त्री-मल्लगायकसेवकान्॥ अर्थात् - राजा, अमात्य/मन्त्री, वैद्य और व्रतियों के लिए वार्धक्य अवस्था भूषण स्वरूप होती है, जबकि वेश्या, पहलवान, गायक और सेवकों के लिए बुढ़ापा विडम्बना दायक होता है। ३४. व्यापार ही जाति-बोधक होता है. जन्मना तु ध्रुवं वर्य-मवर्यं जायते कुलम्। प्रायो भवति मानां, क्रियया विप्रवजने ॥ अर्थात् - जन्म से श्रेष्ठ कुल होने पर भी मर्त्य लोग अपने अपने आचार-व्यवहार से विप्र के समान कुलीन और अकुलीन बन जाते हैं। किसी गाँव में एक विद्वान् ब्राह्मण रहता था। वह यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन आदि निरन्तर षट्कर्म किया करता था। उसे अपना विश्वास का स्थान मान कर एक तपस्वी अपनी धोती उसके यहाँ छोड़ कर तीर्थ-यात्रा के लिए चला गया। वह तपस्वी देवदत्त तप के प्रभाव से दीर्घायुषी 42 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होकर भी तीर्थयात्रा किया करता था । एक समय उस यज्ञपाठी ब्राह्मण ने अपनी मृत्यु निकट जानकर अपने पुत्र को कहा - 'हे पुत्र ! यह धोती तपस्वी देवदत्त यहाँ छोड़ गया है, वह कभी भी आकर माँगे तो यह धोती उसे दे देना । ' पिता की मृत्यु के पश्चात् वह ब्राह्मण पुत्र अपना निर्वाह करने में भी असमर्थ हो गया और कुम्हार का धंधा करने लगा । इधर वह देवदत्त तपस्वी धोती लेने के लिए वहाँ आया और उस यज्ञपाठी ब्राह्मण का घर पूछने लगा । पूछते-पूछते वह वहाँ पहुँचा, किन्तु उस घर में कुम्हार का काम होते देखकर वह उल्टे पैर पुनः तीर्थयात्रा के लिए चल दिया । कुम्हार के काम से भी उसका गुजारा न होने पर वह माल ढोने वाला बन गया। इधर वह तपस्वी देवदत्त वापिस धोती के लिए वहाँ आया और मकान पूछते-पूछते वहाँ पहुँचा किन्तु वहाँ भार-वाहक को देखकर उल्टे पैर वापिस तीर्थयात्रा के लिए चल दिया । इधर वह ब्राह्मणपुत्र अर्थात् भारवाहक अन्त समय में अपने पुत्र को कहने लगा- हे पुत्र ! तपस्वी की यह धोती परम्परा से अपने यहाँ सुरक्षित है, वह कभी आवे तो उसे दे देना। इधर भारवाहक वह ब्राह्मणपुत्र संयोग से राजा का सेवक बन गया । पहले के समान ही तपस्वी वहाँ आया और उसको अन्य कार्य करते देखकर वह पुन: यात्रा के लिए चल पड़ा । वह ब्राह्मण का पौत्र भी मृत्यु को प्राप्त हुआ और उसका पुत्र ग्रामहट्टक अर्थात् ग्राम में व्यापार करने वाला बना । वह तपस्वी पुन: वहाँ आया और उसको इस प्रकार का कार्य करते देख कर मन में खिन्न हुआ और अपनी धोती को संभाल कर, पुन: वहीं छोड़कर यात्रा के लिए चल पड़ा। वह ग्रामहट्टक वैदिक ब्राह्मणों के सम्पर्क से चतुर्वेदी ब्राह्मण बन गया और यजन, याजन करने लगा । शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 43 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इधर घूमते-घूमते वह तपस्वी पुनः वहाँ आया और उसके घर पर वैदिक कर्मकाण्ड यजन-याजनादि देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुआ। उसको प्रसन्न मुद्रा में देखकर उस ब्राह्मण ने कहा - आप इतने हर्ष से पागल क्यों हो गये? उस तपस्वी ने उसके पितामह से लेकर आज तक का वृतान्त कहा और बोला – 'तुम्हारे पितामह वैदिक षट्कर्म किया करते थे और आज तुम्हें भी उसी कर्म में कार्य करता देखकर मैं हर्ष से पागल हो गया हूँ।' वह तपस्वी उसके यहाँ से अपनी धोती ले कर बोला - 'जिस प्रकार की परिस्थिति होती है उसी प्रकार का मानव का आचार बन जाता है अत: इसमें उत्तम, मध्यम और जघन्य का विचार नहीं करना चाहिए। ऐसा कहकर वह तपस्वी आगे चला गया। ३५. अच्छे-बुरे का सूचक. राजा भोजराज ने अपना अन्तिम समय निकट जानकर समस्त दार्शनिकों को बुलाया और सबको यथा-योग्य सम्मानित कर उनकी उपस्थिति में ही अपने मन्त्रियों को कहा - 'मैंने अपने जीवन में पुण्य कार्य बहुत कम किये हैं और पाप कार्य अधिक में किये हैं, अत: आप लोग मेरे मरण के पश्चात् मेरे एक हाथ को काली स्याही से पोत देना और दूसरे हाथ पर थोड़े से चन्दन का लेप कर देना।' राजा के उक्त मन्तव्य को सुनकर मन्त्रियों ने कहा - आप इस प्रकार का निर्देश क्यों दे रहे हैं? राजा भोजराज ने उत्तर दिया - मेरे दोनों हाथों को इस प्रकार देखकर लोग बुरे कार्यों से बचकर अच्छे कार्य करने लगेंगे, अच्छाई और बुराई का विचार करने लगेंगे। कुछ समय पश्चात् भोजराज की मृत्यु हुई। मन्त्रियों ने भोजराजा की इच्छानुसार ही एक हाथ को काला और एक हाथ को चन्दनयुक्त बनाया। अन्तिम संस्कार के लिए सब लोग उसे ले गये। राजा के दोनों हाथों को 44 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाला भिन्न-भिन्न प्रकार के कालिमालिप्त और चन्दनलिप्त देखकर लोगों ने कहा - राजा ने इस प्रकार अपने दोनों हाथों को क्यों पोत दिया? मन्त्रियों ने कहा - राजा कि अभिलाषा थी कि काली स्याही से पुता हुआ हाथ देखकर लोग पाप कार्यों से बचें और चन्दनलिप्त हाथ देखकर सद्कार्यों में प्रवृत्त हों। राजा की दूरदर्शिता देखकर लोग बुरे कामों से बचकर अच्छे काम करने लगे। ३६. हाथ का दिया हुआ ही काम आता है. झाल्लो वाटिका के महाराज छल ने अपने जीवन में कभी देना सीखा ही नहीं था और न कभी अपने हाथ से दान ही दिया था। अन्तिम समय में दान देने की उसकी इच्छा हुई। उसने अपने पुत्रों से कहा - मेरे पास गायों का झुण्ड, घोड़ों की प्रचुरता और रथों का संग्रह है। मैं इन सबका दान करना चाहता हूँ। यह सुनकर राजपुत्रों ने मन्त्री आदि के साथ विचार-विमर्श करते हुए कहा - 'बुढ़ापे में पिताजी की मति चली गई है, इस प्रकार से वे सब कुछ लुटा देंगे, अत: इसका प्रतिकार करना आवश्यक है।' परामर्श के पश्चात् यह निर्णय लिया गया कि जब भी पिताजी इस प्रसंग को छेड़ें तो उस समय उनके समक्ष यही कहा जाए - 'पिताश्री ! अभी आपकी बीमारी के कारण हम सब सेवा में व्यस्त हो रहे हैं, अतः आप जो कुछ भी दान देना चाहते हैं, उसकी पूर्ति हम आपके पश्चात् कर देंगे।' इस प्रकार कह-कह कर पिता को झाँसा देते रहे। राजा की मृत्यु हो गई। राजपुत्रों ने एक दाना भी दान में नहीं दिया। इसीलिए यह कहा जाता है - 'अपने हाथों से जो दिया जाता है, वही अपना होता है पीछे की सन्तान कुछ नहीं करती है बल्कि मरण के पश्चात् पुत्रों में संघर्ष और विघटन हो जाता है। फलतः देने की कल्पना ही नहीं उठती।' शुभशीलशतक 45 For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. माता द्वारा धर्म-मार्ग दिखलाना. वटप्रद नगर का मन्त्री सारंग डीशावाल गोत्रीय था। वह मिथ्या धर्म का आचरण करने वाला था। उसकी माता जैन धर्म का पालन करने वाली थी। एक दिन माता ने पुत्र से कहा - 'वत्स! तुम मिथ्या धर्म का आचरण कर रहे हो। सर्व दर्शन मान्य जैन धर्म का आचरण क्यों नहीं कर रहे हो? जैन धर्म का और वीतराग की उपासना के बिना मुक्ति प्राप्त नहीं होती है। मैं तो अब मौत के किनारे बैठी हूँ। मेरे मरण के पश्चात् तुम धर्मशाला में जाकर जैन साधुओं को वन्दन अवश्य करना और उनसे सम्पर्क रखना।' पुत्र सारंग ने उत्तर दिया - 'हे माता ! तुम चिन्ता मत करो। जैसा तुमने कहा है, वैसा ही मैं करूँगा।' माता की मृत्यु के पश्चात् सारंग ने अपने वचनों का पालन नहीं किया और मिथ्या धर्म का आचरण करने लगा। स्वर्गवास के पश्चात् उसकी माता स्वर्ग में देवी बनी। पुत्र-स्नेह के कारण उसको प्रतिबोध देने के लिए रात्रि में उसके कमरे में प्रकट हुई और एक श्लोक लिख कर दिया तथा कहा - 'हे पुत्र ! मैं तुम्हें किसी धर्म का पालन करने के लिए बाधित नहीं कर रही हूँ किन्तु मेरा यह कथन है जो इस श्लोक का युक्ति-संगत अर्थ कर दे उसी मार्ग/धर्म का अनुसरण करना।' ऐसा कहकर वह देवी माता अन्तर्ध्यान हो गई। उस श्लोक को प्राप्तकर, पढ़कर वह चिन्तनशील हो गया, स्वयं अर्थ निकालने का प्रयत्न करने लगा किन्तु असफल रहा। उसके पश्चात् अपने नगर के विद्वान्, दूसरे नगर के विद्वानों से सम्पर्क किया किन्तु कोई भी इस श्लोक का अर्थ न कर पाया। अन्त में वह उदास हो कर सिद्धपुर नगर में विराजमान तपागच्छाधिपति देवसुन्दरसूरि के पास जाकर उस श्लोक का अर्थ पूछा। कामकान्तं व्रजै स्थानं, शिशिरा वापय श्रुते । अत्रोदितं मतं ग्राह्यं, त्वया पुत्रान्तदर्शनात्॥ इस श्लोक के पूर्वार्द्ध में गूढ रूप से गुम्फित वर्णाक्षरों मतं जैनं शिवाय ते अर्थात् जैन मत तेरे लिए शिवकारी हो और इस धर्म के मत को तुम स्वीकार करना। जब देवसुन्दरसूरि ने इसका अर्थ बतलाया तो वह शुभशीलशतक 46 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने जैन धर्म को स्वीकार कर सम्यक्त्वधारी श्रावक बना। शत्रुञ्जय तीर्थ पर भगवान् ऋषभदेव की स्तुति करते हुए 'वह महिना धन्य है, वह दिन धन्य है और वह पक्ष धन्य है' भाव पूजा में संलग्न हुआ और देवताओं के द्वारा भी चलायमान नहीं हुआ । ३८. राम नाम से पत्थर तैरते हैं. एक दिन फिरोज सुरत्राण ने मुकुन्द पण्डित से कहा- मैं महान् हूँ या राम महान् है? मुकुन्द पण्डित ने कहा पत्थर मँगवाइये, जल में डालिये, आपको उत्तर प्राप्त हो जायेगा। परीक्षण के लिए सुरत्राण ने जल में पत्थर डाला। वह पत्थर जल के तल भाग में चला गया । -- सुरत्राण ने कहा - क्या कारण है? तुम भय मत करो ! सच बताओ । मुकुन्द पण्डित - राजन् ! राम के अनन्य भक्त हनुमान् आदि ने राम का नाम लेकर जल में पत्थर/शिलाएँ फेंकी, वे शिलाएँ जल में तैरने लगी और ये पत्थर आपने फेंका, जो डूब गया। कहा भी है ये मज्जन्ति निमज्जयन्ति च परांस्ते प्रस्तरा दुस्तरे, वार्द्ध वीर( ? ) तरन्ति वानरभटान् संतारयन्तेऽपि च । नैते ग्रावगुणा न वारिधिगुणा नो वानराणां गुणाः, श्रीमद्दाशरथेः प्रतापमहिमा सोऽयं समुज्जृम्भते ॥ अर्थात् - समुद्र में विशाल पत्थर फेंकने पर कई पत्थर समुद्र के तल में चले जाते हैं, कई उसके ऊपर तैरते रहते हैं । वानर सुभट उसी समुद्र को पार कर लेते है, दूसरों को भी पार करवा देते हैं। यहाँ न पत्थर में वह शक्ति है और न समुद्र में वह सामर्थ्य है तथा न वानर ही सक्षम हैं। वस्तुतः दाशरथी पुत्र श्रीराम के नाम का प्रताप है जो पत्थर भी तैर जाते हैं 1 ३९. समयोचित्त बुद्धि चातुर्य. एक दिन एक बकरे ने अपनी माँ बकरी से कहा - हे माँ! दिवाली के दिन मेरे दोनों सींगों को सजा देना । शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 47 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बकरी ने समयोचित्त बुद्धि का प्रयोग करते हुए, उसके दिल को रखते हुए उत्तर दिया - हे पुत्र अजय ! आसोज सुदि नवमी यदि विघ्न रहित बीत जायेगी तो मैं तेरे सींगों को अवश्य ही सजा दूँगी। उसी वार्ता के दौरान शिकार के लिए आये हुए राजा भीम ने यह बात सुनी। भीम के हृदय में करुणा भाव जागृत होने से उसने यह निर्णय लिया - 'मैं दशहरा पर्व पर किसी जीव की बलि नहीं दूँगा, किन्तु परम्परा का पालन करते हुए जीवों के स्थान पर अन्य मिठाई आदि की बलि अवश्य चढ़ाऊँगा । ' ४०. आँखें मूंद जाने के बाद? एक चोर राजा भोज के महलों में चोरी करने के लिए पहुँचा । प्रयत्न करके जैसे-तैसे वह उस महल में पहुँच गया जहाँ राजा भोज सो रहे थे । उसने देखा कि राजा भोज जग रहे हैं और बारम्बार निम्न श्लोक के ३ पादों का उच्चारण कर रहे हैं - चेतोहरा सद्बान्धवाः वल्गन्ति अर्थात् - चित्त को हरण करने वाली सौन्दर्यवती और रूपवती तरुणियाँ जिनके बगल में हों, समस्त परिवार वाले जिनकी इच्छानुसार चलते हों, सहृदय एवं कुलीन मित्रजन हों, मधुर भाषी नौकर-चाकर हों और जिसकी सेना में हाथियों का झुण्ड तथा वेगवान घोड़े हों 48 स्वजनो ऽनुकूलः, युवतयः प्रणयगर्भगिरश्च दन्तिनिवहास्तरलास्तुरङ्गाः, भृत्याः । किन्तु इस श्लोक के चौथे चरण की पूर्ति नहीं हो पा रही थी। इसी उधेड़बुन में महाराजा भोज करवटें बदलते हुए इस श्लोक के तीन चरणों का उच्चारण कर रहे थे। चोर चोरी करने आया था । वह भी विद्वान् था उससे रहा नहीं गया और झटपट बोल उठा - 'सम्मीलने नयनयोर्न हि किञ्चिदस्ति' नेत्र बंद हो जाने के बाद कुछ भी शेष नहीं रहता है । अर्थात् - जीवन समाप्ति के बाद सब कुछ समाप्त हो जाता है। शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा चौंका! और पहरेदारों को कहकर उसे बन्धन में डलवा दिया। राजा की चौथे चरण पूर्ति की समस्या हल हो गई थी। भोज प्रसन्न था। अतः प्रातः काल राजसभा में उस चोर को बुला कर धनादि प्रदान कर सम्मानित किया। ४१. आयु प्रति क्षण घटती जाती है. एक समय महामन्त्री श्री वस्तुपाल स्तम्भ तीर्थ (खम्भात) गये। वहाँ के लोग उनका कुशल-क्षेम पूछने के लिए आए। मन्त्री वस्तुपाल ने कुशल-खेम का उत्तर देते हुए कहा - लोकः पृच्छति मे वार्ता, "शरीरे कुशलं तव'। कुतः कुशलमस्माक-मायुर्याति दिने दिने॥ अर्थात् - आप लोग पूछते हैं "आपका शरीर तो कुशल है" किन्तु आप लोग सोचिए, विचार करिए मेरी आयु प्रतिदिन और प्रतिक्षण घटती जा रही है, बतलाइए - मेरा शरीर कैसे कुशलमय होगा? ४२. वस्तु तोलने में छल-कपट. किसी नगर में व्यापारी सेठ सामान बेचने का धंधा करता था। देते समय में और लेते समय में तराजू की डण्डी में हेर-फेर कर बाँटों में छलकपट का व्यापार करता था। उसने अपने बाँटों के नाम - एक पुष्कर, दो पुष्कर, तीन पुष्कर, चार पुष्कर, पाँच पुष्कर रखे थे। वह जनता को ठगता था, लोगों से अधिक लेता था और कम मात्रा में देता था। इस प्रकार छलकपट का व्यापार करते हुए बहुत धन इकट्ठा किया किन्तु उसके दुर्भाग्य से समाप्त होने वाले प्रति वर्ष में कभी तो उसके घर और गोदाम में आग लग जाती थी, कभी चोर लूट लेते थे और कभी राजा दण्ड के रूप में ग्रहण कर लेता था। घरवाले विचार करने लगे - यह क्या हो रहा है? । __ सेठ की छोटी पुत्रवधू ने अपने चिन्तन में यह पाया - सेठजी ! कूट व्यवहार/छल-कपट के द्वारा ही धन को बढ़ाते हैं। शुभशीलशतक 49 For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस छोटी बहू ने जो न्यायोपार्जित धन था, उस धन का सोने का गोला बनाकर समुद्र में डाल दिया। किसी मच्छ ने अनाज का पिण्ड समझ कर भक्षण कर लिया। मछलीमार ने मच्छों को पकड़ते हुए उसे पकड़ लिया और उस मच्छ को पकाने की दृष्टि से मार दिया। उस मच्छ के पेट से वह गोला निकला। मच्छमार ने समझा कि यह वजन करने का सेर अर्थात् बाट है। अपने गाँव में इसका उपयोग सेठ ही करता है अतः उसको ला कर दे दिया। यह देखकर छोटी बहू ने कहा - हे ससुरजी! न्याय और शुद्ध मार्ग से व्यवसाय करते हुए हम यदि लक्ष्मी को फेंक भी दें तब भी वह लक्ष्मी अपने आप यहाँ चली आती है। इसका उदाहरण आपके समक्ष है। अतः आपसे निवेदन है कि व्यापार में छल-कपट छोड कर शुद्ध दृष्टि से व्यापार करें तो अपने घर की लक्ष्मी भी सदा के लिए स्थिर हो जायेगी। किसी भी प्रकार से नष्ट नहीं होगी। सेठ की आँखें इस उद्बोधन से खुली और उसी दिन से उसने कपटपूर्ण व्यवहार छोड़कर शुद्ध दृष्टि से व्यापार करना चालू किया और उसकी लक्ष्मी स्थिर हो गई तथा वह श्रीमन्त बन गया। ४३. विपदा में समय-यापन ही श्रेष्ठ है. कौशाम्बी नगरी में शतानीक नाम का राजा राज्य करता था। उसकी महारानी का नाम मृगावती था, जो गणराज्य के संचालक महाराजा चेटक की पुत्री थी। एक समय राज्य सभा में बैठे हुए महाराजा शतानीक ने दूत को कहा - बतलाओ ! जो हमारे देश में न हो और दूसरे के प्रदेश में हो? दूत ने हाथ जोड़कर कहा - महाराज आपके राज्य में चित्रसभा/ चित्रशाला नहीं है। राजा ने उसी क्षण चित्रसभा बनाने का कार्यक्रम प्रारम्भ कर दिया और १०० चित्रधारकों को नियुक्त किया। वहाँ सोम चित्रकार चित्रशाला का निर्माण कर रहा था। किसी समय उसने महारानी मृगावती के पैरों के अगूंठे को देख लिया और कल्पना से शुभशीलशतक 50 For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका चित्र बनाना प्रारम्भ किया। संयोग से मृगावती का चित्र बनाते समय उसके गुह्य स्थान को चित्रित करते हुए स्याही का धब्बा गिर जाता था। उसे बारम्बार हटाने का प्रयत्न भी किया, किन्तु वह नहीं हटा। एक समय महाराजा शतानीक उस चित्रशाला का निरीक्षण करने आये। निरीक्षण करते समय मृगावती के चित्र पर उनकी दृष्टि पड़ी। गुह्य स्थान पर कृष्ण बिन्दु को देख कर राजा सोचने लगा - 'इस चित्रकार ने निश्चित रूप से मेरी पत्नी के गुप्त स्थान को देखा है अत: यह बात कोई भी समझ पाये इसके पूर्व ही इस चित्र को और चित्रकार को नष्ट कर देना चाहिए।' राजा ने तत्काल ही सोम चित्रकार को मारने का हुक्म दे दिया। उसी समय अन्य अनेक चित्रकारों ने आकर राजा से निवेदन कियामहाराज! इसका हनन मत करो। इसको देवता का वरदान है कि किसी भी वस्तु के एक अंश को देख लेता है तो वह पूर्ण चित्र का निर्माण कर सकता है। पूर्व कथानक सुनाते हुए कहा - साकेतनपुर में सूरप्रिय नाम का एक यक्ष हुआ था। प्रति वर्ष उसका चित्र बनाया जाता था। वह उस चित्र और उस चित्रकार को मार डालता था। यदि कोई चित्रकार किसी वर्ष चित्र न बनाता तो वह नगर को नष्ट करने के लिए आमादा हो जाता था। ऐसी दशा में साकेतनपुर के राजा ने यह आदेश निकाला कि प्रति वर्ष बारी-बारी से इस यक्ष का चित्र बनाया जाए। चित्रकारों के नाम की चिटिकाएँ बनाकर घड़े में डाली जाती थी। जिसके नाम की चिटिका निकलती उसको मजबूरी में उस यक्ष का चित्र बनाना पड़ता था। एक समय एक बुढ़िया के पुत्र का नम्बर आ गया। उस समय उसकी माता रोने लगी। संयोग से उस समय चित्रकार सोम भी वहाँ पहुँच गया। बुढ़िया के रोने का कारण पूछा। माता ने घटना सुनाई। सोम ने कहा- 'हे माता ! तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हारे पुत्र की रक्षा करूँगा।' उस सोम चित्रकार ने शुद्ध होकर मुखकोश बाँधकर छठ (दो उपवास) की तपस्या करते हुए यक्ष का चित्र बनाना प्रारम्भ किया। उसके व्यवहार से यक्ष प्रसन्न हुआ और उसने कहा - चित्रकार ! मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो। शुभशीलशतक 51 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रकार ने अनुरोध किया - हे देव! आपने कहा है तो मैं आपसे वर माँगता हूँ कि भविष्य में आप किसी की जीव हिंसा न करें। यही वर मुझे चाहिए। यक्ष के पुनः कहने पर चित्रकार ने कहा - मैं किसी के शरीर का अंश मात्र भी देख लूँ तो उसके सम्पूर्ण शरीरावयव का चित्र बना सकूँ, ऐसी शक्ति मुझे प्रदान करें। यक्ष ने प्रसन्नता से स्वीकार किया और वरदान को कार्यरूप में परिणत किया। यह वही चित्रकार सोम शर्मा आपकी चित्रशाला में काम करने आया है। इसने महारानी के चरणों की अंगुलियाँ या अंगूठा देख लिया होगा, उसी यक्ष के वरदान स्वरूप इसने महारानी का पूर्ण चित्र बना दिया। इसमें चित्रकार का कोई दोष नहीं है। अत: इसे दण्ड न दें। राजा, राजा ही होता है, हठी होता है, मन-मौजी होता है। राजा ने इस बात का परीक्षण करने के लिए अपनी सेविका का केवल अंगूठा दिखाया और कहा - इसका चित्र बनाओ। चित्रकार ने हू-बहू चित्र बना दिया। राजा चमत्कृत हुआ, किन्तु घमंड में आकर उस चित्रकार का अंगूठा और एक अंगुली कटवा डाली और उसे निकाल दिया। उसी चित्रकार सोम शर्मा ने मृगावती का दूसरा चित्र बनाकर चण्डप्रद्योतन राजा को दिखलाया। चण्डप्रद्योतन उस चित्र पर मोहित हो गया और राजा शतानीक को कहलाया - तुम्हारी महारानी हमारे अन्तपुर की शोभा बनेगी, अतः हमें अर्पण कर दो। यदि तुम मेरे शर्त स्वीकार नहीं करते हो तो युद्ध के लिए तैयार रहो। महाराजा शतानीक ने उसकी माँग को अस्वीकार किया, फलतः मालवदेशाधिपति चण्डप्रद्योतन अपनी सेना लेकर कौशाम्बी नगरी आया। महाराज शतानीक ने अपने को कमजोर समझ कर नगर के दरवाजे बंद कर दिये। चण्डप्रद्योतन की सेना ने दुर्ग को चारों तरफ से घेर लिया। इसी बीच 52 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतानीक राजा की मृत्यु हो गई। मृत्यु काल के पश्चात् होने वाले समस्त कार्य निपटाने के बाद मृगावती ने गहन चिन्तन किया और इस विभीषिका से बचने के लिए मार्ग खोजा । उसने चण्डप्रद्योतन को कहलाया -मैं तुम्हे चाहती हूँ, किन्तु मेरे पति की अभी मृत्यु हुई है, लोक-लज्जा का भी भय है, अतः मेरे पुत्र की रक्षा के लिए इस दुर्ग को सुदृढ़ बना दीजिए, उसके बाद मैं आपको स्वीकार कर लूँगी। यदि आपने बलात्कार करने की चेष्टा की तो मैं आत्महत्या कर लूँगी। राजा चण्डप्रद्योतन ने सोचा - 'प्रेम सम्बन्ध दिलों से होता है, बलात्कार से नहीं। उसकी अभिलाषा पूर्ण कर दी जाए। आखिर यह वराकी जायेगी कहाँ?' यह सोचकर राजा ने उस दुर्ग को सुदृढ़ एवं मजबूत बनवा दिया और नगर को धन-धान्य से पूरित भी कर दिया। ऐसा करने पर भी मृगावती उसके पास नहीं आई। चण्डप्रद्योतन ने युद्ध प्रारम्भ किया, किन्तु वह उस दुर्ग को अपने अधिकृत करने में समर्थ न हो सका। इसी मध्य में श्रमण भगवान् महावीर कौशाम्बी नगरी पधारे । उनका आगमन सुनकर राजा चण्डप्रद्योतन और कौशाम्बी की महारानी मृगावती भी उनको वन्दन करने के लिए वहाँ पहुँचे । वन्दन के पश्चात् भगवान् महावीर का उपदेश सुना। देशना सुनने के बाद महारानी ने प्रभु से निवेदन किया - भगवन् ! मैं आपकी शिष्या बनना चाहती हूँ। आप मुझे दीक्षा प्रदान करें। मृगावती के इस स्वरूप को देखकर चण्डप्रद्योतन का कामज्वर भी शान्त हो गया और उसने मृगावती से अपने वासनाजन्य अपराध के लिए क्षमा-याचना की। मृगावती ने उसे क्षमा किया। मृगावती ने भगवान् महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की। चण्डप्रद्योतन भी भगवान् और महासती मृगावती को नमस्कार कर अपने राज्य की ओर लौट गया। ४४. विद्याभिमानी श्रीधराचार्य. श्रीधराचार्य नामक ज्योतिष शास्त्र के एक उल्लेखनीय विद्वान् थे। त्रिशती आदि ग्रन्थों का निर्माण करने पर उसके अन्त में अपना नाम लिखकर शुभशीलशतक 53 For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्व के साथ निम्न श्लोक भी लिखा करते थे : उत्तरतः सुरनिलयं, दक्षिणतो मलयपर्वतं यावत्। प्रागपरोदधिमध्ये, नो गणकः श्रीधरादन्यः॥ अर्थात् - उत्तर दिशा में हिमालय पर्वत है, दक्षिण दिशा में मलय पर्वत है, पूर्व और पश्चिम में समुद्र है। इनके मध्य में श्रीधर के समान अन्य कोई गणक/ज्योतिष शास्त्र का विद्वान् नहीं है। ___कवि ने अपना विरुद सरस्वती-पुत्र रखा था। एक समय देवी सरस्वती ने विचार किया - 'अहो! यह विद्वान् होने पर भी मूर्ख है, इसलिए व्यर्थ में गर्व करता है।' इसलिए ब्राह्मी (सरस्वती) ने बुढ़िया औरत का रूप धारण कर श्रीधराचार्य के पास आई और कहा - तुम सब कुछ जानते हो, मैं कुछ भी नहीं जानती, अत: एक और दो कितने होते है? मेरे प्रश्न का उत्तर दो। श्रीधर ने कहा - एक और दो, तीन होते है। देवी ने कहा - ऐसा नहीं कहते, सोच कर कहो। तब श्रीधर ने कहा - एक और दो, बारह होते है। यह भी उत्तर ठीक नहीं है। श्रीधर बोला - ओ बुढ़िया! तुम पागल दिखाई देती हो, जो तुम इतना भी नहीं जानती हो। मैंने जो कुछ बोला, वह असत्य नहीं हो सकता। देवी ने कहा - वत्स! एक और दो इक्कीस होते है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार 'अंकानां वामतो गतिः' अर्थात् अंकों की गति उल्टी होती है। उल्टी गणना करने पर इक्कीस की संख्या आती है। यह सुनकर श्रीधराचार्य सिर धुनने लगा और विचार कर कहा - हे माता! तुम कौन हो? देवी ने कहा - मैं काश्मीर देश वासिनी सरस्वती देवी हूँ। तुम्हारा घमण्ड चूर करने के लिए ही मैं यहाँ आई हूँ। शुभशीलशतक 54 For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीधर ने कहा - हे माता! मैंने कौन सा अहंकार किया? देवी ने कहा - 'उत्तरतः सुरनिलयं' यह श्लोक ही तुम्हारे घमण्ड का कारण है। श्रीधराचार्य मस्तक झुका कर बोले - हे माता! आप अपने स्वरूप को प्रकट करें, मेरे साथ छल न करें। उसी समय सरस्वती अपने निज स्वरूप में प्रकट हुई। वाग्देवी का यह रूप देखकर श्रीधर उठा और देवी के चरणों में गिरकर बोला - हे माता! मैं मूर्ख हूँ इसलिए मैंने गर्व किया। देवी ने कहा - हे पुत्र ! आगे से तुम घमण्ड मत करना । अहंकार के कारण ही प्राणी इस लोक और परलोक में दुःखी होता है। कहा है : ज्ञानं मददर्पहरं माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः । अमृतं यस्य विषायति तस्य चिकित्सा कथं क्रियते॥ अर्थात् - ज्ञान अहंकार का हरण करने वाला है, यदि ज्ञान ही गर्व का कारण बनता है तो उसका निवारक वैद्य कहाँ मिल सकता है? यदि अमृत ही विष का रूप धारण कर लेता है तो उसकी चिकित्सा कैसे की जा सकती है? विद्ययैव मदो येषां, कार्पण्यं विभवे सति। तेषां दैवाभिभूतानां, सलिलादग्निरुत्थितः॥ अर्थात् - विद्या से ही जिनको अहंकार हो जाता है, और वैभवशाली होने पर भी कृपण कहलाता है तब दैवयोग्य से यही मानना होगा कि पानी में ही आग लग गई। ___ इस प्रकार सरस्वती देवी के वचन सुनकर श्रीधराचार्य ने गर्व का त्याग किया। ४५. कूट प्रश्नों द्वारा गर्व-हरण. महारथी कृष्णद्वैपायन व्यासजी ने महाभारत के अन्त में यह श्लोक लिखा है: शुभशीलशतक 55 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहं वेद्मि शुको वेत्ति, संजयो वेत्ति वा (नवा)। भारतं भारती वेत्ति, देवो जानाति केशवः॥ अर्थात् – मैं जानता हूँ, शुक जानता है, कह नहीं सकता कि संजय जानता है या नहीं, सरस्वती भारत (महाभारत) को जानती है और देव केशव को जानते हैं। दक्षिण समुद्र से ११४ योजन दूर उत्तर दिशा स्थित अयोध्या नगरी में रहने वाला जैन कुम्भकार (कुम्हार) गिरनार पर्वत पर तीर्थ की यात्रा करने के लिए आया। वहाँ महर्षि कृष्णद्वैपायन का आश्रम था। उनके शिष्य से वह कुम्भकार मिला। बातचीत के दौरान शिष्य ने कहा - हमारे गुरु सब कुछ जानते है, सर्वज्ञ हैं। कुम्भकार सोचने लगा - 'सर्वज्ञ के बिना कोई भी व्यक्ति सब कुछ नहीं जान सकता है।' यह सोचकर वह कुम्भकार व्यासजी के समीप गया और पूछा - आपके द्वारा रचित महाभारत कथा का पति/नायक कौन है? व्यासजी ने उत्तर दिया - युधिष्ठिर आदि इस कथा के नायक हैं। कुम्भकार ने पुनः पुछा - द्रौपदी के साथ उनका क्या सम्बन्ध है, क्या नाता है? यह सुनकर व्यासजी ने उत्तर दिया - मैं नहीं जानता। पुनः कुम्भकार ने कहा पतिश्वशु रताज्येष्ठे पतिदेवरताऽनुजे। मध्यमेषु च पाञ्चाल्या-स्त्रितयं त्रितयं त्रिषु॥ अर्थात् - पति का बड़ा भाई ज्येष्ठ कहलाता है, वह ससुर तुल्य होता है। पति का छोटा भाई देवर होता है। अतः तीनों के मध्य में रहा हुआ (तृतीय लिङ्गधारी) अर्जुन ही पाञ्चाली/द्रौपदी का पति है। 56 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सुनकर व्यासजी खड़े हुए और हाथ जोड़कर बोलेत्वमेव विदुरो धीमान्, त्वमेव धर्मिशेखरः। त्वमेव वन्दनीयोऽसि, त्वमेवासि कलानिधिः॥ अर्थात् - तुम बुद्धिमान विदुर हो, तुम ही धर्मनिष्ठ मानवों में शेखर हो, तुम ही वन्दनीय हो और तुम ही कलानिधि कृष्ण हो। अहं मूोऽस्मि मूढोऽस्मि, गर्ववान् पापवान् पुनः। कृतघ्नोऽस्मि निष्कलोऽस्मि, निर्गुणोऽस्मि च कुम्भकृत्॥ अर्थात् - हे कुम्भकार! तुम्हारे समक्ष मैं मुर्ख हूँ, मूढ़ हूँ, घमण्डी हूँ, पापी हूँ, कृतघ्न हूँ, कलारहित हूँ और निर्गुण हूँ। ४६. अतिथि सत्कार. श्रीपुर नगर में धनसेठ नाम का एक बड़ा व्यापारी रहता था। उसके बहुत स्वजन सम्बन्धी थे। उसकी पत्नी का नाम धनवती था। पुत्र का नाम कमल था और उसकी पत्नी का नाम कमला था। संयोग से माता-पिता के स्वर्गवास हो जाने पर कमल का व्यापार क्रमश: ठण्डा पड़ गया अर्थात् आर्थिक दृष्टि से वह कमजोर हो गया। कमल के घर में बहुत मेहमान आते थे। कमल की पत्नी कमला गुणवती थी और पति के हितों का ध्यान रखती थी। वह पति के द्वारा बुलाए गये समस्त आगन्तुकों का स्वागत और भक्ति करती थी। एक समय अपनी पत्नी को दुबली-पतली देख कर कमल ने कहा किं दीससि पिए संपइ, दुब्बला सुगुणावहे। जं ते अत्थि अणूंरडूं, तं पूरेमि कहेह॥ अर्थात् - हे गुणधारिणी प्रिये! आजकल तुम बहुत दुर्बल दिखाई देती हो। तुम दिल खोल कर कहो, मैं तुम्हारी वांछा को पूर्ण करूँगा। घरि आवइ घरि मग्गिट्ठिअ, पिय तुम्ह नामगुणेहिं। तिणि कारणि हूं दूबली, झूरउं रातिदीएहिं॥ शुभशीलशतक 57 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी पत्नी कमला ने उत्तर दिया - हे प्रिय! अपना घर मार्ग के बीच में पड़ता है और तुम्हारे गुणों से आकर्षित होकर, तुम्हारा नाम लेकर मेहमान आते हैं। मैं उनकी अच्छी तरह से मेहमानवाजी नहीं कर पाती, इसी कारण मैं दुबली हूँ और रात-दिन झूरती रहती हूँ। उसके बाद उन दोनों ने मेहमानों की अच्छी तरह सेवा की। धन की ओर भी नहीं देखा। फलतः मुक्ति योग्य पुण्य का उर्पाजन किया। ४७. बुद्धि का चातुर्य. - कोई मनुष्य मार्ग पर चलता हुआ जंगल में पहुँच गया। जंगल में उसे एक भालू मिला। मनुष्य की गंध पाते ही वह भालू उस पुरुष को मारने के लिये दौड़ा। तत्काल ही उस पुरुष ने उसके कान पकड़ लिए। भालू के कान पकड़ कर वह चलने लगा। भालू जब भी उस पर आक्रमण करता, उसी समय वह पुरुष उसके दोनों कानों को मरोड़ने लगता। कानों को मरोड़ते समय संयोग से उसके पास जो सिक्कों की थैली थी. वह फट गई और कई सिक्के जमीन पर गिर गए। संयोग से उसी समय उसके पीछे-पीछे कोई पुरुष आ रहा था। उसने यह दृश्य देखा, तब उसने प्रथम पुरुष को कहा- तुम ऐसी कौन सी विद्या का प्रयोग कर रहे हो, जिससे की भालू तुम्हारे अधीन हो गया? प्रथम पुरुष ने कहा - जब भी यह भालू आघात करने के लिए प्रयत्न करता है तो मैं इसके कान मरोड़ देता हूँ। कान मरोड़ने पर उससे सिक्के गिरते जाते हैं। यह सुनकर दूसरा आदमी बोला – यदि ऐसा है तो यह भालू मुझे दे दो। मैं भी कुछ सिक्के प्राप्त कर लूँ। पहला आदमी बोला - मैं इस भालू को तुम्हे कैसे दे सकता हूँ? दूसरे ने कहा - तुम कृपालु हो, कृपा कर यह भालू मुझे दे दो। प्रथम पुरुष ने वह भालू उसको दे दिया। वह दूसरा पुरुष उस भालू के कान मरोड़ने लगा। शुभशालशतक 58 For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी बीच पहले आदमी ने पीछे जाकर अपने जो सिक्के गिरे थे, उनको इकट्ठे कर लिए और वापस उस आदमी के पास आकर बोला - अरे भाई! तुम इस भालू के कान मरोड़ रहे हो, तुम्हे कुछ सिक्के मिले या नहीं? वह दूसरा आदमी बोला - जब भी मैं इसके कान मरोड़ता हूँ, यह मुझे सिक्के देना तो दूर रहा बल्कि मुझे मारने के लिए प्रयत्न करता है। तब पहले आदमी ने कहा - छोड़ दो इस भालू को। यह सुनकर दूसरे आदमी ने कहा - भालू के कान पकड़ा हुआ मैं न तो छोड़ने की स्थिति में हूँ और न ले जाने की स्थिति में, क्योंकि इसको छोड़ते ही यह मुझे खा जायेगा। इस प्रकार वह दूसरा आदमी लकीर का फकीर बन कर भालू के पकड़ा रहकर ही क्रमशः दुःखी हो गया। पहला आदमी अपनी चतुरता से अपने सिक्के लेकर घर पहुँच गया, सुखी हुआ। ४८. उत्कृष्ट सुख-दुःख कहाँ है?. एक समय महाराजा कुमारपाल ने आचार्य हेमचन्द्र से निवेदन कियाभगवन् ! संसार में अत्यधिक सुख और अत्यधिक दुःख कहाँ पर है। कहाँ सर्वदा सुख है और कहाँ सर्वदा दुःख है? आचार्य हेमचन्द्र ने कहा - अनुत्तरविमानात्तु नाधिकं विद्यते क्वचित्। सप्तमं नरकं मुक्त्वा दुःखं नास्त्यधिकं वचित्॥ अर्थात् - अनुत्तर विमानवासी जिनकी आयुष्य ३३ सागरोपम है, वे बहुत सुखी हैं और सातवीं नरक वाले नारकी जीव जिनकी आयुष्य ३३ सागरोपम है, वे अत्यन्त दु:खी हैं। कर्मबन्धन से मुक्त जीव जन्म, जरा, मृत्यु को समाप्त कर सिद्ध बनकर अत्यन्त सुख का भोग करता है और संसार में रहने वाला प्राणी सर्वदा अत्यन्त दुःख को प्राप्त होता है। इस कारण से इस जीव को सदा श्रेष्ठ पुण्य कार्य करने चाहिए, पाप कर्म नहीं करने चाहिए। शुभशीलशतक 59 For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९. नारी के वशीभूत प्रभाचन्द्र. चन्द्रपुर नगर में गुरु श्रीधर रहता था। उसके शिष्य का नाम प्रभाचन्द्र था। एक दिन प्रभाचन्द्र ने कहा - भगवन् ! मैं सर्व विद्याओं में निष्णात हो गया हूँ। यदि आपश्री आदेश दें तो जो पूर्वगत श्रुत साहित्य संस्कृत में है, उसको मैं प्राकृत भाषा में बदल दूँ। गुरु ने कहा - भगवद् वाणी को बदलने के विचार ही पापपूर्ण हैं, अतः तुम्हे पारांचित् प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रभाचन्द्र बोला - भगवन् ! इस पाप से मेरा कैसे निस्तार होगा? गुरु ने कहा - किसी राजा को प्रतिबोध देने पर, तुम्हारा पाप से निस्तार होगा। वह प्रभाचन्द्र श्रीपुर के राजा श्रीधर को प्रतिबोध देने के लिए चला। राजा भी उसकी योग्यता देखकर अपनी पुत्री को पढ़ाने के लिए उसको सौंप दिया। उस राज्यकन्या को भरत नाट्यशास्त्र आदि पढ़ाते-पढ़ाते उन दोनों में प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गया, शारीरिक सम्बन्ध भी हो गया। राजा को संदेह होने पर उनके चरित्र का परीक्षण करने के लिए गुप्त रूप से रात्रि में आया। प्रभाचन्द्र को संदेह हो गया और उसने यह काव्य कहा अहो संसारजालस्य, विपरीतः क्रियाक्रमः । न परं जड [ल] जन्तूनां, धीवरस्यापि बन्धनम्॥ अर्थात् - अहो! संसार--जाल का कैसा विपरीत कार्यक्रम है, जहाँ जलचर जीवों की अपेक्षा धीवर भी जाल में फँस जाता है। यह सुनकर राजा ने अपनी पुत्री उसी को प्रदान कर दी अर्थात् उसी के साथ विवाह कर दिया। क्रमशः शिष्य के इस गर्हित स्वरूप को गुरु ने भी सुना और खिन्न होकर निम्न पद्य कहा - संसारे हयविहिणा, महिलारूवेण मंडिअं कूडं। बज्झंति जाणमाणा, अयाणमाणा न बझंति॥ 60 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् - संसार में यह देखा जाता है कि जानकार मनुष्य भी भाग्य विपरीत होने पर महिला के रूप- जाल में बंध कर विनाश को प्राप्त होता है और इसके विपरीत ज्ञानी मन से भी इस कूट बंधन में नहीं फँसता है । इसके उत्तर में शिष्य ने निम्न श्लोक लिखकर गुरु के पास भेजा तावन्महत्त्वं पाण्डित्यं, यावत् ज्वलति नाङ्गेषु, हतः कुलीनत्वं अर्थात् - पाण्डित्य, कुलीनता और विवेक का महत्त्व तभी तक है। जब तक कि कामदेव के बाणों से मानव के प्रत्येक अंग दग्ध नहीं हो जाते । नान्यः नान्यः गुरु की शिक्षा को भी अमान्य करता हुआ जब वह भोग - लिप्सा में डूब गया तब गुरु ने सोचा : कुतनयादाधि-र्व्याधिर्नान्यः सेवकतो दुःखी, नान्यः विवेकिता । पञ्चेषुपावकः ॥ - क्षयाऽऽमयात् । कामुकतोऽन्धलः ॥ अर्थात् - संसार में कुपुत्र से बढ़कर कोई आधि नहीं है, क्षय रोग से बढ़कर कोई व्याधि नहीं है, पराधीनता से बढ़कर कोई दुःख नहीं है और काम - ज्वर से बढ़कर कोई अन्धकार नहीं है 1 - प्रभाचन्द्र सांसारिक सुख भोगों में आकण्ठ डूब जाने के कारण अपनी समस्त विद्याओं को भूल गया, मूर्ख हो गया । कहा है : भ्रातरं तथा । नारीसक्तो जनस्तातं, पितरं विद्यां न विन्दते लक्ष्मी वानिव क्वचिदेव तु ॥ अर्थात् - जो मनुष्य नारी में आसक्त हो जाता है, वह अपने पिता, चाचा, भ्राता और विद्या को भी पहचान नहीं पाता । लक्ष्मीमान होते हुए कदाचित् उसका दुरुपयोग कर बैठता है । भी इस प्रकार कुछ लोग नारी के हाव-भाव में लुब्ध होकर अपने करणीय और अकरणीय कृत्यों को भी नहीं पहचान पाते हैं । शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 61 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. व्यंग का प्रभाव. पद्मपुर में लक्ष्मीधर नाम का राजा राज्य करता था। उसके अनेक मन्त्री थे। वह राजा याचकों को दिल खोलकर दान देता था। एक समय मन्त्रियों ने राजा से निवेदन किया - हे राजन्! इस प्रकार मुक्त-हस्त से दान देने पर राज्य भण्डार खाली हो जायेगा। यथा तथा प्रजाः सर्वाः प्रपीड्य विभवश्चिरम्। मेलितः किं मुधेदानीं व्ययतेऽर्थिप्रदानतः॥ अर्थात् - हे राजन्! येन-केन प्रकारेण बहुत काल तक प्रजा का उत्पीडन करके जो आपने कोश को समृद्ध किया है, वह याचकों को दान देकर क्यों बरबाद कर रहे हैं? मन्त्रियों की बात राजा के समझ में आई और राजा ने उत्तर दिया - 'जो पण्डित विशिष्ट श्लोक रचना के द्वारा मेरा मनोरंजन करेगा, उसी को मैं दान दूंगा, अन्य किसी को नहीं।' राजा के इस निर्णय के पश्चात् अनेक विद्वान् कवियों ने श्रेष्ठ काव्यों की रचना कर राजा को प्रसन्न करना चाहा, पर राजा प्रसन्न नहीं हुआ। इस प्रकार दान-प्रथा बन्द होने पर किसी कवि ने प्रातः काल के समय राजा को जाकर यह पद्य सुनाया : उत्तिष्ठ नृपशार्दूल! मुखं प्रक्षालयस्व टः। यदा भाषयते (?) कुर्क-स्तदा रात्रिर्विभावरी॥ अर्थात् - हे नृपशार्दूल! टः हो चुका है अतः दन्तधावन स्नानादि करें। जब कुर्क बोलता है तब रात्रि विलय हो जाती है। यह सुनकर राजा बोला - मुखादि का प्रक्षालन करो, इसमें ट: अक्षर निरर्थक प्रतीत होता है । कवि ने कहा - यहाँ कुर्क शब्द का जो ट विद्यमान है, अतः यह निरर्थक नहीं है। इस प्रकार शब्द-लक्षणा से राजा को उसने प्रसन्न किया और विपुल दान प्राप्त किया। 62 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. बिना विचारे कार्य करना. वृद्धपुर नगर में मुकुन्द नाम का ब्राह्मण रहता था। उसके कृष्ण नाम का पुत्र था। एक दिन मुकुन्द ने देखा कि एक सूअर अपनी गुफा में जाकर अपनी दाढ़ों से भूमि को खोदता था। उस खोदी हुई रेत में उसे सिक्का नजर आया। मुकुन्द ने उसे ले लिया। दूसरे दिन भी उसे सिक्का मिला। इस प्रकार लगातार ७ दिनों तक उसे मुद्राएँ प्राप्त होती रहीं। प्रतिदिन का यह दृश्य उसका पुत्र कृष्ण भी देखता था। ___ किसी दिन किसी काम से कृष्ण के पिता मुकुन्द के गाँव चले जाने पर कृष्ण ने सोचा - 'सूअर प्रतिदिन भूमि को खोदता है, उसमें से मुद्राएँ प्राप्त होती है, तो निश्चित ही यहाँ कुछ धन होना चाहिए। अतः उस जमीन को खोदने पर मुझे बहुत धन प्राप्त होगा, तो अपने इस टूटे-फुटे झोपडे के स्थान पर नया आरामदायक मकान बनवा लूँगा।' ऐसा सोचकर उसने सूअर के उस स्थान को खोद डाला। सूअर ने झपटा मारा और उसने उस सूअर की हत्या कर दी। गुफा को बहुत ढूंढने पर भी उसे कुछ नहीं मिला। कृष्ण जिस समय यह अकरणीय कार्य कर रहा था, उसी समय उसका पिता मुकुन्द वहाँ आ गया और पूछा - तुम क्या कर रहे हो? पुत्र ने कहा - धन के लिए प्रयत्न कर रहा हूँ। पिता ने कहा - मूर्ख! तुमने व्यर्थ ही इस सूअर की हत्या कर दी। सुकरों के रहने के अनेक स्थान/गुफाएँ होती हैं। कौन जानता है कि किस गुफा में वह रहता है, किस गुफा से वह निकलता है? तुमने व्यर्थ ही उसको मारकर आते हुए धन पर लात मार दी। माया मिली न राम! इस अकृत्य से वह पुत्र दुःखी हुआ। पिता बोला - जो होना होता है, वही होता है। कहा है:यस्य यादृग्स्वभावः स्यात्, जायते सोऽन्यथा नहि। वक्रं पुच्छं पुनः केन, सरलीक्रियते क्वचित्? शुभशीलशतक 63 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् - जिसका जैसा स्वभाव होता है, वह बदल नहीं सकता। किसी ने कुत्ते की पुछ को सीधी की है? बिना विचारे जो कार्य करता है, वह अनर्थकारी होता है। कहा है :सहसा विदधीत न क्रिया-मविवेकः परमापदां पदम्। वृणुते हि विमृश्यकारिणं, गुणलब्धाः स्वयमेव सम्पदः॥ अर्थात् - बिना विचारे कोई कार्य सहसा नहीं करना चाहिए क्योंकि अविवेक आपदाओं का स्थान है। सोच-विचार कर कार्य करने वाला गुण और सम्पदा को प्राप्त करता है। बिना विचारे कार्य करने वाले वे दोनों पिता-पुत्र आजीवन दुःखी रहे। ५२. आचार ही कुल का द्योतक है. किसी नगर में मदन नाम का ब्राह्मण रहता था। उसके गौरी नाम की पत्नी थी। उनके श्रीधर नाम का पुत्र था। युवावस्था में आने पर वह विद्या ग्रहण करने के लिए दूसरे देशों में गया। श्रीपुर में रहने वाले गदाधर नाम के विद्वान् के पास रहकर श्रीधर ने १४ विद्याओं का अध्ययन किया। उसको गुणवान और विद्वान् समझ कर गदाधर पण्डित ने अपनी लड़की का विवाह उसके साथ कर दिया। दहेज में बहुत धन भी दिया। कुछ समय बाद बहुत धन और अपनी पत्नी के साथ वह श्रीधर अपने पिता के पास बड़े महोत्सव के साथ पहुंचा। कुछ समय के पश्चात् श्रीधर के पुत्र हुआ। जन्मोत्सव मनाया और वर्धमान नाम रखा। बराबरी के लड़कों के साथ वह वर्धमान खेलने लगा। एक दिन उनके घर के आँगन में राज-पुत्र और वणिक्-पुत्र आदि भी क्रीड़ा करने लगे। वणिक्-पुत्र धूली का बाजार बनाकर सामान बेचने लगा। ब्राह्मण-पुत्र अपनी कल्पनाओं के आधार पर मरी हुई भैंस को खेंचने लगा। इस प्रकार उन्हें अनेक प्रकार की क्रीड़ा करते हुए देखकर वह मदन सोचने लगा - 'यह ब्राह्मण-पुत्र वर्धमान इस प्रकार की क्रीड़ा क्यों कर रहा है?' आश्चर्यचकित होकर मदन ने श्रीधर को पूछा - क्या तुम्हारी पत्नी हारजन की लड़की है? यह जानकारी लेकर मुझे बताना। शुभशीलशतक 64 For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैंने मदन ने एकान्त में अपनी पत्नी को पूछा - तुमने मेरे साथ विवाह किया, पुत्र भी हुआ, तुम्हारे साथ मैंने अनेक प्रकार के भोग भोगे। अब तुम सत्य बताओ कि तुम किसकी पुत्री हो? । उसने कहा - मैं पूर्व में चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुई थी। मैं जब ५ वर्ष की थी तो मेरे माता-पिता कुटुम्ब के साथ प्रदेश चले गये। वहाँ मेरे माता-पिता की मृत्यु हो गई। मैं अकेली रह गई। बहुत दु:खी हुई और किसी देवकुल में जाकर रहने लगी। एक रोज गदाधर ब्राह्मण इस देवकुल में आए, मुझे देखा और पूछातुम कौन हो? मैंने कहा - मैं ब्राह्मण की लड़की हूँ। मेरे माता-पिता मर गये है, मेरा कोई आसरा नहीं है। यह सुनकर सन्तानरहित गदाधर ब्राह्मण मुझे अपने घर ले आए। पुत्री के समान मेरा लालन-पालन किया। उस गदाधर के तुम प्रिय शिष्य होने के कारण उन्होंने तुम्हारे साथ मेरा विवाह कर दिया। यह है मेरी कहानी। दूसरे दिन श्रीधर ने अपने पिता मदन को पत्नी के साथ हुई सारी बातचीत सुनाई। दोनों ने आपस में विचार-विमर्श किया। भेद न खुल जाए इसलिए धर्म शास्त्रों/पुराणों का आश्रय लिया और निर्णय किया - पहले भी तो कई चाण्डाल ब्राह्मण हुए हैं। कहा है : कैवर्तीगर्भसंभूतो, व्यासो नाम महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम्॥ अर्थात् - पूर्व में भी कैवट की लड़की से उत्पन्न व्यास नाम के महान् मुनि हुए हैं, किन्तु वे अपने तप के बल से ब्राह्मण कहलाये, अतः जन्मजात जाति का मानना व्यर्थ है। शशकी गर्भसम्भूतो, ऋष्यशृङ्गो महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माज्जातिरकारणम्॥ शुभशीलशतक 65 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् - भूतकाल में भी शशकी के गर्भ से उत्पन्न ऋष्यशृङ्ग नाम के महामुनि हुए हैं, किन्तु वे अपने तप के बल से ब्राह्मण कहलाये, अत: जन्मजात जाति का मानना व्यर्थ है। मण्डूकीगर्भसम्भूतो, माण्डव्यश्च महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माज्जातिरकारणम्॥ अर्थात् - पूर्व में भी मेंढ़की के गर्भ से उत्पन्न माण्डव्य नाम के महामुनि हुए हैं, किन्तु वे अपने तप के बल से ब्राह्मण कहलाये, अतः जन्मजात जाति का मानना व्यर्थ है। उर्वशीगर्भसम्भूतो वशिष्ठश्च महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जात-स्तस्माजातिरकारणम्॥ अर्थात् - भूतकाल में भी उर्वशी देवांगना के गर्भ से वशिष्ठ नाम के महामुनि हुए हैं, किन्तु वे अपने तप के बल से ब्राह्मण कहलाये, अतः जन्मजात जाति का मानना व्यर्थ है। अत: आचार ही प्रधान है, कुल या जाति नहीं। कहा भी है:आचारः कुलमाख्याति, देशमाख्याति भाषितम्। सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति, वपुराख्याति भोजनम्॥ अर्थात् - आचार-व्यवहार ही कुल को प्रकट करता है, बोली ही देश को प्रकट करती है, संभ्रम ही स्नेह को प्रकट करता है और शरीर सौष्ठव ही भोजन को प्रकट करता है। अत: उन दोनों ने यह निर्णय लिया कि इस सम्बन्ध को किसी के सामने प्रकट नहीं किया जाए। ५३. पद, देश और काल के अनुसार ही उपचार. जो जिस प्रकार के मानस/व्याधि वाला होता है, उसको उसी प्रकार का उपदेश या औषधी देना चाहिए। शुभशीलशतक 66 For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्मीपुर में चन्द्र नाम का राजा राज्य करता था, वह दयावान था। उसके यहाँ ईंधन लाने वाला एक कर्मचारी/नौकर था। एक दिन राजा ने देखा कि उस नौकर की एक आँख में फूला पड़ा हुआ है। राजा ने करुणा उत्पन्न होने से अपने ५०० वैद्यों के आगे कहा - इस धन-रहित नौकर के नेत्रों का फूला आप निकाल दें। उनमें से एक वैद्य ने जीर्ण-शीर्ण पुरानी कुटिया के तीक्ष्ण और पुराने तृणों को मँगवाकर उनको जलाया, उसकी भस्म बनाई और उस गरीब नौकर की आँखों में उस भस्म का अंजन लगाया। दो-तीन बार अंजन करने पर उसकी आँखों का फूला समाप्त हो गया। यह देखकर राजा हृदय में प्रसन्न हुआ और परीक्षण हेतु अपने नेत्रों में नकली फूला दिखा कर वैद्य से कहा - मेरे आँखों में फूला पड़ गया है, इसको दूर करें। वैद्य ने स्वीकार किया और मोती आदि श्रेष्ठ जाति के रत्नों की भस्म बनाकर राजा को दी और कहा - इसको आँखों में लगाने से यह फूला दूर हो जायेगा। यह देखकर राजा ने कहा - दीन-हीन गरीब का तो तृण भस्म से ही फूला दूर हो गया और मेरा फूला दूर करने के लिए मँहगें रत्नों की औषध का प्रयोग क्यों? हे वैद्य! इस गरीब के फूले को दूर करने में तो आपने दूसरी औषध का प्रयोग किया था और मेरे लिए आप बहुमूल्य औषध का प्रयोग कर रहे हैं। वैद्य ने उत्तर दिया - राजन् ! जो जैसा होता है, उसके लिए उसी प्रकार का उपचार करना पड़ता है। गरीब का उपचार कोडियों में होता है और बड़ों का उपचार उनके अनुरूप महंगी औषधियों से करना पड़ता है। नहीं तो बड़ा आदमी उस औषध पर विश्वास भी नहीं करेगा। राजा ने पूर्ववत् अपने नेत्र दिखाते हुए कहा - वैद्य आपने ठीक किया। आप देश-काल को ध्यान में रखकर उचित व्यवहार करने वाले हो। राजा ने उस वैद्य को अलंकार आदि प्रदान कर सम्मानित भी किया। शुभशीलशतक 67 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४. नुस्खा लिखना ही क्या उपचार है? वीरपुर नगर में भूपड़ नाम का राजा राज्य करता था। उसके राज्य में ५०० वैद्य थे। मणक नाम का एक व्यक्ति राजा का मनोरंजन करता रहता था। समस्त वैद्यों को अपनी-अपनी विद्या का घमण्ड था। उस घमण्ड को दूर करने के लिए वह मणक सोच-विचार कर एक वैद्य के समीप गया और भेंट में नारियल और कुछ रुपये रख कर कहा - मेरे सिर में भयंकर दर्द है, इसको तत्काल ही दूर कीजिए। वैद्य ने तत्क्षण ही नुस्खा लिख कर दे दिया। इस प्रकार गुप्त रूप से समस्त वैद्यों के घर जाकर, नारियल आदि भेंट कर, अपनी शिरोवेदना प्रकट कर सबसे नुस्खे लिखवाता रहा। सबने अलग-अलग औषधोपचार लिखा। मणक ने समस्त नुस्खों की दवा एक कागज पर लिखी और राजा के आगे उस कागज को रखकर कहा - महाराजा ! ये वैद्य लोग कुछ नहीं जानते, घमण्ड में चूर रहते हैं, बीमार का अच्छी तरह परीक्षण भी नहीं करते हैं। राजा ने यह सुनकर कहा - हे वैद्य लोगों! क्या आप लोग रोग का निदान भी अच्छी तरह नहीं कर पाते हैं? वैद्यों ने उत्तर दिया - हम लोग सम्यक् प्रकार से बीमारी का निदान करते हैं और उसके पश्चात् ही उपचार करते हैं। तब मणक ने वैद्यों द्वारा पृथक्-पृथक् लिखित नुस्खे सामने रखे और राजा से कहा - हे राजन् ! ये वैद्य लोग मेरे जैसे अधिकार सम्पन्न व्यक्ति की बीमारी को पकड़ नहीं सके और रोग को जान नहीं सके तो ये लोग सामान्य गरीब आदमियों का क्या निदान/उपचार करेंगे? मैं मूर्ख हूँ, मैंने यह प्रयोग किया है अत: आप मुझे दण्ड दें। इन लोगों ने रुपये/फीस लेकर भी मेरे सिरदर्द को नहीं जान सके। राजा ने उसी समय यह आदेश दिया - आप वैद्य लोगों ने मणक से 68 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितने भी रुपये लिये हैं, उसके १० गुणा रुपया प्रदान करो अन्यथा बन्दीखाने की हवा खाओ। राजा का हुक्म और बन्दीखाने के भय से समस्त वैद्यों ने मणक से जो कुछ लिया था उसका १० गुणा देकर अपना पिण्ड छुड़ाया। ५५. अयोग्य का राजा बनने पर प्रजा का दमन. __चन्द्रपुर नगर से धन नाम का सेठ अपने नौकर के साथ परदेश की ओर चला। बीच में एक झाड़ के नीचे सेठ आराम करने लगा और उसका नौकर उस सेठ की पग-चम्पी करने लगा। बातें करते हुए सेवक ने कहा - सेठजी ! संयोग से यदि आप राजा बन जाएँ तो राज्य का पालन कैसे करेंगे? ___ सेठ ने कहा - मैं तुझे मंत्री बनाऊँगा और सारी प्रजा को सुखसम्पन्न बनाऊँगा। मजाकिया लहजे में सेठ ने भी नौकर से पूछा - कदाचित् कर्म-योग से यदि तुम राजा बन जाओ तो राज्य का पालन कैसे करोगे? नौकर ने कहा - बिल्ली के भाग से यदि छींका टूट जाए और मैं राजा बन जाऊँ तो समस्त प्रजाजनों को दुःख के सागर में डूबो दूंगा। क्रमशः सेठ और नौकर आगे चले। आकिस्मात् ऐसा संयोग बना कि लक्ष्मीपुर का अपुत्रीय राजा मर गया था। मन्त्रियों आदि ने हाथी को अधिष्ठित कर नगर और नगर के बाहर घुमाया और भाग्य से उस अधिष्ठित हाथी ने सेठ के नौकर चम्पक के गले में माला डाल दी। वह नौकर चम्पक राजा बन गया। उसने सोचा - यह सेठ सारी जिन्दगी मेरा मालिक रहा है और मैं इसका नौकर । यदि यह भेद खुल गया तो लोग मुझे धिक्कार की नजरों से देखेंगे, अतः मंत्री को भेजकर सेठ को बुलाया और लल्लोचप्पो करके उसको मंत्रियों में मुख्य बना दिया। __उस दुष्ट चम्पक राजा ने राजा बनने के साथ ही अपनी क्षुद्र प्रवृत्ति के कारण जनता पर अनेक प्रकार के कर लगाये, निरपराधी सजन लोगों को भी शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारागार में ढूंस दिया, कइयों को लोहे की बेड़ियों में जकड़ दिया और कई भले आदमियों की उसने कदर नहीं की। उसके दुर्व्यवहार से प्रजा अत्यन्त दुःखी हो गई। इधर दीपावली पर्व निकट आ गया। बन्दीखाने में रहे हुए लोगों ने उस पूर्व नौकर के सेठ मंत्री को कहा - वर्ष भर का श्रेष्ठ पर्व दीपावली आ रही है, यदि ३-४ दिनों के लिए हमें बन्दीखाने से छोड़ दिया जाए, तो हम लोग अपने स्वजन-माता-पिता, भाई आदि के साथ मिल कर पर्व को मनावें और आनन्दपूर्वक सुख को भोगे। उस मंत्री सेठ ने राजा को विशेष आग्रह एवं प्रेम से समझाकर सब लोगों को बन्दीखाने से छुड़वा दिया। उन लोगों भी अपने घर जाकर स्वजनों से मिलकर उनके साथ दीपावली पर बनी हुई मिठाईयाँ आदि खाकर सुख का अनुभव किया। इसी रात्रि में उस राज्य के अधिष्ठित देव ने प्रकट हो कर राजा को कशाघात/चाबूक से मारने लगा और कहा - 'मैंने तुम्हें इस राज्य में राजा के रूप में इसलिए स्थापित किया है कि तुम प्रजा को दुःख-पीड़ा प्रदान करो। तुम इन्हें कैसे सुखी कर रहे हो? यदि तुम इस जन-समूह को सुखी करोगे तो मैं ऐसे ही चाबूक से मारता रहूँगा।' देवाज्ञा प्राप्त कर राजा प्रजाजनों को पूर्व के समान ही दुःखी करने लगा। यह देखकर सेठ ने कहा - हे स्वामी ! इन निरपराध लोगों की पिटाई क्यों कर रहे हो? तब राजा ने रात्रि की घटना सुनाई और कहा - मैं क्या करूँ? "इतो व्याघ्र इतस्तटी" अर्थात् एक तरफ बघेरा है और एक तरफ नदी है। राजा के इस व्यवहार को देखकर भाग्यवादी असमर्थ लोग इस प्रकार कहने लगे - हमारे भाग्य ही खराब थे इसलिए भाग्य ने इस जैसे दुष्ट को, राजा बनाया और हमने स्वीकार किया, अत: किसको दोष दें। 70 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छली के साथ छल करना आवश्यक है. श्रीपुर नगर में चन्द्र नाम का राजा राज्य करता था । उसी नगर में धीर नाम का सेठ रहता था और उसकी पत्नी का नाम धारिणी सेठानी था, उनके मेघ नाम का पुत्र था । उसने धर्मशास्त्र और कर्मशास्त्रों का अध्ययन किया । पिता ने उसका विवाह भी कर दिया था । एक समय अपने पिता के समक्ष आकर वह पुत्र बोला- मैं धनोपार्जन के लिए विदेश जाना चाहता हूँ। कहा है ५६. विदेशे स्वस्य मनुजा: शक्तिं च प्रायो ऽर्जयन्ति चरित्रं प्राप्ताः, जानन्ति, अर्थात् - परदेश में गया हुआ मानव धन/ऐश्वर्य का उपार्जन करता है। खुद की शक्ति / सामर्थ्य का आकलन करता है । अन्य लोगों के चरित्र और स्वभाव को भी जान पाता है। - यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः, स पण्डितः, स श्रुतवान्गुणज्ञः । स एव वक्ता सच माननीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ॥ , वैभवम्। देहिनामपि ॥ अर्थात् जिसके पास धन होता है, वही मनुष्य कुलीन है, वही पण्डित है, वही ज्ञानवान है, वही गुणवान है, वही वक्ता है, वही माननीय है क्योंकि दुनिया के सारे गुण इस कांचन / धन में ही निवास करते हैं। पिता की इच्छा न होने पर भी उसने चन्दन की लकड़ी से अपने बैलगाड़ियों को भर लिया और प्रस्थान की तैयारी कर दी। उस समय उसके पिता ने अपने पुत्र को कहा - यदि तुम्हारा कुसुमपुर जाना हो तो सावधानी रखना क्योंकि वहाँ धूर्त बहुत रहते है, वे छल-प्रपंच के द्वारा तुम्हे ठग लेंगे । अत: तुम वहाँ जाने पर सबसे पहले मण्डविका दुकान लेना और चन्दन को सोने के हिसाब से टुकड़ों-टुकड़ों में बेचना । पुत्र ने पिता की बात स्वीकार की और वहाँ से प्रस्थान किया । क्रमशः प्रयाण करता हुआ कुसुमपुर से ५ कोस पहले ही अपना पड़ाव डाला। उसी समय ४ धूर्त उसके पास आये। उन धूर्तों ने जहाँ सार्थवाह का शुभशीलत For Personal & Private Use Only 71 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ाव था, वही चन्दन की लकड़ियाँ जलाकर सर्दी से बचने के लिए तपने लगे। इसी समय मेघ वहाँ आया। चन्दन को जलते देख कर उसने पूछा - आप लोग चन्दन को क्यों जला रहे हैं? धूर्तों ने कहा - हमारे शहर में चन्दन कणों के भाव बिकता है, अत: हम तुलंवा कर खरीद लेते हैं। मेघ ने मन में सोचा - मैंने तो चन्दन की कीमत सोने के भाव सुनी थी और इस समय यह लोग चन्दन की कीमत धान कण के हिसाब से बता रहे हैं। मुझे क्या करना चाहिए? ___ मेघ के उतरे हुए मुख को देख कर उन धूर्तों ने कहा - आपका मुख काला क्यों हो गया? उस सरल स्वभावी मेघ ने चलते समय पिता ने जो हिदायत/शिक्षा दी थी, वह सब उनके सामने कह डाली। तब उन धूर्तों ने कहा - यहाँ चन्दन बेचने के लिए कौन लाता है? यहाँ हम ही खरीददार हैं और हम ही बेचने वाले हैं। मेघ ने कहा - यदि आप चन्दन खरीदें तो मैं आपके साथ व्यापार कर सकता हूँ। धूर्तों ने कहा - हम चन्दन का क्या करें? हमारे घर भी बहुत चन्दन पड़ा हुआ है। यदि तुम चन्दन को इस नगर में बेचना चाहते तो बेचो, यहाँ के व्यापारी भी हमें ही देंगे। वह सरल हृदय मेघ उन धूर्तों के चक्कर में आ गया और अनाज के भाव से बेचना स्वीकार कर लिया, सारे समान का बट्टा लगा दिया। बट्टा लगाने के पश्चात् वह व्यापारी मेघ नगर में गया और वहाँ चन्दन को सोने के भाव में बिकता देख उसके चेहरे का पानी उतर गया। क्या करूँ? चन्दन तो मैं पहले ही बेच चुका। मेघ चिन्ताकुल होकर नगर में शुभशीलशतक 72 For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घूमता हुआ कामसेना नामक वेश्या के घर पर पहुँच गया और अपने मन की व्यथा उसके सामने प्रकट कर दी। वेश्या ने कहा- तुम यहाँ के नज़र नहीं आते हो, बाहर के लगते हो। यहाँ बहुत धूर्त रहते हैं और परदेसियों को छलते है । यदि तुम मेरे कथनानुसार कार्य करो और मेरी बुद्धि के अनुसार चलो तो तुम्हे सारा चन्दन वापस मिल सकता है। मेघ ने कहा - तुम जैसा कहोगी, वैसा ही करूँगा। वेश्या ने कहा - 'तुम वहाँ वापस जाओ। चन्दन को अपने अधीन करते हुए उन चन्दन के ग्राहकों को कहो कि पहले आप कण लाओ जिससे कि मैं उनके साथ वजन करके चन्दन दूंगा।' यह सुनकर वे धूर्त ज्वार के कण लावें तो तुम कहना – 'हम तो परदेसी हैं। सोने के भाव में चन्दन बिकता है, यह जानकर यहाँ आये हैं। आप लोगों ने कण कहकर इस चन्दन को ग्रहण करने का सौदा किया है तो मैं 'कण' शब्द से मोती के कण समझा। आप मोती के कण लाईये । ज्वार तो हमारे नगर में भी बहुत हैं।' इस प्रकार तुम्हारे कहने पर विवाद पैदा हो जायेगा और उसी समय राजकीय पुरुष तुम्हें और उन व्यापारियों को राजा के समक्ष ले जायेंगे। राजा न्यायप्रिय है। अतः तुम्हारे चन्दन को मोतियों के साथ तौलकर के वह तुम्हें देगा। वेश्या की कही हुई बातों को अंगीकार करके उन धूर्तों के साथ उसी प्रकार का झगड़ा किया, वाद-विवाद किया, हाथापाई हुई। राजपुरुष राजा के पास ले गये। राजा के द्वारा न्याय करने पर वह मेघ प्रसन्न हुआ और सोने के भाव में चन्दन को बेचकर करोड़पति बना। खुशी में उसने बहुत सा धन कामसेना वेश्या को देकर उसे प्रसन्न किया। वहाँ से मेघ पुनः अपने नगर में आया। पिता से मिला, पिता भी बहुत प्रसन्न हुए। सात क्षेत्रों में अपनी लक्ष्मी का उपयोग करता रहा। अपने पिता का स्वर्गवास होने पर वह घर का मालिक बना। दान देकर धन का सदुपयोग किया। शत्रुञ्जय आदि महातीर्थों की यात्रा कर मुक्तिगमन योग्य पुण्य का उपार्जन किया। शुभशीलशतक 73 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस मेघ के सोम नामक लड़का हुआ। जन्मोत्सव मनाया, पढ़ा लिखा कर होशियार किया और उसका विवाह भी किया। मेघ सेठ ने वैराग्य उत्पन्न होने के कारण पुत्र को घर का भार सौंप कर दीक्षा ग्रहण की और कर्मक्षय कर मुक्ति में गया। ५७. भवितव्यता के आगे किसी का जोर नहीं है. एक समय अनिरुद्ध राजा ने गुरु से निवेदन किया - भगवन्! पाण्डव विज्ञ थे, उन्होंने युद्ध क्यों किया? जबकि उनके समय में ही भगवान् नेमिनाथ भी विद्यमान थे। ____ गुरु ने कहा - होनहार/भवितव्यता के आगे किसी का वश नहीं चलता है। अनिरुद्ध ने कहा - यदि सावधानी रखकर चला जाए, तो कर्म या भवितव्यता क्या करेगी? गुरु ने कहा - भविष्य में तुम्हें ये कार्य नहीं करने चाहिए? यदि करोगे तो वे तुम्हारे लिए अनर्थकारी होंगे। ___ अनिरुद्ध बोला - भगवन् स्पष्ट करिये, कौन से कार्य नहीं करने चाहिए? गुरु ने कहा - तुम्हें चारों दिशाओं में नहीं जाना चाहिए। यदि कदाचित् ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए तो तुम पूर्व दिशा की ओर मत जाना। यदि पूर्व दिशा में भी जाना हो जाए तो शिकार मत करना। यदि शिकार भी करना पड़े तो सूअर का मत करना । यदि सूअर का शिकार भी करना पड़े तो सूकरी का शिकार मत करना। यदि सूकरी का शिकार भी करो तो सफेद रंग वाली का मत करना। यदि सफेद सूकरी का शिकार भी करो तो उसके शव को घर मत ले जाना। यदि तुम उसको घर भी ले जाओ तो उसका माँस मत खाना। संयोग से उस सूकरी का माँस भी खाना पड़े तो उस पर पानी मत पीना । यदि पानी की भी अत्यधिक अभिलाषा हो जाए और पीना पड़े तो उस पर ताम्बूल/पान मत खाना। शुभशीलशतक 74 For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिरुद्ध ने उक्त बातें स्वीकार की और नियम ग्रहण करके अपने घर आ गया। समय बीतने पर वह अपने सब नियमों को भूल गया। अंगीकार किए हुए नियमों के विरुद्ध सारे कृत्य कर डाले। फलस्वरूप उसको कुष्ठ रोग हो गया। कुष्ठि के रूप में उसको देखकर गुरु ने पुनः कहा - कर्म से कोई छूटता नहीं है, इसके आगे किसी का वश नहीं चालता है। यह सुनकर अनिरुद्ध राजा जागृत हुआ और विशेष रूप से प्रतिदिन प्रशस्त पुण्योत्पादक सत्कार्य करने लगा और क्रमशः अपने कर्मों का नाश कर सका। कहा है : कत्थई जीवो बलिओ, कत्थइ कम्माई हुंति बलिआई। जीवस्स य कम्मस्स य, पुव्वनिबद्धाई वयराई॥ अर्थात् - कहीं जीव बलवान होता है और कही कर्म बलवान होते हैं। जीव और कर्म को पूर्व में बंधे हुए वैरादिभाव भोगने ही पड़ते हैं। अतः जगत् के सब जीव कर्माधीन होकर पुण्य और पाप के योग से इस संसार में सुख और दुःख प्राप्त करते हैं। ५८. अतिथि-सत्कार का फल. वीरपुर नगर में धीर नाम का कौटुम्बिक रहता था। उसकी पत्नी का नाम मदना था। उनके सात पुत्र थे। जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार थे - चन्द्र, भीम, सोम, देवदत्त, धनदत्त, मदन और सान्तल । एक समय सातों ही पुत्र अपने खेतों में हल चला रहे थे। धीर ने अपनी सातों ही पुत्र-वधुओं को खेत की सफाई करने के लिए भेज दिया था, वे सातों ही खेत की सफाई कर रही थी। वर्षों होने लगी, सातों ही बड़ वृक्ष के नीचे बैठकर आपस में बातें करने लगी। संयोग से उसी समय धीर कौटुम्बिक खेत में आया और बातों में लगी हुई सातों बहुओं की बातें सुनने लगा। शुभशीलशतक 75 For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहली बहू ने कहा- मुझे तो सब से बढ़िया खीर लगती है । दूसरी बहू ने कहा- मुझे तो घी से पूर्ण खिचड़ी अच्छी लगती है। तीसरी बहू ने कहा- मुझे तो साली धान्य, दाल और घी अच्छा लगता है । चौथी बहू ने कहा- मुझे तो घी के साथ मूँग - चावल अच्छे लगते हैं । पाँचवी बहू ने कहा- मुझे तो मिठाई अच्छी लगती है । छठी बहू ने कहा -. मुझे तो लड्डू अच्छे लगते है। सातवीं बहू जो सबसे छोटी थी, उसने कहा घर में जो कुछ भी हो, उसे याचक को देने के बाद भोजन करना अच्छा लगता है । जिस प्रकार का घर में धान्य हो, उसी से निर्वाह करना अच्छा है। दूसरे के यहाँ देखकर मन में उचाट होना अच्छा नहीं लगता है, क्योंकि संतोष ही मेरा धर्म है । ये सास-ससुर हमारे हैं, हमारे ऊपर कृपा है तथापि हमारा कर्म ही हमारे लिए प्रधान है। I सातों बहुओं की बात-चीत धीर कौटुम्बिक ने सुनी और घर आकर अपनी पत्नी को कहा - छहों बहुओं को क्रमशः खीर, खिचड़ी, शालीदाल और घी, मूँग-चावल और घी, मिठाई और लड्डू देना, किन्तु सातवीं बहू को खाने में बचा हुआ भोजन देना । धीर की पत्नी ऐसा ही करने लगी, इससे सातवीं बहू बहुत दुःखी हो गई और अपने पति सांतल से कहा- मेरी सासू खाने में मुझे बचा खुचा अन्न देती है, इससे मैं मर जाऊँगी । 76 यह सुनकर उसके पति सांतल ने कहा - हे प्रिये ! तुम्हें दु :खी होने की आवश्यकता नहीं है। मैं विदेश जाकर धन कमा कर लाऊँगा और तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा । उसके बाद वह सांतल अपनी माता के पास गया और कहा- मैं धन - शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाने के लिए परदेश जाना चाहता हूँ। मैं बहुत वर्षों बाद जब धन कमा कर लौटूंगा तब तुम मुझे पहचान भी सकोगी या नहीं । उसकी माता ने उत्तर दिया जिसने नौ महिने तक अपने पेट में धारण किया हो, क्या उस बच्चे को उसकी माँ भूल सकती है ? इसके बाद सांतल रात के समय अपनी पत्नी के पास गया। उससे कहा मैं बाहर परदेश जा रहा हूँ । यह जो तुमने कांचली/ब्लाऊज पहन रखा है, इसको उतारना नहीं । - - घरवालों से विदाई लेकर सांतल दूसरे प्रदेश की ओर चला । क्रमशः चलता हुआ सांतल सूर्यपुर नगर के निकट पहुँचा और विश्राम करने लगा। इधर, इस सूर्यपुर का अपुत्रिय राजा मौत की गोद में चला गया। वह पुत्ररहित था, इसलिए गद्दी पर बिठाने के लिए राज्याधिकारियों ने पंचदिव्यों को अभिमंत्रित कर हाथी को नगर में घुमाया और नगर के बाहर उस अभिमंत्रित हाथी ने सांतल के गले में फूलों की माला डाल दी। वह सांतल राजा बन गया। उसने अपना नाम सहस्रमल्ल घोषित किया। राज्यपालन करते हुए उसने १४ राजकुमारियों के साथ विवाह किया। राग-रंग में अपने पूर्व माता-पिता, भाईयों और पत्नी को पूर्ण रूप से भूल गया। कहा भी है : सर्वे, राज्ये जा नृणां मातापित्रादिसोदराः । न चित्ते स्मृतिमायान्ति यतोऽन्धं कुरुते रमा ॥ 1 अर्थात् - राज्य मिलने पर सब लोग अपने माता-पिता, भाईयों आदि को कभी याद भी नहीं करता, क्योंकि लक्ष्मी उसे अंधा बना देती है I संयोग से नगर में वर्षा बहुत कम हुई। लोग भूखे मरने लगे, इसलिए मंत्री ने राजाज्ञा प्राप्त कर तालाब खुदवाना प्रारम्भ किया । गरीबी से त्रस्त लोगों को काम पर लगाया और मजदूरी में आधा सेर अनाज, घी, और एक द्रमक, 'एक प्रकार का छोटा सिक्का' मिलता था । एक बार तालाब की खुदाई का कैसा काम चल रहा है, यह देखने शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 77 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए वह राजा वहाँ गया। तालाब की खुदाई करने वालों को देखते हुए राजा ने देखा कि इन मजदूरों में उसका पुराना सारा परिवार लगा हुआ है। सोचने लगा, क्या से सब मेरे ही कुटुम्ब वाले हैं? क्या खाने-पीने के अभाव में ये सब लोग यहाँ मजदूरी करने आये हैं? अहो! पूर्व में जैसे कर्म किये हों, वे भोगने ही पड़ते हैं, उससे छुटकारा नहीं मिल सकता। खिन्न मनस्क होकर राजा अपने महल में आ गया। दूसरे दिन तालाब के काम की निगरानी करने वाले कर्मचारी को यह आदेश दिया कि खुदाई का काम करने वाले इस परिवार के लोगों से आधा काम ही लेना और छुट्टी कर देना। धीमे-धीमे उन लोगों से खुदाई का काम भी बंद करवा दिया। कुटुम्ब का मुखिया धीर सोचने लगा - राजा ऐसा क्यों कर रहा है? हमसे काम भी नहीं लेता और मजदूरी भी पूरी देता है, किन्तु वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा। एक दिन राजा ने धीर को कहा- छाछ लेने के लिए बारी-बारी से अपनी बहुओं को मेरे यहाँ भेज देना। वह कर्म का मारा धीर भी राजा की कृपा मान कर छाछ लेने के लिए अपनी बहुओं को भेजने लगा। क्रमशः छहों बहुए छाछ लेने के लिए राजघर में जाती। राजा के हुक्म से उन्हें छाछ मिल जाती थी। जब सातवीं छोटी बहू छाछ लेने के लिए राजघर में जाती थी तो उसे दूध अथवा दही मिलता था। जब वह छोटी बहू दूध, दही लेकर अपने डेरे पर जाती तो उसकी छहों जेठानियाँ कहने लगीं - यह कुशीला/दुष्ट चरित्रवाली मालूम होती है, न जाने यह किस-किसका घर मांडती फिरेगी? देवर सांतल कहाँ है? जीवित है या मर गया, पता नहीं? एक रोज जब छोटी बहू छाछ लेने के लिए राजकुल में पहुँची, उस समय राजा सहस्रमल्ल खुद उसके सामने पहुँचा और उसने कहा - हे स्त्री ! तुम यह पुरानी मैली कुचेली कांचली उतार फेंको और नई कांचली धारण करो। 78 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह बोली - हे राजन् ! तुम जनता का पालन करते हो। तुम्हारे मुख से यह वाणी शोभा नहीं देती। जो तपस्वी होते हैं, दुर्बल होते हैं, आसरा रहित होते हैं और जो प्रोषितभर्तृका (बदचलन औरत) होती है, उनको भी राजा अपने धर्म मार्ग पर स्थापित कर देता है। यदि बाड़ भी खेत को खाने लग जाए तो उसका रक्षण कौन करेगा? मैं अपने पूर्व पति जिसके साथ मैंने सात फेरे लिए हैं, उसको छोड़ कर किसी को भी पति के रूप में स्वीकार नहीं करूँगी। यदि तुम मेरे साथ बलात्कार करोगे तो मैं मौत को गले लगा लूँगी और उस हत्या का आरोप आप पर लगेगा। हे राजन् ! आप प्रजापालक हैं, आपको इस प्रकार नहीं करना चाहिए और इस प्रकार की बोली भी नहीं बोलनी चाहिए। राजा ने उसको राजकुल में ही रोक लिया। इधर राजा ने अपने कर्मचारियों को भेज कर धीर कौटुम्बिक को सपरिवार वहाँ बुलवाया। जब कर्मचारियों ने जाकर धीर कौटुम्बिक को चलने के लिए कहा, तब वह धीर अपने लड़कों से बोला - न जाने राजा हमारे साथ क्या सलूक करना चाहता है? पहले तो इस दुष्ट राजा ने हमारी - छोटी बहू को कैद कर लिया, अब हम सब को बुला रहा है, हमने राजा का कुछ बिगाड़ा तो है नहीं, फिर राजा हमारे पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ा है? कहावतों के अनुसार राजा दुष्ट ही होता है। कहा भी है वेश्याऽक्का नृपतिश्चौरो, नीरमार्जारमर्कटाः। जातवेदाः कलादाश्च, न विश्वास्या इमे वचित्॥ अर्थात् - वेश्या, कुट्टिनी, राजा, चोर, जल, बिल्ली, बंदर, आग और कलाल (शराब बनाने वाला) इनका विश्वास कभी नहीं करना चाहिए। डरते हुए धीर कौटुम्बिक अपने परिवार के साथ राजा के सामने हाजिर हुआ। ____ राजा ने कहा - तुम लोग तालाब की खुदाई अच्छी तरह नहीं करते हो, इसलिए मैं तुम सबको जेल में बंद करवा दूंगा। शुभशीलशतक 79 For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीर कौटुम्बिक ने कहा - हे राजन् ! हम लोगों ने आपका कोई गुनाह/अपराध नहीं किया। फिर भी आप मालिक हैं, जैसा चाहें, वैसा करें। राजा ने उन सब को अपने राजघर में ठहरने का स्थान दे दिया। राजा जब स्वयं स्नान करने बैठा तो उसके हाथ के चिह्नों, लक्षणों को देखकर धीर सोचने लगा - ये लक्षण तो मेरे लड़के के हाथ में थे। क्या मेरा लड़का ही राजा है? इधर राजा ने स्नान किया, सुन्दर-वस्त्र, अलंकार आदि धारण किये और उसके पश्चात् वहाँ आकर माता-पिता, बड़े भाईयों और बड़ी भोजाईयों के चरणों में ढोक देने लगा, तत्पश्चात् वह राजा अपने पिता से बोला - हे पिताश्री ! आप लोग तो वीरपुर में आनन्दपूर्वक रह रहे थे। आपके घर में किसी प्रकार की कमी नहीं थी, फिर भी मजदूरी करने के लिए आप यहाँ क्यों आए? धीर कौटुम्बिक बोला - पुत्र ! वीरपुर में अकाल पर अकाल पड़ता रहा, हमारा सारा धन्धा चौपट हो गया। घर का काम चलना मुश्किल हो गया तो हम लोग गाँव-गाँव घूमते हुए, मजदूरी करते हुए, पेट पालते हुए यहाँ आए। राजा ने अपनी पूर्व पत्नी को पट्टरानी का दर्जा प्रदान किया और उसे कहा - हे प्रिये ! दानादि देकर अपने मन के मनोरथों को पूर्ण करो। पुण्य का उर्पाजन करो। अपने घर में लक्ष्मी की कोई कमी नहीं है। अपनी माता से वह बोला - हे माँ ! तुमने पहले कहा था कि जिसको पेट में पाला है, वह बहुत समय के बाद भी मिलता है तो उसे कैसे भूल सकती है? तुम भूल गई या नहीं यह जानने के लिए मैंने यह नाटक रचा था। इसके पश्चात् अपने छहों बड़े भाईयों को पाँच-पाँच गाँव देकर जागीरदार बना दिया। जागीरदार बनने पर भी बड़े भाई हैं, इस घमण्ड से राजा के सामने लघुता से पेश नहीं आते थे। कहा गया है - प्राय: धनवानों में विनय का अभाव होता है। कहा है शुभशीलशतक 80 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्ते द्वेषो जडे प्रीति - रुचितं गुरुलङ्घनम्। मुखे कटुकतात्यन्तं, धनिनां वरिणामिव॥ अर्थात् - जिस प्रकार बुखार से पीड़ित व्यक्ति को भोजन बुरा लगता है, जल खारा लगता है, बड़ों की आज्ञा अनुचित लगती है, मुख का स्वाद कड़वा हो जाता है उसी प्रकार धनवान लोग भक्तों/सज्जनों से द्वेष करते हैं, मूों से प्रीति करते हैं, बड़ों की अवहेलना करते हैं और मुख से अत्यन्त कड़वी बात करते हैं। उन छहों भाईयों का अन्यायपूर्ण व्यवहार होने के कारण गाँव के लोग दुःखी हो गये और अपने घर-बार, गाँव छोड़कर चले गये। छहों भाई वापिस दुःख में पड़ गये और स्वार्थवश लक्ष्मी के लिए छोटे भाई राजा की सेवा में लग गए। कहा जाता है- "क्षीणश्चन्द्रःसूर्यं सेवते"। अर्थात् चन्द्रमा की किरणें जब क्षीण हो जाती हैं तो वह सूर्य के आगोश में चला जाता है। राजा सज्जन प्रकृति का था, अतः भाईयों को भाई मानकर उनको धन प्रदान किया। एक दिन उस नगर में गुरु महाराज पधारे। धर्म प्रेमी होने के कारण वह राजा भी उनके पास धर्मदेशना सुनने के लिए गया। देशना के बाद राजा ने गुरु से धर्म का स्वरूप पूछा और यह भी पूछा कि पूर्वजन्म में मैंने क्या पुण्य किया था कि मैं राजा बना। गुरु ने कहा - पूर्व जन्म में तुम कमल नामक सेठ थे और तुम्हारी पत्नी का नाम कमला था। तुम दोनों ने गुरु महाराज के पास में धर्म सुनकर अतिथि संविभाग अर्थात् अपने भोज्य पदार्थों में से पूर्व में अतिथियों को भोजन करवाकर भोजन करने व्रत ग्रहण किया था। उस समय सम्यक्त्व और व्रत का पालन करने के कारण ही तुम इस जन्म में अपनी पत्नी के साथ राजा हुए हो। विशेषरूप से अतिथिसंविभाग व्रत/अतिथियों का आदर-सत्कार करते हुए शुद्ध धर्म का आराधन कर दोनों राजा और रानी पंचम देवलोक में गये और वहाँ से मनुष्य लोक में जन्म लेकर कर्मक्षय कर मुक्ति को प्राप्त करेंगे। शुभशीलशतक 81 For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९. मुनि का आत्मालोचन के साथ सत्य भाषण. किसी नगर में कोई मुनिराज भिक्षा/गौचरी के लिए किसी गृहस्थ के घर में गये। उपासक ने उन मुनिराज को नमस्कार कर पूछा - भगवन् ! आप त्रिगुप्तिगुप्त (मनोगुप्ति, वाग्गुप्ति, कायगुप्ति से सुरक्षित) हैं? मुनिराज ने कहा- मैं गुप्तियों से गुप्त नहीं हूँ। उपासक ने पूछा – यह कैसे? मुनि ने कहा - एक समय, मैं किसी के घर भिक्षा के लिए गया। उस समय उस गृह के मालकिन के वेणी दण्ड को देखकर मुझे अपनी पत्नी का स्मरण आ गया था। इसी कारण मैं मनोगुप्ति का रक्षण नहीं कर सका। पुन: एक दिन भिक्षा के लिए मैं किसी सेठ के घर गया था। उसने सन्मानपूर्वक मुझे भिक्षा में कदली-फल (केले) प्रदान किये। तत्पश्चात् किसी अन्य घर में भिक्षा के लिए गया उसने मुझे पूछा - उस सेठ ने आपको क्या दान में दिया? __ मैंने सहजभाव से कह दिया - उसने मुझे केले प्रदान किये। वह व्यक्ति उस सेठ का विरोधी और दुष्ट स्वभाव का था, इसलिए उसने राजा के यहाँ जाकर चुगली खाई। हे देव! आपके बगीचे में लगे हुए केले श्रीद सेठ के यहाँ चले जाते है। राजा ने कहा - इसकी जानकारी कैसे हो सकती है? चुगलखोर ने कहा - उस श्रीद सेठ ने वे केले मुनि को प्रदान किये हैं। ऐसा मैंने मुनिराज के मुख से सुना है। इस प्रकार के सर्वदा फल देने वाले केले आपके बगीचे के अतिरिक्त कहीं हो नहीं सकते। कानों के कच्चे राजा ने यह सुनकर उस श्रीद सेठ को दण्डित किया, इस कारण से मेरे में वाग्गुप्ति भी नहीं है । वाग्गुप्ति के अभाव के कारण ही वह सेठ व्यर्थ में ही दण्डित हुआ। 82 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक समय जंगल में थकावट के कारण मैं विश्राम करने लग गया था, उसी समय मुझे नींद आ गई। वहीं (उसी जंगल में) एक सार्थपति आकर ठहरा । रात्रि में उसने अपने साथियों से कहा - सुबह जल्दी ही यहाँ से चलेंगे, इसलिए खाद्य सामग्री तैयार कर लो। सार्थवाह की बात सुनकर सब लोग खाना बनाने में लग गये। एक बटोही ने अंधकार के कारण एक किनारे जहाँ आराम करते हुए मेरा सिर था, वही पत्थर रखकर चूल्हा बनाया, आग जलाई। उससे मेरा सिर जल गया, इसी कारण मेरे में कायगुप्ति भी नहीं है। इन तीनों गुप्तियों का रक्षण नहीं करने के कारण मैं भिक्षा के योग्य भी नहीं हूँ।। मुनि के मुख से इस प्रकार सत्यभाषण सुनकर सेठ ने हृदय में अत्यन्त प्रसन्नता अनुभव की और श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उनको अन्न दान दिया। मुनि के सत्य भाषण का प्रशंसा करने पर उस सेठ ने अनुत्तरविमानवासी देव का सुख अर्जन किया। मुनिराज भी अपनी आत्मनिन्दा करते हुए दीर्घ काल तक चारित्र का पालन करते हुए स्वर्गवासी हुए। ६०. झूठा कलंक देना भावि-जीवन के लिए खतरनाक है. नो चेव भासिअव्वं, अत्थिणा दुक्खकारणं। अलियं अभक्खाणं, पेसुन्नं मम्मवेहाई॥ अर्थात् - अर्थिजनों को दुःख के कारणभूत, झूठ, दोषारोपण, चुगली, पीठ पीछे निन्दा और मर्मभेदन वाक्य कभी भी नहीं बोलने चाहिए, क्योंकि ये दु:ख के कारण हैं। संतो वि हु वत्तव्वो, परस्स दोसो न होई विबुहाणं। किं पुण अविजमाणो, पयडो छन्नो अ लोअस्स। अर्थात् - बुद्धिमानों को दूसरे में दोष होने पर भी लोगों के सम्मुख नहीं कहना चाहिए। दोष-रहित होने पर भी लोगों के सम्मुख प्रच्छन्न रूप से या प्रकट रूप से दोष लगाना कदापि उपयुक्त नहीं है। शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विअरइ अब्भक्खाणं, इअरस्स वि जो जणस्स दुबुद्धी। सो गरिहिजइ लोए, लहइ दुक्खाइं तिक्खाई॥ अर्थात् - जो दुर्बुद्धि दूसरों की पीठ पीछे निन्दा करता रहता है, दोषारोपण करता रहता है, वह उग्र दुःखों को प्राप्त करता है। जो पुण जईण समिआण, सुद्धभावाण बंभयारीणं। अब्भक्खाणं देई, मच्छरदोसेण दुट्ठमई॥ अर्थात् - जो यति के दशविध धर्म का पालन करता है, समितियों का पालन करता है, शुद्धभावपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसके ऊपर मात्सर्य के कारण कोई दुष्टमति झूठा कलंक लगाता है। निव्वत्तिऊण पावं, पावेइ सो दुहमणंतं। सीआ इव पुव्वभवे, मुणि - अब्भक्खाण-दाणाउ॥ अर्थात् - उस पाप की आलोचना न करने के कारण वह आगामी भवों में उस पाप के कारण अनन्त दुःख को प्राप्त करता है, जिस प्रकार सीता ने पूर्वभवों में मुनि पर झूठा दोषारोपण किया था, उसी कारण सीता के भव में उसने दुःख को प्राप्त किया। इसी भरत क्षेत्र में मिणाला-कुण्डपुर नगर में श्रीभूति नाम का पुरोहित रहता था। उसकी पत्नी का नाम सरस्वती था और पुत्री का नाम वेगवती थी। उस नगर में एक समय निरतिचार रूप से महाव्रतों का पालन करते हुए एक मुनिराज पधारे। उन्होंने नगर के बाहर उद्यान में रहते हुए प्रतिमाधारण (विशेष कायोत्सर्ग ध्यान) की। लोग भक्तिपूर्वक वहाँ वन्दन करने के लिए आने लगे। साधु की इस प्रकार पूजा सत्कार देख कर पुरोहित की पुत्री वेगवती मात्सर्य के कारण झूठ-मुठ ही कहने लगी - अरे! आप लोग इस मुण्डपाखण्डी की पूजा क्यों करते हो? पूजनीय तो केवल ब्राह्मण-वर्ग ही है। इस पाखण्डी को तो मैंने एक औरत के साथ क्रीड़ा करते हुए देखा था। ऐसा झूठा कलंक उस मनि पर लगाया। 84 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्ख लोग उस वेगवती की बातों में आ गए और उस मुनिराज का सत्कार बन्द कर दिया। मुनि ने भी अपने प्रति लोगों की विरक्ति देखकर पता लगाया तो मालूम हुआ कि उन पर उक्त झूठा कलंक लगाया गया है। मुनि ने उसी समय यह निर्णय लिया - इस झूठे कलंक से जिनशासन की घोर निन्दा होती है और निमित्त कारण मैं बनता हूँ, इसलिए मैं यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि 'जब तक मैं इस झूठे कलंक से मुक्त नहीं होऊँगा तब तक भोजन/गौचरी ग्रहण नहीं करूँगा।' ऐसी प्रतिज्ञा कर मुनिराज कायोत्सर्ग ध्यान में स्थिर हो गये। उसी समय शासन देवता जागृत हुए और उन्होंने - वेगवईए देहे वेअणा समुट्ठिआ तिव्वा। पाउब्भूया अरई सूणं वयणं च सहसत्ति॥ वेगवती के शरीर में अचानक ही भयंकर वेदना पैदा कर दी और वह तड़फड़ाने लगी। तड़फड़ाते हुए उसे अचानक ही यह ध्यान आया कि मैंने साधु पर झूठा दोषारोपण किया था। पश्चात्ताप करती हुए वह साधु के पास गई और सब लोगों के सामने ही उसने कहा – 'इन साधु महाराज पर मैंने झूठा कलंक लगाया है, उसका कारण यही था कि मैं इनकी पूजाप्रतिष्ठा को सहन नहीं कर सकी। इसलिए आप लोग सब मुझे माफ करें।' यह कहती हुए वह मुनि के चरणों में गिर पड़ी। शासनदेव ने तत्काल ही उसे स्वस्थ कर दिया। मुनि महाराज से धर्म सुनकर उसने दीक्षा ग्रहण की। चिरकाल तक संयम पालन किया। स्वर्गवास होने पर वह सौधर्म देवलोक में देवी के रूप में उत्पन्न हुई। वहाँ से वह च्युत होकर राजा जनक की पुत्री बनी । क्रमशः उसका विवाह दशरथनन्दन रामचन्द्र से हुआ, रावण ने उसका अपहरण किया, युद्ध में रावण को पराजित कर रामचन्द्र सीता को वापस लाए, उसके पश्चात् लोगों ने उसके चरित्र पर संदेह प्रकट किया गया, अग्नि प्रवेश करने पर वह शुद्ध सती सिद्ध हुई। भविष्य में सती सीता ने जिनशासन की बहुत प्रभावना की। शुभशीलशतक 85 For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. ध्यान की महिमा. कायोत्सर्ग ध्यान में संलग्न होने पर इस लोक-जीवन में जो फल प्राप्त हुआ, उस पर सुभद्रा का उदाहरण दिया जा रहा है - वसन्तपुर नगर में जिनदास नामक सेठ रहता था। उसकी पुत्री का नाम सुभद्रा था। चम्पापुरी नगरी में बुद्धदास रहता था, वह सुभद्रा के रूपलावण्य को देख कर मोहित हो गया था। वह बौद्ध धर्म का उपासक था। जब उसे यह ज्ञात हुआ कि जिनदास सेठ, जो स्वयं जिनशासन के परम भक्त है, वे बौद्ध अनुयायी को अपनी पुत्री नहीं देंगे। अतः छद्म रूप से वह जैन उपासक बन गया, उसके धार्मिक कार्य-कलापों को देखकर स्वधर्मी जानकर जिनदास ने अपनी पुत्री सुभद्रा का बुद्धदास के साथ विवाह कर दिया। बुद्धदास उसे चम्पानगरी ले कर आ गया। बुद्धदास का सारा परिवार बौद्ध था ही। यहाँ बुद्धदास का कपट भरा व्यवहार भी सामने आ गया। धर्म के प्रश्न को लेकर पारिवारिक कलह भी होने लगा। बुद्धदास ने सुभद्रा को अलग कमरे में रख दिया। सुभद्रा के घर पर भिक्षा के लिए जो भी मुनि-महाराज आते, उनको वह श्रद्धा और प्रेमपूर्वक भिक्षा प्रदान करती थी। उसके सुसराल वालों ने लोगों के सामने यह कहना प्रारम्भ किया – 'यह दुष्टा मुनियों से प्रेम करती है, दूसरे धर्म के साधुओं को अनादर दृष्टि से देखती है।' इस प्रकार के आरोप लगने पर भी वह सुभद्रा साधुजनों की भक्ति से विमुख नहीं हुई। एक दिन ऐसा संयोग उपस्थित हुआ कि एक श्रमण सुभद्रा के यहाँ गौचरी के लिए आए। मुनिराज के आँखों में कोई फांस गिर गई थी, उसे सुभद्रा ने अपनी जबान से फांस को आँख से निकाल दिया। फांस को निकालते समय सुभद्रा का ललाट मुनि के ललाट को छू गया और सुभद्रा का तिलक मुनि के ललाट पर उसकी छाप छोड़ गया। सुभद्रा के ससुर ने यह दृश्य आँखों से देखा और उसे मौका मिल गया। उसने उसे दुराचारिणी बता दिया। इस घटना से उसका पति बुद्धदास भी उससे विरक्त हो गया। 86 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभद्रा ने यह घटना सुनी, उसे दुःख हुआ कि मैंने तो करुणा-दया भाव से ही मुनि के आँखों से फांस निकाली थी, किन्तु मेरे चरित्र पर जो लांछन लगा कर मेरे धर्म की मजाक बनाई जा रही है, वह ठीक नहीं है । जनता इस बात का बतंगड़ बनाकर मेरे धर्म पर अपवाद पर अपवाद लगाते रहेगी, इसका परिमार्जन आवश्यक है । अतः उसने उसी रात्रि में कायोत्सर्ग ध्यान किया । उसके ध्यान के प्रभाव से शासनदेवी ने प्रकट होकर कहा - हे सुभद्रे ! दैवानुभाव से प्रातः काल ही नगर के सारे दरवाजे बंद हो जाएँगे । आवागमन बंद हो जाने की वजह से लोगों में हा-हाकार मचेगा, उसी समय देववाणी होगी कि 'जो भी पतिव्रता नारी कच्चे धागे / सूत में बंधी हुई चालनी/ छन्नी में कुँए से पानी भरकर नगर के दरवाजों पर छिड़केगी और वे दरवाजे स्वत: ही खुल जायेंगे, असती से कदापि नहीं । ' दैवानुभाव से प्रात:काल ऐसा ही हुआ, नगर में हा-हाकर मचा, आकाश से देववाणी हुई, राजकीय पटह द्वारा उद्घोष किया गया कि 'जो भी नगरवासी चाहे पटह का स्पर्श कर अपना-अपना भाग्य अजमा सकते हैं । ' फलतः प्रत्येक नारी सौभाग्यशाली बनने के लिए उक्त कार्य को करने के लिए आगे बढ़ी किन्तु सबकी सब असफल रही। अन्त में सुभद्रा ने भी पटह का स्पर्श किया और इस कार्य को करने के लिए आगे बढ़ी। पारिवारिक जनों ने उसकी खूब हंसी-मजाक उडाई और कहा - 'देखो ! यह दुःशीला होकर भी महासती का स्वांग रच कर नगर के दरवाजे खोलने जा रही है ।' लोगों के बोलों को ध्यान में न रखकर वह सुभद्रा आगे बढी और कच्चे धागे में बंधी छन्नी में कुँए का जल भरकर नगर के तीनों दरवाजों पर छिड़का। दैवानुभाव से तीनों ही दरवाजे खुल गये । जन-समुह ने महासती की जय हो ! महासती की जय हो ! यह कहकर नवाजा। लोगों ने प्रत्यक्ष में चमत्कार देखा, इसलिए सुभद्रा के द्वारा गृहीत धर्म की प्रशंसा के पुल बांध दिये और लोगों ने उसके धर्म को स्वीकार भी किया। कहा जाता है कि शासनदेवता के कथनानुसार उसने तीन ही दरवाजों शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 87 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर पानी छिड़का था, चौथे पर नहीं, अत: आज भी नगर का चौथा दरवाजा बंद ही दृष्टिगोचर आ रहा है। सुभद्रा के कायोत्सर्ग के प्रभाव से उसके धर्म की महती प्रशंसा हुई, सुभद्रा के ससुराल पक्ष ने भी अपने परम्परा-धर्म को छोड़कर सुभद्रा के धर्म को स्वीकार किया। अब वह सारा परिवार मिथ्यात्व का त्याग कर, सम्यक्त्व को धारण कर, देव-गुरु धर्म की आराधना करता हुआ पुण्य का उपार्जन करने लगा। ६२. गृहस्थ-जीवन में निर्मोहिता. सुस्थित नामक ग्राम में गोपाल नाम का कौटुम्बिक रहता था। उसके गुणवती नाम की पत्नी थी। उनके पुत्र का नाम कालक था और पुत्रवधु का नाम कामदेवी था। परिवार का प्रत्यके सदस्य आपस में इतना स्नेहशील था कि किसी के बिना कोई भी रहना नहीं चाहता था। इसी कारण सभी लोग सम्मिलित परिवार के रूप में रहते थे और किसी भी प्रकार की अर्थवांछना के वशीभूत होकर परदेश जाना भी पसन्द नहीं करते थे। एक समय इसी ग्राम में आचार्य धर्मघोषसूरिजी पधारे और उन्होंने धर्मदेशना देते हुए संसार की अनित्यता दिखाते हुए कहा - एगोऽहं नत्थि मे कोइ, नाहमन्नस्स कस्सई। एवमदीणमणसो, अप्पाणमणुसासई॥ अर्थात् - मैं एकाकी हूँ, मेरा कोई नहीं है और न मैं किसी का हूँ। इस प्रकार अदैन्य मन के साथ अपनी आत्मा को अनुशासित करें। एक समय वर्षाकाल में खेत में हल चलाने के लिए गोपाल अपने कुटुम्ब के साथ गया। इसी बीच में स्वर्ग में रहे हुए किसी देव ने दूसरे देव से कहा - आज के इस युग में गोपाल कुटुम्ब के साथ रहता हुआ भी जिस अनासक्त/निर्मोही भाव से रहता है, उस प्रकार का कोई दूसरा व्यक्ति दृष्टिगोटर नहीं होता। 88 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों देवों में बात आगे बढ़ी और दोनों ही उसका परीक्षण करने के लिए मनुष्य लोक में आए। एक ने सर्प का रूप धारण कर हल चलाते हुए उसके पुत्र को डस लिया। पुत्र चेतना-रहित होकर जमीन पर गिर पड़ा। अपनी पुत्र की इस प्रकार की मरणासन्न दशा देखकर भी उसके पिता आदि परिवार ने शोक-सूचक रोना-धोना नहीं किया। उसी समय दूसरे देव ने मनुष्य का रूप धारण कर गोपाल को कहागोपाल एवं उसके परिवार के लोगों! यह मैं क्या देख रहा हूँ? आपका पुत्र मृत्यु की गोद में चला गया और आप लोग रुदन भी नहीं कर रहे हैं। पिता ने उत्तर देते हुए कहा - अनाहूतो मया यातो, न मया प्रेषितो गतः। यथाऽऽयातस्तथा यातः का तत्र परिवेदना ॥ अर्थात् – ना मैंने इसको बुलाया था और न मेरे कहने पर गया है । जैसा आया था वैसा ही चला गया। इसमें मानसिक वेदना या रोना-धोना क्या है? उसकी माता ने कहा - एकवृक्षसमारूढा, नानारूपा विहङ्गमाः। प्रातर्दिशो दिशं यान्ति, का तत्र परिवेदना॥ अर्थात् - एक वृक्ष पर अनेक जातियों के पक्षी चारों दिशाओं से आकर रात्रि निवास करते हैं और प्रातः होने पर वे पक्षी अपनी इच्छानुसार दसों दिशाओं में चले जाते है। जिस प्रकार वृक्ष को पीड़ा नहीं होती, उसी प्रकार हमें मनोवेदना क्यों हो? कालक की पत्नी ने कहा - पृथक्पृथस्थिते काष्ठे, अपरे तटिनीपतौ। संयुज्येते वियुज्येते, तत्र का परिदेवना॥ अर्थात् - समुद्र के किनारे अनेक प्रकार के काष्ठ पृथक्-पृथक् रूप से हैं, किसी का किसी के साथ संयोग होता है, किसी का किसी के साथ शुभशीलशतक 89 For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वियोग होता है तो उसमें समुद्र को किसी प्रकार क्षोभ नहीं होता है उसी प्रकार हमें क्षोभ क्यों हो? ६३. व्यंग से मंदिर का निर्माण. आरासण नगर में श्रेष्ठि गोगा का का पुत्र पासिल रहता था। शारीरिक दुर्बलता के कारण वह मन में बहुत दुःखी रहता था। कहा भी है वरं वनं व्याघ्रगणैर्निषेवितं, जलेन हीनं बहकण्टकाकलम। तृणैश्च शय्या वसने च वल्कलं, न बन्धुमध्ये निर्धनस्य जीवितम्। अर्थात् – बघेरों से सेवित वन में, कांटों से व्याप्त जंगल में, जलरहित गाँव में, घास की शय्या और झाड़ की छाल का वस्त्र पहन कर जंगल में रहना अच्छा है किन्तु निर्धन होकर अपने भाईयों के मध्य में जीवन बिताना मौत के समान है। एक समय तेल से भरी हुई कुपिका को लेकर व्यापार करने के लिए वह पत्तन नगर गया। वहाँ त्रिभुवन विहार में जिनेश्वर भगवान् का मन्दिर था। दर्शन हेतु वह मंदिर में गया। भगवान् को नमस्कार कर मन्दिरस्थ खम्भों की गणना और उसका प्रमाण (लम्बाई-चौड़ाई) लेने लगा। श्रावक छाण्डा की पुत्री उसके इस कार्य को देख रही थी। अपनी हंसी रोक नहीं सकी। हास्य के साथ उसने पासिल को कहा - क्या इसी प्रकार का मन्दिर तुम बनवाओगे, जो तुम इसका नाप ले रहे हो? पासिल ने भी मधुरता के साथ उत्तर दिया - हे बहन ! हो सकता है मैं इसी आकार का मंदिर बनवाऊ, उसकी प्रतिष्ठा के समय तुम अवश्य आना। उसके पश्चात् वह पासिल नगर गया। छाण्डा की पुत्री के वाक्य उसके हृदय में चुभ गये और उसने विधि-विधान सहित १० उपवास करते हुए माता अम्बिका देवी की आराधना की। अम्बिका देवी ने प्रत्यक्ष होकर के कहा - हे पुत्र! वर माँगो। 90 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासिल ने कहा - हे देवी माता! यदि आप प्रसन्न हैं तो आप ऐसा वर दीजिए कि त्रिभुवन विहार के समान नवीन मन्दिर का निर्माण करवा सकू। देवी ने कहा - तथास्तु। पासिल ने जो सीसा की खान खरीदी थी। देवी ने उसे चाँदी के रूप में परिणत कर दिया। वह समृद्धिमान बन गया। उसने उस धन से भगवान् नेमिनाथ का नवीन प्रासाद बनवाया। मन्दिर और बिम्ब की प्रतिष्ठा के अवसर पर उसने पाटण जाकर, श्रावक छाण्डा की पत्री को अपनी बहन के रूप में अंगीकार कर प्रतिष्ठा के समय आमन्त्रित किया। उस समय उसने उसे सम्मानित भी किया। प्रतिष्ठा होने पर संघ भक्ति के समय उसने सबसे पहले गुरु महाराज को आदर-सत्कार देकर कम्बली ओढ़ाई। उसके पश्चात् समस्त श्रीसंघ को आभूषणों के साथ श्रेष्ठ वस्त्र पहनाकर सम्मानित किया। छाण्डा की पुत्री को श्रेष्ठ वस्त्रों से सुशोभित करते हुए कहा - तुम से बढ़कर मेरी कोई बहन नहीं है । तुम्हारे ही कारण इस नवीन मंदिर का मैं निर्माण करवा सका, इसलिए इस मंदिर के मण्डप का नाम भी तुम्हारे नाम पर ही रखना चाहता हूँ, तुम मुझे आज्ञा प्रदान करो। उस बहन ने स्वीकृति प्रदान की। उसी समय प्रतिष्ठाकारक गुरु-महाराज ने यह पद्य कहागोगाकस्य सुतेन मन्दिरमिदं श्रीनेमिनाथप्रभोस्तुङ्गं पासिलसंज्ञकेन सुधिया श्रद्धावता मन्त्रिणा। शिष्यैः श्रीमुनिचन्द्रसूरिसुगुरोर्निर्ग्रन्थचूडामणेादीन्द्रैः प्रभुदेवसूरिगुरुभिर्नेमेः प्रतिष्ठा कृता॥ अर्थात् - मंत्री गोगा के पुत्र बुद्धिमान पासिल ने श्री नेमिनाथ भगवान् का जो विशाल मन्दिर बनवाया है और उसकी प्रतिष्ठा निर्ग्रन्थ चूडामणि सुगुरु श्री मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य वादीन्द्र श्री देवसूरिजी महाराज के हाथों से भगवान् नेमिनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई है। शुभशीलशतक 91 For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासिल ने इस पुण्य लाभ से स्वर्ग सुख को प्राप्त किया और भविष्य में वह सिद्ध-स्वरूप को प्राप्त करेगा। ६४. फलवर्द्धि पार्श्वनाथ तीर्थ. एक समय श्री देवसूरिजी महाराज मेडता ग्राम में चातुर्मास करके फलवर्द्धि ग्राम में मास कल्प के लिए ठहरे। वहाँ के पारस नाम के श्रावक ने एक दिन जाल के मध्य में निर्मल अम्लान पुष्पों से पूजित पत्थरों की राशि को देखा, आश्चर्य हुआ। गुरु महाराज से पूछा । गुरु महाराज के आदेशानुसार पत्थरों को हटाने पर भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति देखी। शासन देवता ने स्वप्न में उसे कहा - तुम भगवान् पार्श्वनाथ का नया मंदिर बनवाओ। ___ पारस श्रावक ने शासन देव से निवेदन किया - मैं अत्यन्त गरीब हूँ, मेरे पास धन नहीं है, अत: मैं मंदिर कैसे बनवा सकता हूँ? शासन देव ने कहा - प्रतिदिन भगवान् के सम्मुख चावलों के द्वारा मेरे द्वारा निर्मित स्वस्तिक ही तुम्हारे लिए अक्षत सुवर्ण के रूप परिवर्तित हो जायेंगे, उसी धन से तुम मन्दिर बनवाओ। देव वाणी पर विश्वास करके अक्षत स्वर्णों के माध्यम से मन्दिर का निर्माण प्रारम्भ किया। मन्दिर बन गया और मन्दिर के एक ओर मण्डप आदि का निर्माण भी हो गया। धन-रहित होने पर भी पिताजी यह कार्य कैसे कर रहे है? पुत्र के हृदय में संदेह पैदा हुआ और उसने अपने पिता पारस से पूछा। पारस श्रावक सरल स्वभावी था, उसने सारी घटना बतला दी। दूसरे दिन वह चावलों द्वारा निर्मित स्वस्तिक स्वर्ण के रूप में परिवर्तित नहीं हुआ। धन के अभाव में मंदिर का निर्माण अधूरा ही रहा। पूर्व में जितना बना था, उससे आगे नहीं बढ़ सका। विक्रम सम्वत् ११९९ फाल्गुन सुदि १० के दिन भगवान् की मूर्ति की स्थापना हुई और वि०सं० १२०४ माघ सुदि १३ को कलश, ध्वज 92 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डारोपण महोत्सव समारोह हुआ। श्री मुनिचन्द्रसूरि के आत्मीय शिष्य वादी देवसूरि ने इस मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। यह स्थान फलवर्द्धि पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ (जो आज मेड़ता रोड़ के नाम से मशहूर है)। फलोधी पार्श्वनाथ तीर्थ के समीपवर्ती अजमेर और नागपुर (नागौर) के श्रावकों और गोष्ठिकों के हृदय में विचार हुआ 'भूल गर्भगृह में एक ही प्रतिमा है, अन्य भी स्थापित की जाए' किन्तु उन उपासकों की यह भावना सफल नहीं हुई, क्योंकि शासनदेव पार्श्वयक्ष मूलनायक के साथ अन्य किसी प्रतिमा को स्थापित नहीं करने देता था। ६५. अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ. स्नात्रजलैस्तैलैरिव, साम्प्रतमपि यस्य दीप्यते दीपः। स श्रीमदन्तरिक्ष-श्रीपार्श्वः श्रीपुरे जयति॥ अर्थात् - स्नात्र के जल से ही तैल के समान जहाँ आज भी दीपक जलते है, वे श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ भगवान् श्रीपुर में जयवन्त हैं। दशानन रावण के राज्यकाल में पुष्प नामक ब्रह्मचारी ने अपनी विद्या से अपने स्वामी माली नामक विद्याधर के पूजन हेतु बालुकामय पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति का निर्माण किया। राम-रावण युद्ध में माली का संहार हुआ और वह प्रतिमा सरोवर (तालाब) में विसर्जित कर दी गई। बालुकामय प्रतिमा होते हुए भी वह देव-सान्निध्य से अखण्ड रूप वाली ही बनी रही। __चिंगउलिक देश में चिग्गलकपुर के अधिपति श्रीपाल नामक राजा हुए थे। उनको असाध्य कुष्ठ रोग हो गया था। संयोग से वे घूमते हुए इस सरोवर के निकट आए और अत्यधिक शारीरिक गर्मी को शान्त करने के लिए श्रीपाल राजा ने इस सरोवर में डुबकी लगाकर स्नान किया। दैवयोग से राजा का कुष्ठ जड़-मूल से खत्म हो गया। प्रसन्नवदन राजा अपने घर आया। लोगों ने रोग-रहित दैदीप्यमान शरीर को देखकर उनसे पूछा – राजन् ! आप तो असाध्य कुष्ठ से पीड़ित थे, अचानक यह परिवर्तन कैसे हो गया? शुभशीलशतक 93 For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ने कहा - सरोवर में स्नान करने से मेरा कुष्ठ समाप्त हो गया, अतः यह निश्चित है कि वहाँ कोई न कोई देव का निवास है। राजा ने पुन: वहाँ जाकर विधि-विधान सहित पूजन कर अम्बिका देवी की आराधना की। अम्बिका देवी ने प्रत्यक्ष होकर कहा - यह मूर्ति माली विद्याधर द्वारा पूजित थी, युद्ध के समय में इसे सरोवर में विसर्जित कर दी गई थी। __राजा ने देवी से पूछा - यह भगवत् मूर्ति पूजा हेतु हमें कैसे प्राप्त हो सकती है? देवी ने कहा - ७ दिन के बछड़े को रथ में जोत कर यहाँ आओगे। विधि-विधान सहित याचना करोगे तो यह भगवत् मूर्ति तुम्हे मिल जाएगी। राजा ने देवी के कथनानुसार कार्य किया और देवी ने वह मूर्ति उन्हें प्रदान कर दी। मूर्ति को उस रथ में विराजमान कर चलने लगे तब देवी ने कहा१११- 'आगे बढ़ते जाना पीछे की ओर मुड़कर मत देखना।' राजा रथ के आगे चला । दूर जाने पर राजा के हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ - 'मैं आगेआगे चल रहा हूँ मूर्ति भी पीछे आ रही है या नहीं?' राजा ने इन विचारों के साथ पीछे मुड़कर देखा तो वह मूर्ति रथ में नहीं थी, किन्तु अन्तरिक्ष में अधर स्थित थी। अतः राजा ने उसी स्थान पर श्रीपुर नगर बसा कर मन्दिर का निर्माण कर प्रतिष्ठा के साथ उस मूर्ति को वहाँ विराजमान कर दिया। प्रतिमा को लाते समय व्यग्रता के कारण अम्बा अपने एक पुत्र को छोड़ आई थी। उसको लाने के लिए क्षत्रप को आदेश दिया था। संयोग से वह क्षत्रप भी इस कार्य को भूल गया। इस कारण से अम्बा ने रोस से उस क्षत्रप पर दण्ड का प्रहार किया। आज भी क्षत्रप का सिर वहाँ दृष्टिगोचर होता है। भगवान् के स्नात्र जल से आज भी वहाँ दीपक जलते है और उस स्नात्र के जल से लोगों की बीमारियाँ भी दूर होती है। ६६. टीडा की लोक प्रसिद्ध कथा. किसी नगर में टीडा नामक जोसी रहता था। पत्रा देखकर अपना शुभशीलशतक 94 For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम निकालता था। एक दिन रात्रि में सोते हुए पड़ोस के घर में थापी के आधार पर रोटियों की गणना की । प्रातः काल उसने पड़ोसी के यहाँ पूछा 'क्या आपके यहाँ आज इतनी रोटियाँ बनी है?" बात सत्य थी। टीडा भविष्यवक्ता के रूप में प्रसिद्ध हो गया । एक समय कुम्हार का गधा घूमते हुए जंगल की ओर निकल गया । कुम्हार ने ढूंढा उसे नहीं मिला, तब उसने भविष्य वक्ता मान कर टीका के समक्ष कुछ धन भेंट कर पूछा- मेरा गधा कब मिलेगा ? करके टीडा ने कहा- मिल जायेगा, चिन्ता क्यों करते हो ? रात्रि को गणना सुबह बताऊंगा । रात्रि में जंगल में घूम कर गधे का पता लगाया और सुबह कुम्हार को कहा दिया गधा उस जंगल में उस स्थान पर मिलेगा। इस भविष्यवाणी से लोगों में उसकी प्रसिद्धि बहुत ज्यादा हो गई । किसी के अमूल्य हार की चोरी हो गई थी, खूब ढूंढने पर भी वह हार नहीं मिला था । हार के मालिक ने पंडित टीडे के चरणों में गिरकर निवेदन किया - महाराज ! मेरा अमूल्य हार चोरी हो गया है, खोजबीन करने पर भी पता नहीं चल रहा है, आप कृपा कर अपने ज्ञान से बतायें कि वह हार मुझे कहाँ मिलेगा? हार मिलने पर मैं आपके चरणों में विशेष भेंट भी रखूंगा । टीडा ने कहा - 'रात्रि को गणना कर सुबह बताऊंगा।' रात को उसने सोचा- 'मैंने क्या बेवकूफी की? मुद्रा के लोभ से मैंने हार की खोज का भार अपने ऊपर ले लिया। हार का पता नहीं लगा तो मेरे इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी । ' इसी चिन्ता के चलते हुए उसे अपनी झोपड़ी में नींद नहीं आई। बारम्बार 'मुद्राहार, मुद्रा - हार' यहीं शब्द उसके मुख से निकलते रहे । सेठ की एक दासी थी, जिसका नाम मुद्रा था । उसी ने हार की चोरी की थी। टीडा की ख्याति से वह भयभीत हो गई थी। रात को चोरी-छिपे झोंपड़े के बाहर आकर टीडा की गतिविधि देखने लगी। टीडा के मुख से 'मुद्रा - हार', यह शब्द सुनकर वह घबरा गई। 'अरे! इसने तो मेरा नाम भी शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 95 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जान लिया। कल यदि लोगों के सामने टीडा ने कह दिया कि हार तो मुद्रा ने लिया है, तो लोग मेरा जीना दूभर कर देंगे और झीटा पकड़ कर मुझे गाँव से बाहर से निकाल देंगे। मेरी इज्जत बनी रहे, इसी में मेरी भलाई है। अत: वह हार टीडा की झोपड़ी में छोड़ कर चली गई।' प्रातः काल हार मिल गया। हार के मालिक की खुशी का कोई पार नहीं रहा। गाँव भर में टीडा की ख्याति फैल गई और लोग जय-जयकार करने लगे। टीडा की प्रशंसा वहाँ के राजा के कानों में पहुँची। राजा ने सोचा कि लोग इसकी जय-जयकार कर रहे हैं तो इसके ज्ञान के सामने मेरा ठकुराई की कोई इज्जत नहीं रह जायेगी। इसलिए इसका घमण्ड तोड़ना जरूरी है। अतः प्रातः काल एक टीडे को अपनी मुट्ठी में बंद कर सभा में बैठ गया और भविष्यवक्ता पण्डित को बुलाया और कहा - दुनिया की भविष्यवाणी करने वाले हे ज्योतिषि! बताओ मेरी मुट्ठी में क्या है? टीडा सोच-विचार में पड़ गया। उसने सोचा - 'हे टीडा ! आज तेरी मौत आ गई।' इसी सोच-विचार के उधेड़बुन में उसने एक गाथा कही सूतई सूतई मांडा गण्या, राति भमंतइं गादह लाध। मुद्रडीइं इह हारज गलिओ; हवडां टीडो जोसी ग्रहीओ॥ अर्थात् - सोते-सोते मैंने थापने के आधार पर रोटियों की गणना की, रात को घूमते हुए गधे को ढूंढा, मुद्रा के नाम से हार प्राप्त हुआ, और अब हे टीडा जोसी! तेरे मौत राजा की मुट्ठी में आ गई है। टीडा शब्द सुनते ही राजा अत्यन्त चमत्कृत हुआ। 'अरे ! इसको कैसे मालूम हो गया कि टीडे को मैंने मुट्ठी में बंद कर रखा है? इसकी तो मैंने हवा भी नहीं लगने दी थी। वास्तव में यह ज्योतिषी तो बड़ा कमाल का है।' राजा बहुत प्रसन्न हुआ। मुट्ठी खोली, टीडा उड़ गया। जोसी का बहुत सम्मान किया गया, गाँव में तो वह सम्मानित था ही। उस दिन से टीडा ने यह गाँठ बांध ली - मन में आए ऐसा नहीं बोलना चाहिए। 96 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७. बिना याचना के ही मेघ वर्षा करता है. गुणकरई, गरुआ सहजि करसण सींचई सरभरई, अर्थात् - गुरुजन बिना किसी स्वार्थ या लाग-लपेट के उनके सम्पर्क में आने पर मानव के हृदय में सहज भाव से सद्गुणों की वृद्धि करते हैं, प्रत्युपकार की अपेक्षा किये बिना ही प्रिय पति अपनी प्रियतमा को प्रेम - स्नेह प्रदान करता है, सरोवर जल से परिपूर्ण इसलिए रहता है कि किसान लोग उस जल से जमीन को सिंचित करते रहें और मेघ भी बिना किसी आशा से पृथ्वी को तर-बतर कर देता है । कंतमकारणजाजाणि । मेघ न मागई दाणु ॥ किसी नगरी में धनदत्त नामक एक व्यवहारी रहता था। एक दिन उसके घर पर कोई अतिथि आया । व्यवहारी प्रसन्न हुआ। उसने अपनी पत्नी को कहा - ' आगत पाहुणे को अच्छी तरह भोजन कराओ', ऐसा कहकर वह अपनी दुकान पर चला गया। अतिथि उस घर में स्वादिष्ट भोजन कर प्रसन्न हुआ और भोजनोपरान्त उसने पान चबाया । कुछ देर तक विचार कर उसने सेठाणी को बहन शब्द से सम्बोधित करते हुए कुछ ताम्बूल पत्र उसको दिये । वह विदा हो गया । सायंकाल व्यवहारी धनदत्त अपने घर आया तब उसकी पत्नी ने यह कहते हुए अतिथि आपके लिए प्रदान कर गया है- पान के पत्ते उसको दिये । व्यापारी विचार करने लगा 'अहो ! यह तो असमान व्यवहार है । ' - उसके चेहरे पर आए मनोगत भावों को पढ़कर उसकी पत्नी ने कहा- 'आगत अतिथि ने निर्विकार भाव से यह ताम्बूल पत्र आपके लिए दिये है । हे प्रियतम ! इसमें आपको किसी प्रकार का संदेह नहीं करना चाहिए। आप इस ताम्बूल का भक्षण करें क्योंकि कुछ विशिष्ट लोग बिना याचना के ही सद्भावपूर्वक अपनी कृपा-वृष्टि कर जाते हैं।' पत्नी के कहने से उसने ताम्बूल भक्षण किया । शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 97 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८. धूर्तों का चक्कर. व्ययन्ति केचिन्मनुजा धनं मुधा-विमृश्य कार्यकपरा जडाशयाः। स कूपवाहा इव कूपकम्बली-प्रघातकान्मानवतोऽतिधूर्त्तकान्॥ अर्थात् - हर साल कितने ही मूर्ख मनुष्य आगे-पीछे का सोचे बिना ही धूर्तों के चक्कर में आकर अपने गाँठ की पूंजी को भी बरबाद कर देते है, जैसे धूर्तों के कुँए में कम्बल डालने के झांसे में आकर कूपवाहक कुंए और फसल से हाथ धो बैठा। किसी नगर में अरघट्ट यंत्र द्वारा कुंए से पानी निकालने वाले कई कूपवाहक अपने कुँए के खेत में गेहूँ के बीज लेकर फसल के लिए पानी देते थे। एक दिन कोई पथिक उस मार्ग पर चलता हुए वहाँ आया और पानी पीने की इच्छा प्रकट की। कूपवाहक ने जलयंत्र-घटी से कुंए से जल निकालकर उसको पिलाया। पानी पीने के बाद वह पथिक बोला - हे पानी निकालने वालों! कुएं के बीच में ये जल के सकोरे कौन भर देता है? ___ उस पथिक के बेतुके प्रश्न को सुनकर खिसियाकर हंसते हुए कूपवाहक ने कहा - इन जल-घटियों में पानी तुम्हारा बाप भरता है। यह सुनकर उस पथिक ने कहा - 'यदि मेरा बाप इस कुँए में रहकर जल-घटियों में पानी भरता है तो स्वाभाविक है कि कुँए में रहने के कारण उसको ठण्ड भी लगती होगी। उनको ठंड से बचाने के लिए आप लोग अपना कम्बल क्यों नहीं देते?' वे मूर्ख कूपवाहक उसके कूट आशय को नहीं समझ सके और पथिक ने अपना ओढ़ा हुआ कम्बल पिता को ठण्ड न लगे इसलिए कुँए में डाल दिया। वह पथिक चला गया। समय पर गेहूं की अच्छी फसल हुई और सब लोग अपने-अपने हिस्से को बांटने लगे। उसी समय वह पथिक भी वहाँ आया और बोला - हे कूपवाहकों! आप लोगों ने पूर्व में कहा था कि यह कुँआ मेरे पिता का है और उस कुँए के जल से ही तुम अपने खेतों की सिंचाई करते रहें, अत: खेत में पैदा हुए अनाज पर मेरा भी हिस्सा बनता है। 98 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपस में वाद-विवाद हुआ। दोनों पक्षों को सुनकर लोगों ने यह फैसला दिया कुँए को अपने पिता का मानते हुए और उनके ठण्ड से बचाव के लिए इस पथिक ने अपना कम्बल कुँए में डाला था । अत: खेती के कुछ हिस्से पर इसका भी अधिकार बनता है, वह देना होगा । - इस प्रकार उस धूर्त ने मूर्ख ग्रामवासियों को बेवकूफ बनाकर फसल का भाग प्राप्त कर लिया। ६९. मन की आँखें मींच. 1 एक नगर में चन्द्र नामक राजा राज्य करता था । उसी नगर में भ्रमण करता हुआ एक महान् तापस वहाँ आया । वह तापस तपस्या के दौरान किसी स्त्री का मुख कभी भी नहीं देखता था । ४, ५ और ८ उपवासों की लगातार तपस्या करते हुए पारणे के दिन किसी गृहस्थ के घर जाता था । लोग उसे बारम्बार पारणा के लिए आग्रह करते थे तो वह भी पारणे के दिन अलगअलग घर जाता था। उसकी उत्कट तपस्या को देखकर नगर निवासी उसकी बहुत प्रशंसा करते थे । एक समय उसकी तपस्या की ख्याति सुनकर उस नगर के राजा ने भी पारणा के लिए विशेष अनुरोध किया । वह पारणे के लिए राजा के घर गया। राजा ने अत्यन्त भावोल्लासपूर्वक उस तपस्वी की भक्ति की । श्रेष्ठ खाद्य पदार्थों से उसका पारणा करवाया। राजा ने उसका बहुत सत्कार किया और विदाई में सम्मान के साथ पालकी में बिठा कर विदा किया। जिस समय वह तापस पालकी में बैठा हुआ राज-मार्ग पर जा रहा था, उसी समय अकस्मात् ही कामलता नाम की वेश्या सामने आ गई। तापस ने अपने नेत्र बंद कर लिए। तापस द्वारा आँख बन्द करने की क्रिया को देखकर वेश्या झल्ला उठी और भर्ना करते हुए उसके सिर पर थूक दिया। तापस उसी क्षण उल्टे पैरों लौटा और वेश्या द्वारा किये हुए अपमान की घटना राजा को बतलाई । राजा भी मन में दुःखी हुआ । सोचा, ऐसे महान् तपस्वी का अपमान वेश्या ने क्यों किया? निर्णय हेतु राजा ने उस वेश्या को बुलाया शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 99 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और पूछा हे कामलते ! क्या कारण है तुमने ऋषि के सिर पर थूक कर उसका अपमान किया? कामलता बोली क्या इसी बात को पूछने के लिए आपने बुलाया था? सुनिये ! जब यह तापस पालकी में बैठा हुआ राजमार्ग पर जा रहा था, अचानक मैं मंगलमुखी उसके सामने आ गई और मुझे देखकर इसने आँखें बन्द कर ली। क्या यही इसकी साधना है ? - अर्थात् - संसार के स्वरूप को नयनों से देखते हुए आँखें बन्द करने की आवश्यकता नहीं है, यदि आँखें मुंदनी ही है तो मन की आँखों को मुंदो । यदि अपने मन की आँखों को मुंद लिया तो संसार का कोई भी पदार्थ सामने नहीं रहेगा। आंखि म मींचिसि मिंचि मन, नयनि निहाली जोइ । जइ मन मींचिसि आपणउं, अवर न बीजी कोइ ॥ कहा भी है ७०. मन का नियंत्रण करने पर बाहरी नेत्र स्वतः ही वश में हो जाते हैं । कारणं बाढं, अर्थात् - मन ही मनुष्यों के लिए संसार-बंधन और मोक्ष का कारण है, इसलिए मनुष्यों को चाहिए कि प्रतिदिन दृढ़ता के साथ मन पर नियन्त्रण करें । 100 - मन अत एव एव वह तापस कामलता वेश्या की इस गूढ़ शिक्षा को सुनकर नतमस्तक हो गया और अपनी गलती को स्वीकार कर मन के नियन्त्रण में दत्तचित्त हो गया । क्रमशः आयु पूर्ण कर वह स्वर्ग को गया । मनुष्याणां, मनो संगति का असर. पद्मपुर नगर के राजा के पास एक हाथी था । वह हाथी हजारों योद्धाओं के बीच में संग्राम में अजेय रहता था । राजा ने उसको तापसों के बन्धमोक्षयोः । नियन्त्रणीयमन्वहम्॥ शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रम के पास थाण बनाकर वहाँ उसे बांध दिया था। साधुजनों का शान्त जीवन, इन्द्रिय दमन और नियमित दिनचर्या देखकर वह हाथी भी प्रकृति से शान्त हो गया था। पड़ौस के राजा को जब यह ज्ञात हुआ कि राजा का वह दुर्दम हाथी युद्ध में भाग लेने में सक्षम नहीं रहा है, यह बढ़िया मौका है उस राज्य पर आक्रमण कर उस राज्य को अपने अधीन कर लें। पड़ोसी देश के राजा की यह कूट-चर्चा चरों के मुख से पद्मपुर के मन्त्री को ज्ञात हुई। मन्त्री ने राजा को निवेदन किया। राजा ने कहा - मन्त्री महोदय ! मैं क्या कर सकता हूँ? राज्य की रक्षा तो अपने बुद्धिबल एवं राजनैतिक चातुर्य से मंत्री लोग ही करते हैं, आप ही कुछ मार्ग दिखाइये। राजा की बात सुनकर मन्त्री ने गम्भीरता से विचार किया और उस हाथी को तापसों के आश्रम के समीप थाण से हटा कर युद्धशाला के समीप जहाँ सैनिक लोग मार-काट मचाते हुए युद्धाभ्यास कर रहे थे, वहाँ लाकर बांध दिया। उन सैनिकों के शौर्य एवं पराक्रमपूर्ण वातावरण में रहते हुए वह हाथी पुनः संग्राम भूमि में दुर्दम्य रहने की स्थिति में आ गया और युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गया। निष्कर्ष यह है कि तापसों के आश्रम के पास रह कर वही हाथी शान्त प्रकृति का हो गया था और वही सैनिकों के मध्य रहकर युद्धक्षम हो गया था। ७१. जैसी भावना, वैसी ही प्रजा की प्रतिक्रिया. एक समय महाराजा विक्रमादित्य भट्ट के साथ घूमने के लिए नगर के बाहर उद्यान में गये। उस समय विक्रमादित्य ने कहा - जाते हुए कार्पटिकों (रखड़ता हुआ भिक्षुक अथवा चित्र दिखाकर आजीविका करने वाले अथवा कावड़ियों) को मारने की मेरी मानसिक इच्छा हो रही है। शुभशीलशतक 101 For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ भट्ट ने कहा - तब तो उन कार्पटिकों की इच्छा भी इसी प्रकार की होगी कि 'राजा मर जाए।' बातचीत के बाद मन्त्री उन कार्पटिकों के समक्ष जाकर बोला - बड़े खेद की बात है कि विक्रमादित्य मौत की गोद में सो गया है। कार्पटिकों ने कहा - 'बहत अच्छा हआ। आज हमारी शराब भी मंहगें मूल्य पर बिकेगी।' यह कहकर कार्पटिक आगे चले गये। मन्त्री ने उनके कथन/मनोभावों को राजा के समक्ष कहा। राजा ने आगे चलते हुए कहा – ये जो आभीरियाँ/दही बेचने वाली ग्वालिने सामने आ रही हैं उनका भोजन और वस्त्र आदि से सम्मान किया जाए। भट्ट ने कहा - तो इनकी मानसिक अभिलाषा भी यही होगी कि 'आपका सब तरफ से भला हो।' भट्ट ने आगे जाकर उन ग्वालिनों से कहा - खेद है कि महाराजा विक्रमादित्य मौत को प्राप्त हो गए। इन वाक्यों को सुनते ही ग्वालिने अत्यन्त दुःखी हुईं और दही के पात्रों को फेंकती हुई बोली – 'आह विक्रमादित्य ! हे सत्यवादी ! हे सात्विक शिरोमणि! हे सर्वोच्च न्याय के प्रर्वतक! हे सर्वजीव के सुखकारक! हम ये क्या सुन रहे हैं? ऐसा नहीं हो सकता। यदि ऐसा हुआ है तो इससे बढ़कर दुःखदायी समाचार नहीं हो सकता।' ऐसा कहती हुए भूमि पर गिरकर लोट-पोट होती हुई रुदन करने लगी। उन ग्वालिनों का राजा के प्रति इस प्रकार का व्यवहार देखकर विक्रमादित्य स्वयं प्रकट हुआ और उन लोगों को धनादि देकर सम्मानित किया। ७२. दान का समय नहीं होता. राजा युधिष्ठिर दान देते समय किसी के भी द्वारा चलायमान करने पर भी चलाएमान नहीं होता था। 102 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्णभूमिपतिर्दत्ते, दानमभ्यर्थिते ... सदा। युधिष्ठिरस्तु पूर्वाह्ने, नापराह्ने कदाचन॥ अर्थात् - याचकगण जब भी उपस्थित होते, उसी समय महाराजा कर्ण दान दे देते थे और महाराजा युधिष्ठिर पूर्वाह्न में ही दान देते थे अपराह्न में नहीं। परीक्षा हेतु दो देव धार्मिकजन का रूप धारण कर राजा के घर आए। उस समय राजा दान देकर भोजन करके शयन कर रहा था। प्रतीहार ने जाकर राजा से निवेदन किया- साधर्मिक लोग याचना करने के लिए आए है। युधिष्ठिर ने तत्काल ही उत्तर दिया - दान का भी समय निश्चित होता है, हर समय दान नहीं दिया जाता। दोनों देव महाराजा कर्ण के द्वार पर आए। द्वारपाल ने महाराज से कहा। उस समय महाराजा कर्ण स्नान करने के लिए चौकी पर बैठे ही थे। वस्त्र-रहित नग्न शरीर था। कर्ण ने कहा- दोनों अतिथियों को भेजो। मैं उनकी कामना पूर्ण करूँगा। कहा भी है - चलं चित्तं चलं वित्तं, चलं जीवितमावयोः। विलम्बो नैव कर्त्तव्यो, धर्मस्य त्वरिता गतिः॥ अर्थात् - चित्त चंचल है, लक्ष्मी चलायमान है और हमारा जीवन भी अस्थिर है, अत: ऐसे श्रेष्ठ कार्यों में कदापि विलम्ब नहीं करना चाहिए, क्योंकि धर्म त्वरित गतिमान है। महाराजा कर्ण के इस प्रकार वचन सुनकर दोनों देवों ने प्रकट होकर कहा - हे कर्णराज ! हे देव! इस समय में इस भूतल पर आपके जैसा कोई समर्थ दानी नहीं है। ७३. गणिका का बुद्धि चातुर्य. ताम्रलिप्तिपुर से विदेश व्यापार हेतु जाने वाले अपने पुत्र को शिक्षा प्रदान करते हुए उसके पिता ने कहा - हे पुत्र ! तुम भूल से भी अन्यायपुर पत्तन मत जाना क्योंकि वहाँ अन्याय नामक राजा है, विचारहीन मंत्री है, शुभशीलशतक 103 For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वग्राही कोटवाल है, अशान्त नामक पुरोहित है, गृहीतभक्ष/सब कुछ हजम , करने वाला सेठ है, उसका पुत्र मूलनाश है, यमघंटा नाम की कुट्टिनी है, रणघंटा नाम की कुट्टिनी की पुत्री है और बहुत से जुआरी वहाँ रहते हैं। धूर्त लोगों से वह नगर भरा हुआ है। यदि कदाचित् तुम्हारा जाना हो जाए तो तुम सावधानी रखना। पिता की शिक्षा ग्रहण कर पुत्र विदेश के लिए चला। दैवयोग/संयोग से वह अनीति पत्तन पहुँच गया। नगर के बाहर ही उसे चार सेठ मिले। उन्होंने उस व्यापारी पुत्र को कहा - हे श्रेष्ठिपुत्र ! यहाँ तुम्हारा व्यापार करना पूर्णरूपेण असम्भव है, इसलिए तुम अपना माल हमें दे जाओ। जब तुम वापिस लौटोगे उस समय हम तुम्हारे जहाज भर देंगे। श्रेष्ठिपुत्र उनके चक्करों में आ गया और सारा माल लोगों को साक्षी बनाकर उनको सौंप दिया। उसके बाद उसने नगर में प्रवेश किया। राजमार्ग पर ही उसे एक धूर्त मिला और उसने बहुत बढ़िया जूतों की जोड़ी भेंट करके हुए कहा - हे सेठ ! वापिस चलने के पूर्व आप मुझे प्रसन्न करके जाना। . आगे चलते हुए एक धूर्त उसे और मिला, उसने कहा- हे सेठ ! मेरे पिता ने एक हजार रुपये में अपनी आँखें गिरवी रखी थी, वह मूल्य लेकर आँख देते जाना। श्रेष्ठिपुत्र ने कहा - भविष्य में सब कुछ अच्छा होगा। वह श्रेष्ठिपुत्र नगर की शोभा को देखता हुआ वेश्यापुत्री के कोठे पर पहुँच गया। वहीं उसने अपने निवास स्थान बना लिया। उस वेश्यापुत्री के साथ उसका प्रेम हो गया। कुछ दिनों बाद उस श्रेष्ठिपुत्र ने अपने माल के क्रय-विक्रय के सम्बन्ध में सारी स्थिति उसके सामने रख दी। सुनकर वेश्यापुत्री ने कहा - तुमने जो कुछ किया वह अच्छा नहीं किया, फिर भी जिसमें तुम्हारी भलाई होगी, वही कार्य मैं करूँगी। 104 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्पश्चात् औरत का वेश पहनाकर अपनी सखी बतलाते हुए वह रणघंटा की माता यमघंटा कुट्टिनी के पास गई। रात्रि में वे चारों सेठ उस कुट्टिनी के यहाँ आए और उन्होंने अपनी चाल-बाजी/धूर्तता का वर्णन करते हुए कहा -'नगर में एक नया सेठ आया है, उसका सारा माल हमने अपने कब्जे में कर लिया है और साक्षियों के समक्ष हमने यह कह दिया है कि 'जब तुम वापिस लौटोगे तो हम तुम्हारा जहाज भर देंगे।' वेश्या ने कहा – 'हे मूर्यो ! तुम्हारे दुर्भाग्य से यदि कदाचित् वह अपने जहाज के मशकों को हवा से भर लिया तो तुम क्या करोगे?' उन चारों ने कहा - वह तो बेवकूफ है उसमें बुद्धि ही कहाँ है? ___ उसी समय वह जूतों की भेंट देने वाला धूर्त भी वहाँ आ गया, उसने कहा - मैंने उसे बढ़ियाँ मोजड़ी भेंट की है और उसे कह दिया है कि तुम जाते समय मुझे खुश करके जाना। इसलिए जाते समय वह कुछ भी वस्तु देगा तो मैं हर्षित नहीं होऊँगा। वाद-विवाद में मैं उसकी कोई अच्छी वस्तु अपने कब्जे में कर लूँगा। वेश्या ने कहा - तुम भी मूर्ख हो। तुम दोनों का झगड़ा राजा के पास पहुँच गया और उस समय उस श्रेष्ठिपुत्र ने यह कह दिया 'राजा के पुत्र हुआ है' उस समय तुम्हारी क्या दशा होगी? तुम्हे झूठमुठ ही प्रसन्नता जाहिर करनी पड़ेगी और वह जीत जाएगा। उसी समय वह धूर्त भी आ गया और उसने कहा - हे श्रेष्ठिपुत्र! मेरे पिता ने तुम्हारे घर में १००० रुपयों में अपनी आँखे गिरवी रखी थी, वे आँखें जाते समय तुम मुझे देते जाना। वेश्या ने कहा - तुम भी बेवकूफ हो। जाते समय उस श्रेष्ठिपुत्र ने यदि यह कह दिया 'मेरे पिता के यहाँ हजारों आदमियों के नेत्र गिरवी पड़े हुए है, अत: तुम अपने पिता का दूसरा नेत्र भी ले आओ जिससे उसके साथ जॉच और वजन करके तुम्हे दे दूं।' हे धूर्त ! तुम अवश्य ही उसकी इस युक्ति के सामने हार जाओगे। शुभशीलशतक 105 For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार अपनी-अपनी डींग हांकते हुए वे सब अपने-अपने घर चले गये। श्रेष्ठिपुत्र ने वापस लौटते समय वेश्यापुत्री के कथनानुसार ही मशक, राजपुत्र जन्म, चक्षुस्तौल आदि युक्तियों से उन सब धूर्तों को वाद-विवाद में पराजित कर अपने पूर्व माल से अधिक माल लेकर अपने देश को चला और उसकी विदेश यात्रा सफल हुई। ७४. अर्थलोभी वैद्य. एक नगर में दो भाई रहते थे जो आयुर्वेद शास्त्र में निपुण थे और लोगों की चिकित्सा करते हुए धन उपार्जित करते थे। एक दिन बड़ा भाई, जो कि स्वयं वैद्य था, किसी काम १२५से किसी ग्राम में गया। वहाँ किसी पुरुष की चिकित्सा करके उससे धन लेकर वापिस लौट रहा था। अपनी ग्राम की सीमा पर पहुँचते ही उसने देखा कि गाँव के बाहर ही किसी की चिता जल रही है। वह विचार करने लगा - मैं जब दूसरे ग्राम गया था, उस समय किसी की चिता नहीं जल रही थी। इस समय चिता जल रही है, क्या कारण हो सकता है? क्या मेरे छोटे भाई ने किसी बीमार की नाड़ी देखने के बाद उससे धन लिया या नहीं लिया? वैद्य अपने आप ही चिन्तन करने लगा। साम्प्रतं दृश्यतेऽत्रैव, प्रज्वलन्ती चिता किल। 'ग्राममागामहं मे तु भ्रातुः किं चरितं न वा॥ अर्थात् - इस समय मैं देख रहा हूँ कि यहाँ चिता जल रही है, मैं अकेला दूसरे गाँव गया था, मेरा भाई यहीं था, क्या उसने कोई नई चाल चली है? चितां प्रज्वलितां दृष्ट्वा, वैद्यो विस्मयमागतः। नाहं गतो मम भ्रातुः, कस्येदं हस्तलाघवम्॥ अर्थात् - जलती चिता को देखकर वह वैद्य विस्मय करने लगा - मैं मौजूद हूँ तो क्या मेरे भाई की चिता जल रही है अथवा हस्तलाघव के द्वारा किसने यह पाप कार्य किया है? 106 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५. ताजिक ग्रन्थ की रचना का कारण. एक समय खुरसाण देश से बहुत से मुगल लोग लूट-पाट करते हुए गुजरात आए। गुजरात के बहुत से आदमियों को बन्धक बना कर ले गये। उन बन्धकों में एक विद्वान् आचार्य भी थे। वह आचार्य खुरसाण देश में रहते हुए मुगलों की भाषा सीखने लगे और कुछ दिनों में उस भाषा में पारंगत भी हो गए। जिस मुगल के घर में आचार्य रहते थे, वह मुगल पड़ोस के शत्रु ग्राम को लूटने के लिए चला गया। इधर मध्याह्न के समय वह मुगल वापिस नहीं लौटा तो उसकी माँ उसके पैरों की छाया देखकर आगे चली और कुछ दूरी पर ही रुक-कर अपनी छाती को कुटती हुई रोने लगी। कहने लगी - हे पुत्र! तुम कैसे मारे गये? हम तुम्हारे बिना क्या करेंगे? इस कुटुम्ब के आधारभूत तुम ही तो थे। इस प्रकार विलाप करती हुए अपनी सास को देखकर पुत्रवधु सोच में पड़ गई, उसने भी अपने पति के पैरों की छाया देखकर दिल में प्रसन्न हुई और अपनी सास को कहने लगी – 'हे माँ! तुम रोओ मत। तुम्हारा पुत्र कुशल है, सुरक्षित है। एक बाण उसके सिर पर लगा है, एक बाण उसके पैरों पर लगा है और एक बाण बायें हाथ पर लगा है। शाम को वह कुशलक्षेम के साथ घर आ जाऐगा।' इस प्रकार अपनी रोती हुई सासु को रोका। सायंकाल जैसा उस मुगलपत्नी ने कहा था, वैसा ही हुआ। इस घटना को आचार्य ने आश्चर्य रूप से देखा। मन में सोचा- 'ये दोनों महिलाएँ छाया-शास्त्र में अत्यन्त निपुण है। सासू की अपेक्षा भी वह मुगलपत्नी इस विषय की ज्यादा जानकार है।' उसके पश्चात् वहाँ रहते हुए आचार्य ने उस विद्या का सम्यक् प्रकार से अध्ययन किया और नवीन ताजिक ग्रन्थ की रचना की। बंधन से छूटने पर आचार्य शीघ्र ही वापिस लौटे। उन आचार्य के पश्चात् उन्होंने जो विद्या सीखी थी उसकी आम्नाय, परम्परा किसी को नहीं दे सके। आम्नाय के बिना उसका फलादेश निरर्थक हो गया। उस ताजिक ग्रन्थ में भूत, भविष्य और वर्तमान में क्या होने वाला है? इसका संकलन था, परन्तु उस प्रकार की बुद्धि और आम्राय के बिना उसका अच्छी तरह से ज्ञान नहीं हो पाता है। वह ग्रंथ आज भी विद्यमान है किन्तु आम्नाय-रहित है। शुभशीलशतक 107 For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६. मैत्री में विश्वासघात. एक समय फलों से समृद्ध वन से मधुर भाषी एक वानर जंगलजंगल घूमता हुआ और फलों को खाता हुआ समुद्र के किनारे आया। वहाँ समुद्र के किनारे जल में लोट-पोट होते हुए एक मगरमच्छ को देखकर वानर ने कहा हे मित्र ! जीवन से दुःखी होकर तुम इस शिकार भूमि में कैसे आ गए? यह सुनकर मकर ने कहा यद्विहितं स्थानं, चित्तं, यस्य तत्रैव रमते 108 सर्वस्वर्णमयी पितृपर्यागतयोध्या, अर्थात् - हे वानर ! जिसके लिए जिस कारण से जो स्थान निर्मित/ निर्धारित किया गया है, उसी स्थान पर उनका मन लगता है, वह स्थान प्रियं लगता है। कहा भी है : यस्य तत्र नान्यत्र यद्धेतवे लङ्का, न मे लक्ष्मण ! निर्धनापि अर्थात् - हे लक्ष्मण ! पूर्ण रूप से सोने से निर्मित लंका मेरे मन को अच्छी नहीं लगती। मुझे तो वंश-परम्परा से चली आ रही और जहाँ मेरे पिताश्री का राज्य था, वह अयोध्या लंका के सामने वैभवहीन होने पर भी सुखकारी प्रतीत होती है । कहा भी है : कृतम् । वानर!॥ धणासा य। जणणी जम्मुप्पत्ती, पियसंगो जीवियं पच्छिमनिद्दा वरकामिणी, सत्तवि दुक्खेण मुच्चंते ॥ अर्थात् - माता, जन्मस्थान, प्रियजनों की संगति जहाँ जीवन की उम्मीदें बनी हुई हैं, धनार्जन की आशा है, पिछले पहर की निद्रा और जहाँ श्रेष्ठ प्रियतमा रहती है, ऐसे सात स्थान अत्यन्त कष्ट पड़ने पर ही छोड़े जाते हैं । आपके दर्शन से आज मेरा जन्म सफल हुआ। कहा भी है : शुभशीलशतक रोचते । सुखावहा ॥ For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधूनां दर्शनं श्रेष्ठं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थं पुनाति कालेन, सद्यः साधुसमागमः॥ अर्थात् - साधुजन तीर्थ के समान ही माने गये हैं, अत: उनके दर्शन श्रेष्ठ हैं क्योंकि तीर्थदर्शन का पुण्य भविष्य में फलदायक होता है जबकि साधुजनों का समागम/सम्पर्क तत्काल ही फल देने वाला है। ___ आप स्थल में उत्पन्न हुए है, इसलिए स्थलचारी हैं । संयोग से आप यहाँ आए हैं, आप जैसों के साथ वार्ता करना भी दुर्लभ है। यह सुनकर वानर ने कहा - हे मकर! आज से तुम मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय मित्र हो। मित्र के समक्ष अपने सुख-दुःख की बात कर आदमी सुखी होता है। __ उसी दिन से वानर और मकर में घनिष्ठ प्रेम हो गया। वानर बगीचों से मधुर फल लाकर मकर को देता और मकर उन फलों को ले जाकर अपनी प्रिया मगरमच्छी को देता । वह भी खाकर बहुत प्रसन्न होती । एक दिन उसने मकर से पूछ ही लिया कि 'ये मीठे फल कहाँ से लाते हो?' मकर ने वानर के साथ मित्रता का सम्बन्ध बतला दिया। यह सुनकर गर्भिणी मकरी विचार करने लगी - जो वानर इस प्रकार के मीठे-मीठे स्वादिष्ट फल रोज खाता है तो उसका दिल भी बड़ा होगा, चिकना होगा और माँस भी अमृत के समान मीठा होगा। ऐसा विचार कर मकरी ने कहा - 'हे मकर ! मैं गर्भिणी हूँ। मुझे दोहला उत्पन्न हुआ है कि मैं उस वानर के हृदय का माँस भक्षण करूँ। यदि यह दोहल मेरा पूर्ण नहीं हुआ तो मैं मर जाऊंगी।' मकरी की इस बात को कदाग्रह मानता हुआ भी वह मकर दूसरे दिन छल के साथ अपनी मित्र वानर से बोला - हे मित्र! तुम्हारी भाभी (मकरी) तुम्हे बहुत याद करती है, तुम्हे बुलाया है। तुम्हारे वहाँ जाने पर वह अनेक प्रकार से तुम्हारी भक्ति करना चाहती है। शुभशीलशतक 109 For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सुनकर सरल-स्वभावी वानर अपने मित्र की पत्नी से मिलने के लिए मकर के पीठ पर बैठ गया। उसे लेकर मकर समुद्र में बढ़ने लगा। कुछ मार्ग तय करने के बाद वानर बोला - हे मकर! मैं चल तो रहा हूँ, मुझे वहाँ पहुँच कर क्या करना चाहिए? और तुम्हारी पत्नी मेरा किस प्रकार से स्वागत करेगी? यह सुनकर मकर ने सोचा - यह मेरे साथ समुद्र में बहुत दूर तक आ चुका है और मेरे सहयोग के बिना वापस जा नहीं सकता, अत: सच्ची बात ही इसको बता देता हूँ। उसने कहा - मेरी पत्नी को दोहद उत्पन्न हुआ है और वह तुम्हारे दिल का माँस खाना चाहती है, इसलिए मैं तुमको ले जा रहा हूँ। यह सुनकर वानर ने सोचा - यदि मैं वहाँ पहुँच गया तो मेरी मौत निश्चित है, अतः बुद्धिचातुर्य से इसको मूर्ख बनाकर वापस जाना ही अच्छा है। यह सोचकर वानर बोला - अरे मित्र! तुमने मुझे यह पहले क्यों नहीं बतलाया? अब तो मेरी भाभी का मनोरथ पूर्ण नहीं हो सकता। मकर ने कहा - तुम ऐसा क्यों कहते हो? वानर ने कहा - मेरा चित्त वट-वृक्ष के ऊपर रखा हुआ है और मेरा हृदय उदुम्बर वृक्ष की शाखा में लटका हुआ है। मैं जब भी इधर-उधर जाता हूँ तो दोनों चीजें वहीं छोड़ कर आता हूँ। यदि तुम पहले ही बता देते तो मैं दोनों चीजें साथ ले आता और भाभी का मनोरथ पूर्ण हो जाता। मकर बातों के चक्कर में आ गया। वापिस लौटकर समुद्र के तट पर आया। वानर उसकी पीठ से छलांग लगाकर वृक्ष की शाखा पर चढ़ गया और उसने कहा - मित्र! तुम्हारे साथ मैत्री यहीं तक थी। तुम अपनी पत्नी को जाकर कह देना कि वह वानर बड़ के झाड़ पर से चित्त और उदुम्बर वृक्ष की शाखा से हृदय लेने गया है। भविष्य में तुम मेरे साथ मैत्री की कामना मत करना। कहा है : जलजन्तुचरैर्नित्यं, जलमार्गानुसारिभिः। स्थलजैः संगतिर्न स्याद् बुवन्ति मुनयो ध्रुवम् ॥ 110 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् - मुनिजनों ने कहा है कि जलमार्ग में चलने वाले जलचर जन्तुओं के साथ स्थल में रहने वाले प्राणियों को कदापि उनका संग नहीं करना चाहिए। ७७. सत्पात्र दान आवश्यक है. दानं धर्मेषु रोचिष्णु, तच्च पात्रे प्रतिष्ठितम्। मौक्तिकं जायते स्वाति-वारि शुक्तिगतं यथा॥ अर्थात् - सुपात्र में दान देने पर ही धर्म में प्रतिष्ठित होता है, कल्याणकारी होता है। जैसे - स्वाति नक्षत्र में गिरि हुई जल की बूंद सीप में पड़ने पर ही मोती के रूप में नि:ष्पन्न होती है। केसिं च होई वित्तं, चित्तं केसि पि उभयमन्नेसिं। वित्तं चित्तं पत्तं, तिन्नि पुण्णेहिं लब्भंति॥ अर्थात् - किसी के पास धन होता है, किसी के पास मन होता है और किसी के पास दोनों होते है। वित्त, चित्त और पात्र ये तीनों पुण्य के संयोग से ही प्राप्त होते हैं। किसी नगर का राजा दान के नाम से ही चिड़ता था। एक रोज वह संयोग से जंगल में गया। परिवार सहित उस जंगल को देखते हुए वह राजा महुड़े के वृक्ष के नीचे बैठ गया। उस महुड़े के वृक्ष से बूंद-बूंद रस टपक रहा था। यह देखकर राजा ने कहा - हे पण्डित ! यह मधूक वृक्ष क्यों रो रहा है? उस समय अवसर देखकर राजा को प्रतिबोध/सचेत देने के लिए एक पण्डित ने कहा - यदास्ति पात्रं न तदास्ति वित्तं, यदास्ति वित्तं न तदास्ति पात्रम्। एवं हि चिन्तापतितो मधूको, मन्येऽश्रुपातै रुदनं करोति॥ अर्थात् - जहाँ पात्र होता है वहाँ धन नहीं होता और जहाँ धन होता है वहाँ पात्रता नहीं होती। इस चिन्ता में घिरा हुआ यह मधुप-वृक्ष अपने आंसुओं को गिराते हुए रुदन कर रहा है, ऐसा मेरा मानना है। शुभशीलशतक 111 For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्डित के मुख से अपने ऊपर व्यंग्य सुनकर राजा ने चिन्तन किया कि यह पण्डित मधूक वृक्ष के रुदन का उपयुक्त कारण बता रहा है। वास्तव में मेरे पास धन होने पर भी मैं सत्पात्र को दान नहीं देता हूँ, यह गलत है। अपनी गलती स्वीकार कर उसी दिन से वह सत्पात्रों को दान देने लगा। ७८. सुदर्शन का दान और शील. चम्पापुरी में जिनदास नामक सेठ रहता था। उसके घर में भैंसों के पाडा-पाडियों की देख-रेख करने वाला सुभग नाम का नौकर था। एक दिन वह सुभग भैंसों को चराने के लिए जंगल में गया। वहाँ उसने देखा कि भयंकर शीत ऋतु में भी जंगल के मध्य में वस्त्ररहित मुनि महाराज कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित हैं। उसने विचार किया - 'ऐसी भयंकर ठण्ड में, जंगल में साधु ध्यान में खड़े हैं, क्या उनको ठण्ड नहीं लगती होगी? अवश्य लगती होगी। ऐसा चिन्तन कर उसने अपना कम्बल मुनि महाराज को ओढ़ा दिया।' इस करुणा भावना से उसने पुण्य का उपार्जन किया। मृत्यु होने पर वह सेठ के यहाँ पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। नाम सुदर्शन रखा गया। नाम के अनुरूप ही उसका सौन्दर्य था। क्रमशः वह युवावस्था को प्राप्त हुआ। उसके रूप-सौन्दर्य से मोहित होकर राज-पुरोहित की पत्नी कपिला और राज-रानी अभया उस पर दिल न्यौछावर कर बैठी। दोनों अपनी वासना की पूर्ति के लिए समय की तलाश में थी। एक रोज उन्हें ज्ञात हुआ कि आज पौषधशाला में पौषधव्रती के रूप में सुदर्शन अकेला ही है। ऐसा सोचकर उसका अपहरण कर अपने स्थान पर लाकर, दोनों ने अपनी काम-वासनाएँ जाहिर की। किन्तु वह पौषधव्रत में रहा हुआ सुदर्शन अनुकूल परीषह समझ कर ध्यानावस्थित हो गया। अनेक प्रकार की कुचेष्टाएँ करने पर भी वह चलायमान नहीं हुआ तो दोनों ने होहल्ला मचाया - 'देखो! ये सेठ का पुत्र धर्म का ढोंग करते हुए हमें बरबाद करने को तुला है।' राज-सैनिकों ने सुदर्शन को पकड़ लिया। सुबह राजदरबार में उसके अपराध की फहरिस्त सुनाई गई। संगीन अपराध मानकर राजा ने उसको सूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया। उसके सद्भाग्य और 112 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यानुभाव से वह सूली सिंहासन के रूप में परिणत हो गई। लोगों ने जयजयकार किया और उसके सत्चरित्र और शील की महिमा का बखान किया । ७९. दान की महत्ता. मिथ्यादृष्टिसहस्त्रेषु, अणुव्रतिसहस्त्रेषु, वरमेको वरमेको अर्थात् हजारों मिथ्या दृष्टिधारकों में एक अणुव्रती श्रेष्ठ होता है और हजारों अणुव्रतियों में भी एक महाव्रती श्रेष्ठ होता है । महाव्रतिसहस्त्रेषु, वरमेको हि जिनाधिपसमं पात्रं, न भूतं अर्थात् – हजारों महाव्रतियों में भी तीर्थंकर सर्वश्रेष्ठ होता है । जिनेन्द्र के समान कोई सत्पात्र न हुआ है, न होगा। एक समय मथुरा नगरी में नन्द गोकुल ने जब अपना पुत्र नारायण (कृष्ण) वन में घूम कर आया, तब पूछा - हे पुत्र ! तुमने भोजन किया है या नहीं? पढमं जईण दाऊण, असईसुविहियाणं, ह्यणुव्रती । महाव्रती ॥ उत्तर में नारायण (कृष्ण) ने कहा - स्वच्छन्दतः स्वभवने स्वयमर्जितान्नं, कान्ताकराग्रपतितं यतिदत्तशेषम्। ये भुञ्जते सुरपितृनपि तर्पयित्वा ते भुक्तवन्त इह, तेन, मया न भुक्तम्॥ " अर्थात् - स्वतंत्रतापूर्वक अपने घर में रहते हुए स्वोपार्जित अन्नको अपनी प्रिया के हाथों द्वारा महर्षि को दान दिया गया हो और उसके पश्चात् देवताओं और पितृजनों का तर्पण करने के बाद जो भोजन किया गया हो, वही भोजन कहलाता है, इस प्रकार का भोजन मैंने नहीं किया है । अप्पणा तीर्थकृत् । भविष्यति ॥ भुंजेई शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only पणमिऊण पारे । कर्यादिसालोओ ॥ 113 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अर्थात् - भावपूर्वक सुविहित श्रमणों को नमस्कार और उनको पहले दान देकर जो पारणक करता है, भोजन करता है, वही सफल भोजन कहलाता है। ८०. दान का प्रभाव. कुरुक्षेत्र में एक ब्राह्मण अपनी पत्नी और पुत्र के साथ रहता था। तीनों का परस्पर घनिष्ठ प्रेम था। एक समय तीनों ही सत्तु का भोजन करने के लिए बैठ गये, उसी समय अपने घर में आये हुए साधुजनों को अपने-अपने हिस्से का सत्तु उन्होंने प्रदान किया। उसी समय उस अन्न-दान के प्रभाव से देवताओं ने उसके घर में सोना-मोहरों की वृष्टि की और उसके दान की प्रसंशा की। इसी अन्न दान के पुण्य प्रकर्ष से वे भविष्य में मुक्ति प्राप्त करेंगे। ८१. क्षमा-शील युधिष्ठिर. महाराजा युधिष्ठिर जुए के खेल में अपना सब-कुछ गंवा कर भीम आदि भाइयों के साथ जंगल की ओर चले गये। किसी वन में संध्या के समय झाड़ के नीचे उन लोगों ने निवास किया। सायंकालीन सामायिक ग्रहण कर और प्रतिक्रमण कृत्य पूर्ण कर नमस्कार मंत्र का स्मरण करते हुए सोने की तैयारी करने लगे। उसी समय महाबली भीम ने कहा - 'भयंकर जंगलों में अनेक प्रकार के उपसर्ग/त्रासजनक पीडाएँ होती रहती हैं, रात्रि में तो विशेष रूप से होती है, इसलिए पहले पहर में मैं जाग्रत रह कर पहरा दूंगा।' सब सो गये। भीम जाग्रत रह कर पहरा देने लगा, उसी समय कलि नाम का राक्षस वहाँ आया। भीम क्षुब्ध हो, इस प्रकार का उसने वातावरण सर्जित किया। भीम के क्षुब्ध न होने पर दोनों आपस में युद्ध करने लगे। दोनों बलवान थे, इसलिए कोई भी पराजित नहीं हुआ। दोनों ही खिन्न होकर अपनी-अपनी थकान मिटाने लगे। अपना पहला पहर होने पर भीम सो गया। दूसरे पहर में अर्जुन जाग्रत रहता हुआ पहरा देने लगा। कलि राक्षस ने भीम के समान अर्जुन से भी मल्ल-युद्ध किया। हार-जीत का निर्णय न हो शुभशीलशतक 114 For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सका। दोनों ही थकान मिटाने के लिए आराम करने लगे । अर्जुन निद्राधीन हो गया। तीसरे पहर में सहदेव और नकुल पहरा देने लगे। उनके साथ भी कल का आपस में युद्ध हुआ पर कोई विजय प्राप्त न कर सका । चौथे पहर में महाराजा युधिष्ठिर उठे और सामायिक ग्रहण कर एकचित्त से नमस्कार मंत्र का जाप करने लगे । तत्पश्चात् प्रतिक्रमण की कामना से युधिष्ठिर धर्म - ध्यान में संलग्न हो गये। उसी समय वह कलि असुर भी सात हाथ लम्बा शरीर धारण कर युधिष्ठिर को धर्म से चलायमान करने लगा । युधिष्ठिर के चलायमान ने होने पर व्याघ्रादि अनेक रूपों को धारण कर वह उपद्रव करने लगा, किन्तु युधिष्ठिर समता भाव धारण शान्त रहा और प्रतिक्रमण पूर्ण कर समस्त जीवों के साथ मुक्त - वैर हो गया । कलि असुर ने ज्योंही काली सुपारी के समान अपना छोटा सा रूप धारण किया त्यों ही युधिष्ठिर ने उसको गोलाकार रेखाओं के भीतर कैद कर लिया । प्रात: काल होने पर भी जब चारों भाई नहीं उठें तब युधिष्ठिर ने उनको कष्टपूर्वक उठाया और पूछा - 'हे भाइयों ! आप लोग इस प्रकार बेसुध होकर कैसे सो रहे थे?' तब चारों भाईयों ने रात बीती घटना सुनाई। उनके मुख से उक्त घटना को सुनकर युधिष्ठिर बोला- 'वह कलि असुर कही गया नहीं है, वह यहीं है, मैंने उसको रेखाओं में कैद कर रखा है । ' ज्यों ही युधिष्ठिर ने उसे मुक्त किया त्यों ही वह कलि असुर उन सब के सन्मुख आया, प्रसन्न होकर अपने स्वाभाविक रूप को प्रकट कर युधिष्ठिर से कहा - सौभाग्यसरलाशयः । पुण्यवान् भाग्यात् धरणीपीठे, जगद्वन्द्यक्रमाम्बुजः ॥ अर्थात् - आप धन्य हैं, पुण्यवान हैं, भाग्यवान हैं, सौभाग्यवान हैं और सरल मन वाले हैं । आप इस भूमितल पर विद्यमान हैं, चरण-कमल जगद् द्वारा वन्दनीय हैं । अतः आपके कलि असुर बोला - जो विग्रह उपस्थित होने पर भी क्षमा धारण शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only धन्यस्त्वं विद्यसे 115 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता हुआ अपने धर्म - कार्य को करता है, वह मुक्ति योग्य सुख - कर्म का उपार्जन करता है। तत्पश्चात् युधिष्ठिर ने प्रतिक्रमण क्रिया पूर्ण कर सामायिक पार कर कहा - हे असुर ! मेरे द्वारा तुम्हें जो कुछ भी तकलीफ हुई है, उसे क्षमा करना । इस प्रकार उन दोनों का आपस में क्षमा-याचना और क्षमा-प्रदान कार्य हुआ। कर्ण की कल्पित दान कथा. महारथी कर्ण जीवन-भर याचकजनों को इच्छित दान में स्वर्णदान करता रहा। इस पुण्य के प्रभाव से वह स्वर्ग में देव बना । स्वर्ग में चारों ओर उसे सोना ही सोना नजर आ रहा था। कर्ण ने देवगुरु से पूछा - हे गुरु ! यहाँ मुझे स्वर्ण के अतिरिक्त कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, क्या कारण है ? ८२. देवगुरु ने कहा - हे भाग्यशाली ! तू ने अन्न आदि का दान कभी भी नहीं किया । जीवनभर प्रचुरता के साथ स्वर्णदान ही करता रहा। इसी कारण तुम यहाँ अपने चारों तरफ स्वर्ण ही स्वर्ण देख रहे हो । अन्न, दान देने की कामना से उसने चन्द्रपुर में शृगाल श्रेष्ठ के नाम से जन्म धारण किया। भोजन के पूर्व वह किसी भी अतिथि की राह देखता रहा परन्तु कोई भी अतिथि उसके घर नहीं आया। किसी देव ने उसको विचारों से चलायमान करने के लिए जोगी का रूप धारण कर याचना के लिए वहाँ आया । शृगाल सेठ तत्काल ही उठकर उसको भोजन देने के लिए तैयार हुआ, तब उस कपट रूपधारी देव ने कहा- हे सेठ ! मैं अन्न को ग्रहण नहीं करता हूँ। मैं तुम्हारे पुत्र का माँस ग्रहण करने का इच्छुक हूँ । यदि तुम अतिथि को देना चाहते हो तो अपने पुत्र का माँस दो । घर से अतिथि खाली हाथ नहीं जाए, इन विचारों से प्रेरित होकर शृगाल सेठ ने अपने पुत्र की हत्या कर उस अतिथि को माँस प्रदान किया और उस अतिथि से सेठ बोला अब मुझे स्वर्ग प्रदान करो । 116 - शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब देवरूपधारी अतिथि ने कहा - 'हे सेठ! पुत्रहीन को मैं स्वर्ग प्रदान करने में समर्थ नहीं हूँ।' यह सुनकर सेठ खिन्न मानस हो गया। उसी समय मायावी अतिथि ने अपना देवस्वरूप प्रकट किया। पुत्र को जीवित किया। तत्पश्चात् वह सेठ प्रचुरता से अन्न-दान देने लगा। ८३. मारवी (मरुदेशीय) दुर्गत का सर्वस्वार्पण. एक समय मन्त्री वाग्भट्ट (मंत्री उदयन का पुत्र) ने शत्रुञ्जय तीर्थ के उद्धार के लिए टीप हेतु समस्त सेठियों और व्यवहारियों की बैठक बुलाई। बैठक में सब लोगों ने अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार टीप में रकम भर दी। उस समय मारवाड़ देश का रहने वाला दुर्गत नाम का एक गरीब भी यात्रा करने के लिए शत्रुजय तीर्थ पर आया था और वह भी उस बैठक में सम्मिलित था। जब सब लोगों ने टीप भर दी। उस समय उस दुर्गत ने भी उसके पास जो पाँच द्रमक (सिक्के) शेष थे, वे मन्त्री वाग्भट्ट को अर्पित किये। मन्त्री ने उस टीप में सबसे ऊपर उसका नाम लिख दिया। इससे समस्त श्रेष्ठिगण और व्यवहारी रुष्ट हुए और कहने लगे - हे मन्त्रीराज! आप यह अन्याय कैसे कर सकते हैं? हमने इस टीप में लाखों रुपये लिखे हैं किन्तु आपने ५ रुपये देने वाले का नाम हमारे नाम के ऊपर लिख दिया! इसके उत्तर में मन्त्री वाग्भट्ट ने कहा - हे सेठ लोगों! इस दुर्गत के पास जो कुछ था, वह अर्पण कर दिया। आप लोगों ने अपने वैभव का शतांश भी नहीं लिखाया है, यदि आप लोग भी सर्वस्व अर्पण करते हों तो मैं इस टीपं में सबसे ऊपर आपका नाम लिख सकता हूँ। मन्त्री वाग्भट्ट के इस उत्तर से समस्त सेठ लोग बड़े प्रसन्न हुए और उठ करके दुर्गत को नमस्कार किया। वह मारु दुर्गत को पालीताणा में रहते हुए भोजन बनाने हेतु जमीन को तनिक खोदने पर सिक्कों से भरा हुआ एक लोटा प्राप्त हुआ। तपस्या का पारणा करने के पश्चात् उसने वह धन मन्त्री वाग्भट्ट के समक्ष रखा। मन्त्री ने शुभशीलशतक 117 For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसको देखा और कहा - हे दुर्गत! यह तुम्हारे भाग्य से ही तुम्हे प्राप्त हुआ है इसलिए इसे तुम ही ग्रहण करो और इसका उपभोग करो। उस मारवाड़ी ने उस लोटे में से प्राप्त आधा धन तीर्थ में खर्च कर दिया। मन्त्री ने उसका सम्मान किया। मन्त्री ने जो तीर्थोद्धार का कार्य प्रारम्भ किया था, वह मूल प्रासाद का उद्धार कार्य पूर्ण हुआ। मन्त्री ने इस कार्य में बहुत धन सुकृत में व्यय किया। कहा जाता है - लक्षत्रयीविरहिता द्रविणस्य कोटीस्तिस्रो विविच्य किल वाग्भटमन्त्रिराजः। यस्मिन् युगादिजिनमन्दिरमुद्दधार, श्रीमानसौ विजयतां गिरिपुण्डरीकः॥ ___अर्थात् – मन्त्रीराज वाग्भट्ट ने युगादि जिनेश्वर के मूल प्रासाद के उद्धार में दो करोड़ ९७ लाख रुपये व्यय करके इस तीर्थ का उद्धार करवाया। गिरिराज पुण्डरीक और श्रीमान् वाग्भट्ट की जय हो। ८४. लूणिग वसही का नामकरण. पूर्व में धवलका नगरी (धोलका) में श्रेष्ठि लूणिग अपने भाईयों के साथ - मालदेव, वस्तुपाल, तेजपाल के साथ निर्धन अवस्था में निवास करते थे। लूणिग की अन्तिमावस्था के समय तीनों भाईयों ने यह प्रतिज्ञा कीइनके पुण्यार्जन हेतु १-१ लाख नमस्कार मंत्र का जाप करेंगे। तीनों भाईयों ने लूणिग से यह भी कहा - भाई साहब ! इस समय में आपकी जो भी इच्छा हो, वह प्रकट करिये। उसको पूर्ण करने में हम अपना पूर्ण सामर्थ्य झोंक देंगे। भाइयों की इस प्रकार प्रेम-विह्वल वाणी सुनकर लूणिग ने कहा - हे भाइयो! मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि अर्बुदगिरि पर्वत पर विमल वसही के पास नवीन देव मंदिर का निर्माण हो, यही मेरी अन्तरभावना है। यदि यह देव-मंदिर का निर्माण होता है और इसको पूर्ण करने का वचन देते हो तो मेरा मन समाधि में रमण करेगा। 118 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालदेवादि तीनों भाईयों ने कहा - भाईश्री! हम वचनबद्ध होते हैं कि यदि लक्ष्मी का सुयोग मिल गया तो हम आपकी इस भावना को अवश्य ही पूर्ण करेंगे। भाईयों के वचनबद्ध होने पर लूणिग ने समाधि के साथ प्राण छोड़ दिये। कुछ वर्षों पश्चात् भाग्योदय होने एवं धोलका के मन्त्री बनने पर व्यावहारिक चतुरता के साथ उन्होंने बड़े भाई लूणिग की मनोकामना पूर्ण करने के लिए अर्बुदगिरि के श्री बोड़ा माता की देवकुलिका के पास ही भूमि लेने का निर्णय किया। वहाँ की भूमि ब्राह्मण समाज के अधीन थी। पंच को बुलाकर इस सम्बन्ध में वार्ता की। धोलका का मन्त्री यह जमीन खरीदना चाहता है इसलिए ब्राह्मणों ने मुँह-माँगी रकम माँगी। इन भाईयों ने भी जितनी भूमि ग्रहण करनी थी, उतनी भूमि पर द्रमक (उस समय का प्रचलित सिक्का) बिछा कर वह राशि ब्राह्मण समाज को अर्पित की। भूमि-क्रय में इन भाईयों ने ३६०० मण द्रमक द्रव्य व्यय किया था। इस विशाल द्रव्य राशि को देखकर विक्रय-कर्ताओं ने कहा - आपने हमारी कल्पना से भी अधिक राशि दी है। हम इससे अधिक एक सिक्का भी नहीं चाहते हैं और आप यह पर्वत की भूमि देवमन्दिर के लिए सहर्ष स्वीकार करें। मन्दिर का निर्माण विक्रम सम्वत् १२८३ में प्रारम्भ किया और निर्माण कार्य विक्रम सम्वत् १२९२ में पूर्ण हुआ। इस नवीन मंदिर के निर्माण कार्य में वस्तुपाल तेजपाल ने उस समय १२ करोड ५३ लाख रुपये व्यय किये। बड़े भाई लूणिग की अन्तिम इच्छा को ध्यान में रखकर ही इस मंदिर का निर्माण हुआ अतएव समस्त भाईयों ने इस मन्दिर का नाम लूणिग वसही रखा। ८५. आचार्य देवसूरि और काह्नड़ योगी. एक समय भृगुकच्छ (भरोंच) में आचार्य श्री देवसूरि विराजमान थे। काह्नड़ नाम का योगी सांपों से भरे हुए ८४ पिटारे (करण्डिकाएँ) लेकर शुभशीलशतक 119 For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य के पास पहुँचा। काह्नड़ ने गर्व के साथ कहा - हे आचार्य ! आप मेरे साथ शास्त्रार्थ करिये। यदि आप शास्त्रार्थ नहीं करते हैं तो आप अपना आसन छोड़िये और मृत्यु का वरण कीजिए। देवसूरि ने योगी की घमण्डपूर्ण चुनौती स्वीकार की और जिस आसन पर बैठे थे, उस आसन के चारों तरफ ७ रेखाएँ खींच कर योगी से कहा - हे योगीराज ! मैं आपकी चुनौती को स्वीकार करता हूँ। आप अपने सर्पो को जहाँ चाहें छोड़ दीजिए। यह सुनकर उस काह्नड़ योगी ने साँप छोड़ दिये। पहला विषधर साँप पहली रेखा को न लांघ सका। दूसरा दूसरी रेखा को न लांघ सका और इस प्रकार क्रमश: छठी रेखा को कोई साँप न लांघ सका। अपना जोर न चलने पर वे विषधर नागराज क्रोधित होकर फुफकारते हुए जमीन पर सिर पटकने लगे। काह्नड़ योगी अपनी विफलता देखकर उद्विग्न हो गया और उसने आचार्य से कहा - आप भूमि पर बैठिये और मेरा क्रिया-कलाप देखिये। आचार्य ने कहा - हे काहड़! भूमि पर बैठने से क्या होगा? तुम्हारे पास बली से बली जो सर्पराज हो, उसे आप हमारी तरफ छोड़ दें। __काह्नड़ योगी भी अपने होने वाली पराजय से तिलमिलाता हुआ नलिका (कंधे पर लटकती हुई सांप की पिटारी) में से सिन्दुरी रंग के सांप को - जिसके दृष्टि पड़ने मात्र से केले का पत्ता जलकर खाक हो जाए - आचार्य के ऊपर छोड़ा। वह भी दूसरे सर्प को वाहन बनाकर आचार्य द्वारा बनाई हुई रेखा को लांघने में समर्थ नहीं हुआ। ऐसी दशा में उस सिन्दुरी रंग के सर्प ने वाहन सर्प से उतर कर अपनी लपलपाती जिह्वा से रेखा को नष्ट कर दिया। इस प्रकार रेखाओं को समाप्त करता हुआ वाहन सर्प पर बैठकर वह पाट पर चढ़ने लगा, उस समय आचार्य के शिष्यों और दर्शक लोगों में हाहाकार मच गया। आचार्य देवसूरि ने सघन-विघ्न देखकर निश्चिन्त होकर शान्त मन से ध्यान मग्न हो गये। 120 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी समय आचार्य के ध्यान के प्रभाव से एक शकुनिका (गरुड, गिद्ध अथवा गौरैया नाम का पक्षी) अचानक वहा आती है और उन दोनों साँपों को चोंच से पकड़कर बहुत दूर ले जाकर छोड़ देती है । आचार्य विजयश्री प्राप्त करते हैं और काह्नड़ योगी पराजित होकर नीचा मुख करके अपने पैरों में पहना हुआ तौड़ा (आभूषण) उतार कर गुरुचरणों में रख देता है और करुणा - विगलित शब्दों में कहता है - हे प्रभु ! मेरी जीविका के आधारभूत ये दोनों सर्प ही थे। मैं कमाने-खाने लायक भी नहीं रहूँगा। कृपा कर बतलाईये - उन दोनों सर्पों को कहाँ छोड़ा गया है? गुरु ने ध्यान मग्न होकर कहा - नर्मदा नदी के किनारे पर है । उसी समय कुरुकुल्ला नामक देवी ने आकर कहा - मेरा निवास-स्थान सामने वाला वट-वृक्ष ही है, उसी वृक्ष पर बैठी हुई ४ माह से मैं आचार्य देव का व्याख्यान / देशना सुनती रही हूँ । गुरु पर किसी प्रकार का उपद्रव हो, क्या मैं उसका देख सकती हूँ? नहीं, इसलिए मैंने आकर उन सर्पों को दूर ले जाकर छोड़ दिया है। गुरु की स्तवना करते हुए उसने ३ पद्य कहे पुन: देवी ने कहा - 'इन श्लोकों को आप भण्डारस्थ कर दीजिए, किसी को मत दीजिए। मेरे द्वारा निर्मित ये तीनों स्तुति काव्य जो भी अपने दरवाजे पर लिखे हुए इनको पढ़ेगा, उनको भविष्य में किसी प्रकार का सांप का उपद्रव नहीं होगा।' ऐसा निवेदन करती हुई वह देवी अपने स्थान पर चली गई। आचार्य देवसूरि ने काह्नड़ योगी पर विजय प्राप्त की । वह योगी काह्नड़ भी अपनी समस्त गारुडिक कलाओं को छोड़कर उसी दिन से गुरु की चरण- सेवा करने लगा । ८६. पात्र दान में भेद. एक दिन 'सत्पात्र दान का फल स्वर्ग एवं मोक्ष सुख है', ऐसा सुनकर कर्ण राजा प्रतिदिन प्रात: काल में १०० संख्या के वजन के तुल्य स्वर्ण शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 121 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का दान देकर सिंहासन से उतरता था । एक दिन कर्ण राजा ने देखा कि प्रात:काल के प्रारम्भ होने के समय ही सत्पात्र दान की इच्छा से दो चारण सभा में उपस्थित हुए। इनमें एक चारण सम्यक्त्वधारक था और दूसरा चारण मिथ्यामत का धारक था। उस समय कर्ण ने विचार किया कि मुझे सर्वप्रथम सत्पात्र को ही दान देना चाहिए, वही दान सद्गति का देने वाला होता है कुरुते अन्नदातुरधस्तीर्थंकरोऽपि तच्च दानं भवेत्पात्रे, दत्तं बहुफलं अर्थात् - तीर्थंकर जैसे महापुरुष भी अन्न ग्रहण करने हेतु अन्नदाता के समक्ष हाथ फैलाते हैं, इसी कारण से सत्पात्र में दिया हुआ दान भी बहुत ही फलदायक होता है । पात्र-परीक्षण का विचार करते हुए कर्ण ने जब दान देने में विलम्ब किया, उस समय एक चारण ने कहा किं 122 पत्त-परिक्खह करुह, अंबुदहं, वरसंतह किमु जोई अर्थात् - हे राजन्! दान देते समय पात्र का परीक्षण क्यों करते हो कि यह सत्पात्र है या कुपात्र ? आप जैसों को तो जो याचक सामने आ जाए, उसको दान देना चाहिए । विचार करिये, क्या मेघ वर्षा करते हुए सम और विषम स्थानों का विचार करते हैं ? यह सुनकर कर्ण ने कहा अंबरहत वरसु वरसु धत्तूरइ विस - - करम् । यतः ॥ दिज्जउ वरसीडां फल एवडुं अंतर शुभशीलशतक इक्खुरस, अर्थात् – हे मेघ! बरसो - बरसो । आप वर्षा करते समय किसी - प्रकार का भेद नहीं रखते हैं किन्तु उसी वर्षा के जल से पात्र के कारण भेद भी नजर आता है। आपका वही पानी धतूरा भी पैदा करता है और इक्षुरस भी पैदा करता है । मग्गंताह । सम-विसमाई ॥ For Personal & Private Use Only जोइ । होइ ॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __इस अन्तर को ध्यान में रखते हुए भूपति नरेन्द्र ने सत्पात्र को पहले दान दिया। ८७. त्रिया चरित्र. संसारम्मि असारे, नत्थि सुहं वाहिवेअणापउरे। जाणंतो इह जीवो, न कुणइ जिणदेसिअं धम्मं॥ अर्थात् - यह संसार सारहीन/नश्वर है, इस संसार में तनिक भी सुख नहीं है बल्कि व्याधि और वेदना बहुल है। ऐसा जानता/समझता हुआ भी यह जीव जिनप्ररूपित धर्म का आचरण नहीं करता है। उदाहरण प्रस्तुत है : श्रीपुर नगर में धन नामक सेठ रहता था। उसके धन नाम की पत्नी थी। उनके पुत्र का नाम चन्द्र था और चन्द्र की पत्नी का नाम रूपश्री था। चन्द्र अपनी पत्नी पर इतना अधिक मोहित/आसक्त था कि पत्नी के इशारे पर वह चलता था अर्थात् पत्नी का नौकर था। एक समय उसकी पत्नी ने कहा - हे चन्द्र ! हे प्रिय! तुम्हारे मातापिता अर्थात् मेरी सास और ससुर मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते हैं, जो मन में चाहें वे बोलते रहते हैं, अत: माता-पिता को छोड़कर हम दोनों परदेश चलें। पत्नी-मोहित चन्द्र ने पत्नी की आज्ञा को शिरोधार्य कर माता-पिता को छोड़कर पत्नी के साथ परदेश चला। मार्ग में पत्नी को प्यास लगी और उसने चन्द्र से कहा - मुझे बहुत जोर की प्यास लगी है, कण्ठ सुख रहा है, प्राण निकल रहे हैं। __चन्द्र ने कहा - आगे तालाब नजर आ रहा है, वहाँ तक चलो। वहाँ पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लेना। थोड़ी दूर चलकर सरोवर के निकट पहुँच कर रूपश्री धम्म से बैठ गई और उसने कहा - यहीं पानी लाकर मुझे पिलाओ। शुभशीलशतक 123 For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी पत्नी का दीवाना बना हुआ वह पानी लेने चला। मार्ग में सिंह को देखा, भयभीत हुआ पर अपने जीवन को तृण के समान समझकर तालाब पर पहुँचा। पानी लेकर वापिस अपनी पत्नी के पास आया। उस समय तक पत्नी प्यास की बेचैनी के मारे बेहोश हो गई थी। उस पर जल छिड़काव आदि किया और उसके होश में आने पर उसने पानी पीया। ___ वहाँ से वे दोनों आगे चले । चलते हुए वे दोनों किसी नगर के समीप पहुँचे। नगर के बाहर कुएँ पर अपनी भार्या को बिठाकर भोजन की व्यवस्था करने के लिए वह चन्द्र नगर में गया। इधर उस कुएँ के समीप ही एक पांगला कोढ़ी बैठा हुआ था। उसने एकाकी नारी को देखकर उसको मोहित करने के लिए राग-जनित चेष्टाएँ की। उसकी चेष्टाओं से प्रभावित होकर वह रूपश्री भी उस पर आसक्त हो गई और अपने पूर्व पति को भूल गई, जैसे उसके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध ही न रहा हो। रूपश्री ने उस पंगु से कहा - आज से तुम ही मेरे पति हो। उत्तर में कोढ़ी ने कहा - हे सुन्दरी ! तुम क्या कह रही हो, कहाँ तुम्हारी जैसे सौन्दर्य एवं लावण्यवत्ती नारी और कहाँ मेरे जैसा पंगु और कोढ़ी? उसी समय चन्द्र भोजन की व्यवस्था करके वहाँ आ गया। पत्नी के कहने पर उसने भोजन के तीन हिस्से किये। एक स्वयं के लिए, दूसरा पत्नी के लिए और तीसरा पंगु के लिए। भोजनोपरान्त पत्नी के आग्रह के कारण उस पंगु कोढ़ी को भी साथ लेकर चले। वह पंगु कोढ़ी चलने में असमर्थ था, अत: कुछ समय चन्द्र अपने कंधे पर बिठाकर चलता था और कुछ दूरी तक वह रूपश्री अपने कंधे पर बिठाकर चलती थी। ये लोग चलते हुए किसी नगर में पहुँचे। वहाँ नगरजनों के समक्ष रूपश्री ने त्रिया चरित्र का नाटक रचा और लोगों से कहने लगी- देखो! देखो! मेरा पति तो यह पंगु कोढ़ी है। यह नवयुवक तो मुझे अबला जानकर मेरा हरण करना चाहता है। 124 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस झगड़े को सुनकर नगर का कोतवाल भी आया, वहाँ का राजा भी आया। सबके सामने रूपश्री ने वही बात कही। जब चन्द्र से पूछा गया तो उसने कहा यह तो मेरी पत्नी है । - रूपश्री'ने तत्काल ही प्रतिवाद किया यह झूठ बोलता है । मैं इसकी कोई पत्नी नहीं हूँ। यह झूठा नाटक रचकर मुझे अपने कब्जे में करना चाहता है। आप लोग मेरी रक्षा करें, ऐसा कहती हुई झूठ-मूठ ही धमीड़ा खाते हुए रोने लगी। राजा ने और नागरिकों ने चन्द्र को झूठा समझ कर नगर से निष्कासन का आदेश दे दिया। उसी समय चन्द्र ने कहा — यस्यै निजं कुलं त्यक्तं, जीवितार्थं चहारितम् । सा मयि भवति निःस्नेहा, कः स्त्रीणां विश्वसेन्नरः ॥ अर्थात् - जिस औरत के कारण मैंने अपने कुल का त्याग कर दिया, माता-पिता और गाँव का त्याग कर दिया, धन-माल का त्याग कर दिया और पागल होकर उसके पीछे जंगलों की खाक छानता रहा । ऐसी दशा में भी वह यदि मेरे प्रति निर्मोही होकर मेरा त्याग करती है तो ऐसी पुंश्चला स्त्रियों का विश्वास कौन करेगा? ८८. इस प्रकार राजा के समक्ष अपना स्वरूप बतलाकर, पहचान देकर वह संसार से विरक्त हो गया और संसार का त्याग कर दिया । पुण्य बल से समृद्धि स्वतः प्राप्त होती है. साकेतनपुर में भानुप्रभ नाम का राजा राज्य करता था। उस नगर में राजमान्य धनमित्र नाम का सेठ रहता था । उसकी पत्नी का नाम धनमित्रा था । धनमित्रा ने एक दिन स्वप्न में धन से भरा हुआ कलश देखा । समय पूर्ण होने पर उसने पुत्र को जन्म दिया। जन्मोत्सव मनाने के पश्चात् पुत्र का नाम पुण्यसार रखा गया। पुण्यसार युवावस्था को प्राप्त हुआ। पिता ने धर्म और व्यवहार के शास्त्रों में निपुण पुण्यसार का विवाह कर दिया। समय बीतने पर उसके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 125 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक समय पुण्यसार ने स्वप्न में देखा कि महालक्ष्मी कह रही है - तुम्हारे द्वारा पूर्वार्जित पुण्य कर्मों के कारण मैं तुम्हारे घर में निवास करना चाहती हूँ। पुण्यसार ने कहा - इसकी पहचान कैसे हो? महालक्ष्मी ने कहा - प्रात:काल अपने घर के चारों दिशाओं में इसका प्रत्यक्ष अनुभव कर लेना। प्रात:काल पुण्यसार ने देखा कि चारों कोनों में धन से भरे हुए चार कलश विद्यमान हैं। पुण्यसार ने सोचा - कहीं चोरी का कलंक न लग जाए अथवा कोई नई बात पैदा न हो जाए, इसलिए यह उपयुक्त है कि राजा को जाकर निवेदन कर दूँ। पुण्यसार ने राजा को जाकर निवेदन किया। राजा ने भी उसके घर जाकर धन से भरे हुए चार कलशों को देखा। धन को देखकर राजा की नियत बदल गई और 'यह तो राजकीय धन है', ऐसा कहकर वे चारों धनकलश अपने राजकोश में जमा करवा दिये। दूसरे दिन भी पुण्यसार ने उसी प्रकार धन-कलशों को देखा। राजा को निवेदन किया। राजा ने लोभ के वशीभूत होकर वे कलश भी अपने यहाँ मंगवा लिये। इसी प्रकार तीसरे दिन भी हुआ और चौथे दिन भी इसी प्रकार हुआ। जब ये कलश राज-भण्डार में जमा करवा दिये गये तो, उसके कुछ क्षणों पश्चात् ही कोषाधिकारी और मन्त्री ने राजा से निवेदन कहा - राजन् ! धन से भरे हुए वे सारे कलश कोषागार से गायब हो गये हैं। किसने हरण किये है, हम नहीं जानते हैं? उसी समय देववाणी हुई - हे राजन् ! पुण्यसार के पुण्य से ही ये धन के कलश उनके यहाँ मैंने छोड़े थे। तुम मूर्ख हो, जो कि उस धन पर अधिकार करना चाहते हो। 126 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा यह देववाणी सुनकर चमत्कृत हुआ और सारे कुंभों को पुण्यसार के घर में देखकर बोला - हे सेठ! तुम धन्यशाली हो, भाग्यशाली हो, जिसके कारण इस प्रकार की सम्पत्ति देवता भी तुम्हारे यहाँ स्थापित कर रहे हैं। तत्पश्चात् राजा ने सेठ का सत्कार-सम्मान किया और नगर सेठ की पदवी दे कर बड़े आडम्बर के साथ हाथी पर बिठाकर उसको अपने निवास स्थान पर भेजा। यह घटना देखकर नगर की जनता भी कहने लगी- 'लक्ष्मी भी पुण्यशालियों का अनुगमन करती है।' इधर वह पुण्यसार सेठ भी सात क्षेत्रों में उस धन का सदुपयोग करने लगा। एक समय साकेतनपुर नगर में केवलज्ञान-धारक आचार्य सुनन्द का पदार्पण हुआ। नगर के भूपति, श्रेष्ठि पुण्यसार एवं समस्त जनता उनके दर्शनों के लिए गई। दर्शन कर धर्मोपदेश सुनन लगे। धर्मदेशना के पश्चात् पुण्यसार के पिता सेठ धनमित्र ने हाथ जोड़कर निवेदन किया - भगवन् ! मेरे पुत्र ने पूर्व जन्म में ऐसा कौन सा सुकृत कार्य किया, जिसके कारण इस भव में महालक्ष्मी देवी चलकर के हमारे घर में निवास करने लगी। केवलज्ञानी आचार्य ने कहा - इसी नगर में धन नाम का मनुष्य रहता था। सद्गुरु के पास में अहिंसा प्रधान धर्म का श्रवण कर शुद्ध धर्म अंगीकार कर प्राणपण से अहिंसा का पालन किया। मुनिजनों को विशुद्ध आहार का दान दिया और अन्त में गुरु महाराज के पास दीक्षा ग्रहण की। मुनि बनने के पश्चात् वह सर्वदा सिद्धान्तों के अध्ययन-अध्यापन में और गुरुजनों की सेवा करने में तत्पर रहा । अन्तिम अवस्था में अनशन धारण कर देह-विलय होने के पश्चात् तीसरे देवलोक में महर्द्धिक देव हुआ। देव-भव का आयुष्य पूर्ण कर पूर्व पुण्य योग से तुम्हारे पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ है। केवली भगवान् के मुख से अपने पूर्व-जन्म का वृत्तान्त सुनकर पुण्यसार को भी जाति-स्मरण ज्ञान हुआ। तत्पश्चात् वह पुण्यसार विशेष रूप से शत्रुञ्जय आदि महातीर्थों की यात्रा में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करने लगा। अपने पुत्र की पुण्यशालिता देखकर उसका पिता भी विशेष धर्म कार्य शुभशीलशतक 127 For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने लगा। कुछ वर्षों पश्चात् माता-पिता के साथ पुण्यसार ने दीक्षा ग्रहण की। शुद्धधर्म की आराधना करता हुआ उग्र तपश्चर्या करता हुआ वहाँ से देह छोड़कर स्वर्गलोक में देव होगा। वहाँ से मनुष्य भव धारण कर विशुद्ध संयम पालन कर सिद्धि-वधू को प्राप्त करेगा। अत: अब भव्यजनों को भी निरन्तर, प्रबल पुण्य कर्मों की उपार्जन करना चाहिए। ८९. अहिंसा की महत्ता. सत्थवाहसुओ दक्खत्तणेणं, सिट्ठिसुओ सुरूवेण। बुद्धीइ अमच्चसओ, जीवइ पुण्णेहिं रायसुओ ॥१॥ अर्थात् - सार्थवाह के पुत्र ने दक्षता से, श्रेष्ठिपुत्र ने स्वरूप सौन्दर्य से, मन्त्रीपुत्र ने बुद्धिबल से और राजकुमार ने पुण्यबल से जीवन में सफलता प्राप्त की। दक्खत्तं पंचरूयं, सुंदरे सयसमं विआरिज्जा। बुद्धी पुण्णसहस्सा, सयसहस्साइं पुण्णाई॥२॥ अर्थात् - निपुणता से पाँच गुणा, सौन्दर्य से सौ गुणा, बुद्धि से हजार गुणा और पुण्य से लाख गुणा सफलता प्राप्त होती है। मंत्रीपुत्र, राजपुत्र, श्रेष्ठिपुत्र और सार्थवाह-पुत्र ये चारों ही घनिष्ठ मित्र थे। एक समय राजपुत्र ने कहा - मैं अपने पुण्य के बल पर जीवन जीऊंगा। मंत्रीपुत्र ने कहा - मैं अपने बुद्धि बल से जीवन-यापन करूँगा। श्रेष्ठिपुत्र ने कहा - मैं रूप, सौन्दर्य के बल पर जीवन-व्यतीत करूँगा। सार्थवाह के पुत्र ने कहा - मैं अपनी दक्षता/चतुरता के बल पर जीवन सफल बनाऊँगा। 128 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक समय वे चारों मित्र धनार्जन हेतु दूसरे देश में गये। वहाँ किसी उद्यान में ठहरे । दक्ष सार्थवाह-पुत्र नगर में गया। वहाँ किसी श्रेष्ठि की दुकान पर बैठ कर वार्तालाप करने गया। संयोग से उसे सेठ की दुकान पर बहुत सारे ग्राहक आए, काफी माल बिका। सेठ को बहुत लाभ हुआ। सेठ ने विचार किया -- 'ये दूसरे प्रदेश का निवासी जब से मेरी दुकान पर बैठा है तभी से मुझे अत्यधिक लाभ हुआ है।' यह सोचकर उस सेठ ने सार्थवाहपुत्र से कहा - उठो! भोजन करने चलो। सार्थवाह-पुत्र ने कहा - मैं अकेला नहीं हूँ, हम चार मित्र हैं। हम साथ ही भोजन करते हैं, अलग-अलग और अकेले नहीं। सेठ ने उन शेष मित्रों को भी बुला लिया और स्वादिष्ट भोजन करवाया। उनको भोजन कराने में सेठ के पाँच रुपये खर्च हुए। दूसरे दिवस सौन्दर्यवान श्रेष्ठिपुत्र गणिका के घर में गया और वहाँ अपने मित्रों के साथ सत्कार के साथ भोजन किया। उस भोजन में गणिका के सौ रुपये खर्च हुए। तीसरे दिन बुद्धिमान मंत्रीपुत्र नगर में गया। वहाँ उसने एक स्थान पर विवाद होते हुए देखा। विवाद का विषय था - दो सौतों के बीच में एक पुत्र था। धन के लोभ से दोनों में यह संघर्ष छिड़ा कि - 'यह पुत्र मेरा है, यह पुत्र मेरा है।' इस विवाद का निष्पक्ष निर्णय नहीं हो पा रहा था। उस समय अमात्यपुत्र ने बीच में पड़ कर यह कहा - 'पुत्र एक है, माताएँ दो हैं । अतः इस पुत्र के दो टुकड़े कर दिये जाएँ और दोनों सौतें उसे स्वीकार करें। उसी समय नकली माता ने यह कहा - मुझे यह निर्णय मान्य है। दूसरी असली माता ने कहा - यह पुत्र जीवित रहे, इसलिए इस पहली को ही सौंप दिया जाएँ। शुभशीलशतक 129 For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी समय अमात्यपुत्र ने कहा - यह दूसरी का पुत्र है, यही इसकी असली माता है। इसे यह पुत्र सौंप दिया जाए । वह असली माता बहुत प्रसन्न हो गई और अपने घर पर बुला उन चारों को बड़े प्रेम से भोजन कराया। इस भोजन में हजार रुपये व्यय हुए। चौथे दिन पुण्यशाली राजपुत्र नगर में जाने लगा। उस समय अचानक ही उस नगर के अपुत्रीय / पुत्ररहित राजा की मृत्यु हो जाने के कारण पञ्च अभिमन्त्रित दिव्य प्रकट किये गये थे । दैवयोग से वह राजपुत्र ही वहाँ का राजा बन गया । तत्कालीन राजा ने अपने तीनों मित्रों को अपने पास बुलाकर बड़े सम्मान के साथ रखा और प्रत्येक कार्य में उनसे विचार किया करता था । एक समय उस नगर में कोई सद्गुरु पधारे। राजा और नगरवासी उनकी देशना सुनने के लिए गये। देशना के पश्चात् उस राजपुत्र राजा ने गुरु से पूछा हे भगवन्! मैंने पूर्व जन्म में ऐसा कौन सा सुकृत कार्य किया था कि मुझे राज्य प्राप्त हुआ और सार्थवाहपुत्र को दक्षता, श्रेष्ठिपुत्र को सौन्दर्य और मन्त्रीपुत्र को बुद्धिबल प्राप्त हुआ । गुरु ने उत्तर में कहा- पूर्वभव में तुम श्रीधन नाम के एक कौटुम्बिक थे । गुरु महाराज के मुख से अहिंसा प्रधान धर्म का श्रवण कर तुमने उसे स्वीकार किया था और जीवन पर्यन्त श्रद्धापूर्वक जीवदया का पालन किया था। इसी कारण तुम इस भव में राजा बने हो । सार्थवाह के पुत्र ने पूर्वभव में गुरुभक्ति की थी इसी कारण उसने इस भव में दक्षता प्राप्त की । श्रेष्ठिपुत्र ने पूर्वभव में एक मलिन जिन प्रतिमा को अच्छी तरह रगड़-रगड़ कर धोकर उज्ज्वल बनाई थी इसी कारण वह इस भव में रूपसम्पदा का अधिकारी बना । अमात्य - पुत्र ने पूर्वभव में हृदय से ज्ञान की भक्ति / उपासना की थी इसी कारण इस भव में उसे बुद्धिबल प्राप्त हुआ । गुरु महाराज के मुख से अपने पूर्वभवों को सुनकर चारों ही मित्र प्रसन्न हुए। जीवन पर्यन्त विशेष रूप से धर्म आराधना करते हुए स्वर्ग गये और क्रमशः मुक्ति को प्राप्त करेंगे । 130 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०. राजपितामह अम्बड़ पुहविकरंडे बंभंड - संपुडे भमइ कुंडलिजंतु। तुह अंबडदेव जसो अलद्धपसरो भुयंगव्य ॥१॥ अर्थात् - करण्डिये में बंद होकर सर्प कुण्डली मारकर बैठा रहता है उसी प्रकार अम्बड़देव के यश का विस्तार पृथ्वी रूपी करण्डिये में बंद होने के कारण भू-मण्डल पर फैल नहीं रहा है। किसी समय चौलुक्य कुमारपाल भूपति अपनी राज्यसभा में बैठे हुए थे। उसी समय एक भट्ट ने प्रशंसा करते हुए कोङ्कण-देशीय मल्लिकार्जुन राजा को राजपितामह विरुद से प्रख्यापित किया। उसी समय महाराजा कुमारपाल ने मन में विचार किया-- जैसे भी हो मल्लिकार्जुन का राजपितामह विरुद खत्म कर देना चाहिए। एक दिन राजसभा में अपने हाथ में पान का बीड़ा लेकर राजा ने कहा - जो भी मल्लिकार्जुन का निग्रह करने में सामर्थ्य रखता हो, वह सुभट इस पान के बीड़े को स्वीकार करे। मल्लिकार्जुन के अत्यन्त बलशाली होने के कारण किसी भी बलशाली (सुभट) ने वह पान का बीड़ा स्वीकार नहीं किया। सभा की इस प्रकार की दशा देखकर अम्बड़ खड़ा हुआ और हाथ जोड़ कर बोला - हे स्वामी! आप मुझे आदेश दीजिए, मैं आपकी कृपा से उस मल्लिकार्जुन का राजपितामह विरुद दूर कर दूंगा। राजा ने हर्षित होकर वह पान का बीड़ा अम्बड़ को दिया। तत्पश्चात् राजा को प्रणाम कर बहुत बड़ी सेना लेकर मन्त्रीश्वर अम्बड़ पाटण नगर से चलता हुआ क्रमशः अगाध जल से परिपूर्ण और दुश्तर कलविणी नदी को पार कर किनारे पर अपनी सेना का पड़ाव डाला। मन्त्री अम्बड़ के आगमन स्वरूप को सुनकर मल्लिकार्जुन राजा अकस्मात् ही वहाँ पहुँच गया। क्षण मात्र तनिक युद्ध कर अथवा भविष्य में युद्ध का समय निश्चित कर अम्बड़ सपरिवार वापस लौट आया। मल्लिकार्जुन से पराजित हो शुभशीलशतक 131 For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया हो, इस प्रकार अम्बड़ ने कृष्णमुख होकर कृष्णछत्र और कृष्णवर्ण का मुकुट धारण किया। पाटण के बाहर डेरा डाल कर काले रंग के तम्बू में ठहर गया। किसी को भी सूचित नहीं किया कि मैं आ गया हूँ। कुमारपाल राजा ने अपने अनुचरों से पूछा - नगर के बाहर कृष्ण वस्त्रधारी यह किसकी सेना आई है? उस समय गुप्तचर ने कहा - मल्लिकार्जुन राजा से पराजित होकर, लज्जित होकर, अम्बड़ अपनी सेना के साथ बाहर ठहरा हुआ है। यह सुनकर कुमारपाल ने विचार किया- यदि अम्बड़ को इस प्रकार की गहरी लज्जा है तो वह अवश्य ही उसको पराजित कर देगा। तत्पश्चात् कुमारपाल राजा ने अम्बड़ को सम्मानित कर विशाल सैन्यबल के साथ शत्र-विजय के लिए उसको वापस विदा किया। वहाँ से उसी मार्ग से चलता हुआ वह कोङ्कण देश पहुँचा और अपनी सेना को दो भागों में विभक्त कर, चारों ओर से मल्लिकार्जुन को घेर कर युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गया। दोनों ओर की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ, रक्तपात हुआ। सेना का संचालन करते हुए युद्ध के मैदान में ही हाथी पर बैठे हुए मल्लिकार्जुन को जमीन पर गिराकर अम्बड़ ने कहा- 'अपने इष्ट देवता का स्मरण कर लो।' उसी समय शीघ्रता के साथ अम्बड़ ने मल्लिकार्जुन का सिर काटकर सोने की थाली में रखा। मल्लिकार्जुन के नगर से शृंगार-कोटि-शाटिका आदि प्रसिद्ध एवं बहुमूल्य वस्तुएँ लेकर अम्बड़ वापस पाटण की ओर चला। क्रमशः पाटण पहुँचकर जय-जयकार के घोष के साथ अम्बड़ नगर में प्रविष्ट हुआ। वहाँ अपने आत्मीय मंत्री को छोड़कर महाराज कुमारपाल की राज्यसभा में पहुँचा और राजा को नमस्कार कर ढकी हुई स्वर्ण की थाली राजा को भेंट स्वरूप प्रस्तुत की। इस थाली में मल्लिकार्जुन का कटा हुआ सिर था। उसके साथ ही शृंगार-कोटि-साटिका, माणिक्य रत्न का पछेवड़ा, पाप-क्षयकारी हार, संयोगसिद्धि तलवार या कटार, सोने के भरे हुए ३२ घड़े, ६०० मोती, ४ दन्तवाला सफेद हाथी, १२० पात्रों में साढ़े चौदा करोड़ मुद्रा भेंट की। शुभशीलशतक 132 For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बड़ मंत्री द्वारा प्रस्तुत शृंगार-कोटि-शाटिका आदि भेंट को देखकर कुमारपाल राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अम्बड़ (आम्रभट्ट) को राजपितामह विरुद से नवाजा, प्रदान किया। ९१. ऊदा का मंत्री उदयन. मरु-मण्डल (मारवाड़) का रहने वाला श्रीमालवंशीय ऊदा नाम का वणिक् वर्षाकाल में घी बेचने के लिए चला। किसी ग्राम के बीच में खेती की रक्षा करने वालों को पकड़ कर पूछा - 'तुम किसके सेवक हो?' उन्होंने कहा – 'अमुक के खेत की रखवाली करने वाले हैं।' ऊदा वणिक् ने कहा – 'मेरे क्षेत्र रक्षक कहाँ गये?' वहाँ से कुटुम्ब सहित ऊदा आगे गया। वहाँ वायटीय (वायड़ गच्छीय) जिन मन्दिर को देखकर वहाँ गया और विधि पूर्वक वन्दन किया। वहाँ उसको विधिपूर्वक वन्दन करते हुए देखकर छिम्पिका नामक श्राविका ने उससे पूछा - आप किसके मेहमान हो? ऊदा ने कहा - मैं परदेशी हूँ और आपका ही मेहमान हूँ। उसके उत्तर से वह अत्यन्त संतुष्ट हुई और उसे सुश्रावक समझ कर किसी के घर में अपना द्रव्य देकर ऊदा को सकुटुम्ब भोजन करवाया और रहने के लिए घास की झोपड़ी भी उसे प्रदान की। उस कुटीर में ऊदा सपरिवार रहा। सुश्रावक होने के कारण उस समय उसका व्यापार अच्छा चला। अपना निजी मकान बनाने के लिए उसने ईटें इकट्ठी की और खात मुहूर्त करते समय गड्ढे से अपार ऐश्वर्य प्राप्त हुआ। ऊदा ने उस धन में से बहुत धन देकर छिम्पिका बहन का सम्मान किया। ऊदा की लक्ष्मी प्रतिदिन प्रवर्धमान/ निरन्तर बढ़ती रही। फलतः लोगों की जिह्वा पर ऊदा के स्थान पर वह उदयन हो गया। कृतप्रयत्नानपि नैति कांचन, स्वयं शयानानपि सेवते परान्। द्वयेऽपि नास्ति द्वितयेऽपि नास्ति, श्रियःप्रचारो न विचारगोचरः॥ शुभशीलशतक 133 For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् - यह लक्ष्मी विविध प्रयत्न करने पर भी भाग्यहीन को प्राप्त नहीं होती है। शेषशायी विष्णु की स्वयं सेवा करती रहती है। विष्णु और लक्ष्मी पृथक्-पृथक् नहीं है और उन दोनों में भेद भी नहीं है। वस्तुतः लक्ष्मी का आवागमन/विचरण विचार की सीमा से बाहर है। उस उदयन ने कर्णावती नगरी में आकर अतीत, अनागत और वर्तमान चौबीसी अर्थात् ७२ जिनेन्द्रों से अलंकृत नवीन मन्दिर बनवाया। उस मन्दिर में मूलनायक के रूप में ऋषभदेव की प्रतिष्ठा की। वह उदयन गुजरात का मन्त्री बना। क्रमशः उसके ४ पुत्र हुए - बाहड़देव, चाहड़, अम्बड़ एवं सोल्ला। ९२. भाग्यशाली आभड़ पत्तन नगर में श्रीमालज्ञातीय आभड़ नामक वणिक् रहता था। उसके वंश में उसके अतिरिक्त कोई नहीं था। वह कांसे के बर्तन बनाने वाले बाजार में दिनभर बर्तन बनाते समय ठक-ठक् किया करता था। दिनभर में पाँच मुद्रा पैदा करता था। सुबह और शाम श्री हेमचन्द्राचार्य के पास आकर प्रतिक्रमण किया करता था। रत्नों की परीक्षा सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करता रहता था और रत्न-परीक्षण में विशेषज्ञ हो गया था। एक समय वह आचार्य हेमचन्द्रसूरि के पास में परिग्रह परिमाण का व्रत ग्रहण करने का अभिलाषी हुआ। वह कम राशि का परिमाण करने लगा। उस समय आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने उसके शारीरिक लक्षणों को देखकर और भविष्य में उसका उदय देखकर तीन लाख का परिमाण कराया। - आभड़ के एक पुत्र हुआ। वह माँ का दूध नहीं पीता था। अतः आभड़ ने विचार किया कि घर में बकरी रखी जाए और उसका दूध उस बच्चे को पिलाया जाए। बकरी खरीदने की इच्छा से वह किसी गाँव में गया। वहाँ गाँव के बाहर ही बकरियों का झुण्ड पानी पी रहा था। उसने देखा - 'एक बकरी जहाँ जल पी रही थी वहाँ जल दो प्रकार का हो जाता था।' उस कारण की खोज में लगा, उसे प्रतीत हुआ कि बकरी के गले में डोरे से बंधी 134 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई मणि लटक रही थी यह उसी का प्रभाव है । उसके मालिक को पैसे देकर उसने वह बकरी खरीद ली। उस मणिरत्न के प्रभाव से वह समृद्धिशाली बन गया। पत्तन के महाराज सिद्धराज जयसिंह को सवा लाख मुद्राएँ भेंट की, क्रमशः वह बड़ा व्यापारी बन गया । एक समय विदेश से मजीठ आदि से भरे हुए जहाज आए थे । उसने मजीठ का जहाज खरीद लिया। उस मजीठ के बीच में बहुतसी सोने की छड़ें निकलीं। उस दिन से उसकी समृद्धि बढ़ती चली और वह नगरसेठ बन गया। वह प्रतिवर्ष बहुत लोगों को साथ लेकर शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा करता था। उसने बहुत से जैन मन्दिर बनवाये । स्वयं की यश-प्रशस्ति गान के बिना ही अनेक मन्दिरों के जीर्णोद्धार करवाए। गुप्त रूप से साधर्मिक भाईयों की सहायता करता रहा और साधुजनों को अन्न, पान, वस्त्रादि देकर अपना जन्म सफल करता रहा। कहा भी है - छलिछन्नदुम प्रायः इव, प्रच्छन्नकृतं, सुकृतं अर्थात् - जिस प्रकार मिट्टी में बोया हुआ बीज वृक्ष का रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार गुप्त रूप से किया हुआ सुकृत कार्य भी प्रायः सौ गुणा सम्पत्ति को प्रदान करता है । जैसे- छागी के गले में बंधी हुई मणि कल्पवृक्ष समान हुई । ९३. अयोग्य को नमन नहीं. पूर्व में चालुक्यपति कुमारपाल का मन्त्री राजपितामह विरुद को धारण करने वाला आम्रभट्ट था । उसकी प्रशंसा गाान में कहा गया है : द्वात्रिंशद्द्द्रम्मलक्षान् भृगुपुरवसते: सुव्रतस्यार्हतोऽग्रे | कुर्व्वन् माङ्गल्यदीपं ससुरवरनरश्रेणिभिः स्तूयमानः ॥ मृत्स्नाछादितसमस्तबीजमिव । शतशाखतामेति ॥ यो दादर्थिव्रजाय त्रिजगदधिपतेः सद्गुणोत्कीर्त्तनायां । स श्रीमानाम्रदेवो जगति विजयतां दानवीरोऽग्रयायी ॥ शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 135 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् - भृगुपुर नगर में देवताओं और मनुष्यों के द्वारा स्तूयमान, तीन जगत के अधिपति अर्हत् मुनिसुव्रत स्वामी के मन्दिर में आरती के समय उनके सद्गुणों का कीर्तन सुनकर जिसने अर्थीजनों/गंधर्वो को बत्तीस लाख मुद्रा का दान दिया था वह लक्ष्मीमान् आम्रदेव जो कि दानवीरों में अग्रगण्य है, उसकी विश्व में विजय हो। कुमारपाल के स्वर्गवास होने पर पाटण की राजगद्दी पर अजयपाल बैठा। उसने राज्यसभा में सब मन्त्रियों को बुलाया। जब आम्रभट्ट ने उसको नियमानुसार नमन नहीं किया तब अजयपाल ने रुष्ट होकर कहा - मुझे नमन क्यों नहीं कर रहे हो? आम्रभट्ट ने उत्तर दिया - मैं देव बुद्धि से वीतराग को, गुरु बुद्धि से आचार्य हेमचन्द्र को और स्वामी/मालिक की दृष्टि से कुमारपाल को नमस्कार करता हूँ, अन्य किसी को नहीं। (जैन धर्म जिसके रग-रग में बसा हुआ है, उसी को नमस्कार करता हूँ, सात धातुयुक्त शरीरधारी को नहीं)। यह सुनकर अजयपाल ने कहा - यदि तुम मुझे प्रणाम करोगे, मेरे सन्मुख झुककर नमन करोगे तो तुम्हें जीवनदान मिलेगा अथवा मृत्यु का आलिंगन करोगे। आम्रभट्ट ने तत्काल ही मन से जिनेश्वर भगवान् का स्मरण कर अनशन धारण कर लिया और अजयपाल के साथ युद्ध करने लगा। जिनेश्वर का ध्यान करते हुए युद्ध में आम्रभट्ट की मृत्यु हुई और वह स्वर्ग में गया। वरं भट्टैर्भाव्यं वरमपि च खिङ्गैर्धनकृते, वरं वेश्याचार्यै वरमपि महाकूटनिपुणैः । दिवं याते दैवादुदयनसुते दानजलधौ, न विद्वद्भिर्भाव्यं कथमपि बुधैर्भूमिवलये॥ अर्थात् - भविष्यकाल में श्रेष्ठ भट्ट हो सकते हैं, युद्ध स्थल में श्रेष्ठ महारथी हो सकते हैं, श्रेष्ठ कलाचार्य हो सकते हैं, श्रेष्ठ कूट-राजनीतिज्ञ हो सकते हैं, किन्तु इस दान-समुद्र में उदयन पुत्र आम्रभट्ट के समान दानवीर और श्रेष्ठ विद्वान् इस पृथ्वीतल पर भाग्य से ही उत्पन्न होंगे। 136 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४. वेष भावनाओं में परिवर्तन ला देता है. सौराष्ट्र देश के राजपुत्र सुसर पर विजय प्राप्त करने के लिए महाराजा कुमारपाल ने उदयन मन्त्री को भेजा। शत्रुजय तीर्थ के निकट पहुँचने पर उदयन के हृदय में विचार आया – 'युद्ध भूमि में खेत (मरण) भी हो सकता हूँ और विजय भी हो सकती है अत: मेरे लिए यही उचित होगा कि युद्ध भूमि में उतरने के पूर्व शत्रुजय तीर्थ के अधिपति भगवान् को वन्दन करके युद्ध स्थल पर उतरूं।' ऐसा विचार आते ही रात्रि में ही मन्त्री उदयन भगवान् की पूजन इत्यादि करके प्रभु के समक्ष ध्यान में बैठ गया। ध्यान-मुद्रा में ही उसने देखा – 'अकास्मात् ही एक चूहा दिये की बत्ती को लेकर मन्दिर के गर्भ-गृह में चला गया।' यह दृश्य देखते ही उदयन विचार करने लगा - 'यह मन्दिर काष्ठ का बना हुआ है। कदाचित् दिये की बत्ती से आग लग जाए तो मंदिर का विध्वंस अवश्यंभावी है।' ऐसा विचार कर उस दिये की बत्ती को बुझा दिया। विचार किया - 'इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर लकड़ी के स्थान पर संगमरमर का बनवाऊं।' ऐसा अभिग्रह कर उदयन युद्ध-स्थल की छावनी में आ गया। प्रात:काल शत्रु के साथ भयंकर युद्ध हुआ। शत्रुबल को जीत ही रहा था कि अकस्मात् वैरी ने भी एक बाण फेंका, जो कि उदयन के गुह्यस्थान पर लगा। उदयन अश्व से भूमि पर गिर गया। करुण-क्रदन करने लगा। सैनिक उसे उठाकर छावनी में ले आए। सेवक ने पूछा - आपको मानसिक सन्ताप क्या है जिसके कारण आप इतने दुःखित हो रहे हैं? __ सेनापति उदयन ने कहा - संग्राम में जय-विजय होती रहती है इसकी मुझे चिन्ता नहीं है। मुझे मानसिक चिन्ता इस बात की है - जो मैंने मन से अभिग्रह धारण किया है वह पूर्ण होगा या नहीं? सेवक ने पूछा - कौन सा अभिग्रह? शुभशीलशतक 137 For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयन ने कहा - मेरी मानसिक अभिलाषा है - श्री शत्रुञ्जयतीर्थ मन्दिर का उद्धार हो और भृगुकच्छ (भडोंच) में शकुनिविहार का उद्धार हो । जब तक मेरी ये दोनों कामनाएँ पूर्ण न हो अथवा पूर्ण होने का आश्वासन न प्राप्त हो जाए तब तक मैंने यह अभिग्रह धारण कर लिया है कि मैं भूमि पर ही शयन करूँगा और एकभत्त अर्थात् एकासन ही करूँगा। मेरे दोनों अभिग्रह यदि मेरे पुत्र वाग्भट्ट आदि सुनेंगे तो वे अवश्य ही मेरे मनोरथों को पूर्ण करेंगे। ___यह सुनकर ताम्बूलवाहक ने कहा - आपके दोनों अभिग्रहों को आपके माननीय पुत्रों के समक्ष मैं नहीं कह दूँगा तब तक मैं भी ..........। ताम्बूलवाहक की प्रतिज्ञा सुनकर उदयन मन्त्री अत्यन्त हर्षित हुआ और बोला - तुम भी धन्य हो। मेरा एक मनोरथ और है। ताम्बूलवाहक ने कहा - वह दूसरा मनोरथ भी बतलाईये? मन्त्री उदयन ने कहा - यदि इस संग्राम स्थल में कोई साधु महाराज पधार जाए और अन्तिम आराधना करवा दे तो मेरी निश्चिय ही सद्गति हो जाए। अनुचरों ने सोचा - मन्त्रीजी का जीवनकाल समाप्ति पर है। यदि विलम्ब किया गया तो यह मनोरथ उनके मन के मन में ही रह जायेंगे। जैसे भी हो इनकी आकांक्षा की पूर्ति करनी ही चाहिए। यह सोचकर उन अनुचरों ने किसी विदूषक को जैन साधु का वेष पहनाकर, समझा-बुझाकर मन्त्रीजी के समक्ष खड़ा कर दिया और उनके सम्मुख जिनेश्वर देव की प्रतिमा भी लाकर रख दी। मन्त्री उदयन जिनमूर्ति को नमस्कार कर उसकी भावस्तवना की और साधु-वेषधारी को वास्तविक साधु समझ कर उसको वन्दन किया तथा सब प्राणियों के साथ क्षमा-याचना की। मन्त्री उदयन के प्राणपखेरु उड़ गये। उदयन को भक्तिपूर्वक वन्दना करते हुए देखकर नकली वेषधारी उस विदूषक की भावना भी परिवर्तित हो गई। 'कहाँ मैं और कहाँ सेनापति मन्त्री उदयन, जिनके दर्शन भी दुर्लभ होते है। मैं नकली वेषधारी और मन्त्री उदयन मेरे चरणों में नमस्कार करे! यह वेष का चमत्कार है। अभी तक मैं 138 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकली वेषधारी था। अब मैं वास्तविक साधु बनकर जीवन यापन करूँगा।' उसने अन्तिम जीवन उसी वेष में रहकर सम्यक् आराधना की। उदयन के मरणोपरान्त उसकी सारी सेना पाटण आ गई। ताम्बूलवाहक ने सेनापति मन्त्री उदयन के मरण-पूर्व लिए गए अभिग्रह इत्यादि के समस्त वृत्तान्त उनके पुत्रों वाग्भट्ट, आम्रभट्ट आदि को सुनाये। पिताश्री के अभिग्रह/मनोरथों को सुनकर आम्रभट्ट और वाग्भट्ट ने प्रतिज्ञा की - 'जैसे भी हो हम पिताश्री के अभिग्रह को अवश्य पूर्ण करेंगे।' उन दोनों ने विपुल द्रव्य खर्च कर शत्रुञ्जय तीर्थ पर मूलमन्दिर का जीर्णोद्धार प्रारम्भ किया। दो वर्ष पश्चात् उनको यह बधाई प्राप्त हुई कि 'शत्रुञ्जय मूलमन्दिर का जीर्णोद्धार कार्य पूर्ण हो गया है।' बधाई के उपलक्ष्य में बधाई देने वाले को सोने की 'स्वर्ण जिह्वा' प्रदान की। कुछ समय पश्चात् ही जब उसे यह समाचार मिला कि 'शत्रञ्जय के प्रासाद का पतन हो गया है।' उसने इस अमंगलकारी बधाई देने वाले को दो स्वर्ण जिह्वा प्रदान की। सोचने लगे - 'आज हमने उद्धार करवाया है, भविष्य में कौन उद्धार करवायेगा? अब इस मन्दिर का इस प्रकार उद्धार करवाया जाए कि भविष्य में इसका पतन न हो।' यह सोचकर ४००० अश्वारोहियों के साथ शत्रुञ्जय तीर्थ पर पहुँचे और सोमपुरा को बुलाकर कहा - क्या किया जाए? भविष्य में निर्माण ऐसा हो कि इसके खण्डित होने की आशंका ही न हो।' सोमपुरा ने कहा - पूर्व प्रासाद का प्रचण्ड वायु के झंझावात से यह मन्दिर नष्ट हुआ है । यदि आप लोगों की इच्छानुसार पत्थरों का मन्दिर बनवाया जाए तो वह चिरकाल तक रहेगा। किन्तु, आपके सन्तान नहीं होगी। यह सुनकर आम्रभट्ट आदि ने विचार किया - ‘मन्दिरों के निर्माण के कारण ही भरतचक्रवर्ती आदि पंक्तिबद्ध मुकुटधारी राजाओं के नाम मिलते हैं । सन्तति का लोभ हो सकता है किन्तु मन्दिर के साथ बन्धे हुए नाम का विलोप नहीं हो सकता अर्थात् नाम अमर रहता है।' ऐसा निर्णय कर उन्होंने सम्वत् १२११ में प्रासाद का पुनर्निर्माण करवाया। अपने नाम से शुभशीलशतक 139 For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहड़पुर नाम का नगर बसाया और वहाँ त्रिभुवनपालविहार नाम का मन्दिर बनवाकर पार्श्वनाथ भगवान् की मूर्ति की स्थापना की। तीर्थ-पूजा हेतु २४ उद्यानों सहित नगर को संघ-ग्रामवासियों को समर्पित कर दिया सप्तषष्टियुता कोटी, व्ययिता यत्र काञ्चनी। स श्रीवाग्भट्टदेवोऽयं, वर्ण्यते न बुधैः कथम्॥ अर्थात् - इस मन्दिर के निर्माण में वाग्भट्ट देव (बाहड़) ने ६७ करोड़ कंचन मुद्राएँ व्यय कीं। क्या विद्वद्गण इस सुकृत कार्य की प्रशंसा नहीं करेंगे? आम्रभट्ट (आम्बड़) ने भृगुपुर नगर में शकुनिविहार का उद्धार और निर्माण करवाया और उसके निर्माण में ६ करोड़ सोनैया खर्च की। ९५. ध्वजारोपण. एक समय महाराजा सिद्धराज जयसिंह ने भगवान् रुद्र का विशाल मन्दिर बनवाया। ध्वजारोपण के समय मन में यह विचार आया कि 'ध्वजा तो केवल शिवालय पर ही होनी चाहिए, अन्य मन्दिरों पर नहीं।' ऐसा विचार कर समस्त जिन मन्दिरों पर जो ध्वजाएँ फहरा रही थीं वे हटा दी जाए, ऐसा आदेश दिया। मन्त्री-मण्डल ने इसका विरोध भी किया किन्तु उसने नहीं सुना। ___ महाराजा सिद्धराज जयसिंह एक समय मालवा मण्डल के अन्तर्गत श्रीनगर (उज्जैन) आया। वहाँ समस्त मन्दिरों पर फहराती हुई ध्वजाएँ देखकर राजा ने पूछा - ये किनके मन्दिर है जिन पर ये ध्वजाएँ फहरा रही हैं? उत्तर मिला - जिन मन्दिरों पर ये ध्वजाएँ लहरा रही हैं, वे सब शिव, ब्रह्मा और तीर्थंकरों के मन्दिर हैं। सुनकर राजा रुष्ट हुआ और बोला – जब मैंने हुक्म निकाल दिया कि जैन मन्दिरों पर ध्वजाएँ नहीं फहरायेंगी, फिर आप लोग जैन मन्दिरों पर ध्वजा क्यों लहरा रहे हैं? 140 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजकों ने उत्तर दिया - राजन् सुनिये - पूर्वकाल में कृतयुग के प्रारम्भ में भगवान् महादेव ने इस तीर्थ की स्थापना की थी। भगवान् ऋषभदेव और सृष्टि रचयिता ब्रह्मा का प्रासाद उन्होंने स्वयं ने बनवाया था। उन्होंने स्वयं ने ही ध्वजारोपण किया था। इन दोनों मन्दिरों पर हम परम्परा से ध्वजा चढ़ाते आ रहे हैं। इस कार्य को करते हुए चार युग व्यतीत हो चुके हैं। शत्रुञ्जय महागिरि की यह उपत्यका भूमि है। नगर पुराण में कहा भी है - पञ्चाशदादौ किल मूलभूमे-र्दशोर्ध्वभूमेरपि विस्तरोऽस्य। उच्चत्वमष्टैव तु योजनानि, मानं वदन्तीति जिनेश्वरादेः॥१॥ अर्थात् - इस पर्वत की मूल भूमि ५० योजन है। इसका विस्तार १० योजन है और इसकी ऊँचाई ८ योजन है, ऐसा जिनेश्वर-पर्वत शत्रुञ्जय का मान कहा है। कृतयुग में भगवान् आदिदेव ऋषभ के पुत्र भरत हुए और उन्हीं के नाम से यह भरत खण्ड कहा जाता है - नाभेरुता( ? )स वृषभो मरुदेविसूनु र्यो वै चचार समदृग् मुनियोगचर्याम्। तस्यार्हन्त्यसोमुषय(?) पदमामनन्ति, स्वस्थः प्रशान्तकरुणः समदृक्सुधीश्च ॥ अर्थात् - नाभि नरेश और मरुदेवी के पुत्र ऋषभ ने सम्यक् दृष्टिपूर्वक मुनियोगचर्या को धारण किया। प्रशान्तमना बने, करुणाधारक बने और अर्हत् बने जिनके चरणों में समताधारी विद्वान् भी नमस्कार करते है। अष्टमे मरुदेव्यां तु नाभेर्जाते उरक्रमः। दर्शयन्वर्त्म वीराणां, सर्वाश्रमनमस्कृतः॥ अर्थात् - अष्टम कुलकर नाभि और मरुदेवी के पुत्र ऋषभ ने वीरों को मार्ग बतलाया और जो समस्त आश्रमधारियों द्वारा वन्दनीय है। शुभशीलशतक 141 For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार पुराणों में कहे गये बहुत से पद्य विद्वानों ने राजा को सुनाये और इस बात को प्रमाणित करने के लिए प्रारम्भ में स्थापित ऋषभदेव के कोश भण्डार से भरत के नाम का पञ्चों द्वारा स्वीकृत कांसे का ताला राजा को दिखलाया। इन प्रमाणों को देखकर सिद्धराज जयसिंह ने अपने विचारों की निन्दा की और समस्त जिन प्रासादों में पुनः ध्वजारोपण किया। ९६. नारी का बुद्धि-चातुर्य. किसी वन में शमी वृक्ष पर शुक और शुकी का जोड़ा रहता था। उनके एक सन्तान हुई। एक दिन शुकी ने कहा - यह पुत्र मेरा है। शुक ने कहा - पुत्र मेरा है। दोनों में विवाद हो गया और वह विवाद झगड़े का रूप ले गया। वाद-विवाद बढ़ने पर दोनों न्याय के लिए राजा के पास गये। दोनों ने अपना-अपना पक्ष रखा। . दोनों ओर की बातें सुनकर राजा ने निर्णय दिया - यह पुत्र शुक का है। इस निर्णय से शुकी बहुत दुःखी हुई और शुक अपने पुत्र को लेकर चला गया। इधर शुकी जिन मन्दिर में गई। वहाँ भगवान् आदिनाथ की मूर्ति को देखकर उसमें श्रद्धा जागृत हुई और वह नियमित रूप से जंगल से फूल लाकर भगवान् की पूजा करने लगी। पूजन करते हुए क्रमशः आयुष्य पूर्ण होने पर हृदय में भगवान का ध्यान करती हुई वह मरण को प्राप्त हुई। वहाँ से च्युत होकर वह मन्त्रीश्वर की पुत्री के रूप में पैदा हुई। यहाँ उसका नाम तिलोत्तमा रखा गया। मन्त्री के घर में लालित-पालित होकर वह युवावस्था को प्राप्त हुई। शिक्षण प्राप्त कर सर्वक़लाओं के निपुण हुई। एक समय जिन मन्दिर में युगादिदेव की प्रतिमा देखकर चिन्तन करते हुए वह मूर्छा को प्राप्त हुई और उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। ज्ञान के द्वारा उसने अपना शुकी का पूर्वभव देखा। स्मरण में आया कि राजा ने मेरे साथ अन्याय किया था। 142 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन उसने अपने पिता/मंत्री से कहा - पिताजी आपके पास जो घोड़े हैं, उनको राजा की घोड़ियों के साथ गर्भाधान के लिए भिजवा दिया करें। मन्त्री को यह बात रुचिकर प्रतीत हुई और उसने राजा से परामर्श कर इस कार्य की स्वीकृति ले ली। मन्त्री के घोड़ों के द्वारा राजा की घोड़ियों ने अनेक किशोर घोड़े पैदा किये। राजाज्ञा प्राप्त कर मन्त्री उन किशोर घोड़ों को अपने यहाँ ले आया। एक दिन राजा ने पूछा - मन्त्रीवर! आप हमारे किशोर घोड़ों को अपने घर क्यों ले गये? मन्त्री ने कहा - मेरी पुत्री के कथनानुसार ही इन किशोर घोड़ों को मैं अपने यहाँ ले गया हूँ। ___ तब राजा ने मन्त्री की पुत्री को बुलाकर पूछा - हमारे किशोर घोड़ों को तुम अपने पिता के घर क्यों ले गई? . मन्त्री की पुत्री ने अवसर देखकर कहा - हे राजन् ! आपके राज्य में यही न्याय चलता है। जो पुत्र होता है, वह पिता का ही होता है, ये जितने भी किशोर घोड़े हैं, वे सभी मन्त्री के घोड़ों से पैदा हुए हैं। अतः उन सभी पर मन्त्री का ही अधिकार बनता है। इसलिए किशोर घोड़ों को हम ले गये। राजा ने विचार किया - इस मंत्रीपुत्री को बुद्धि का अजीर्ण हो रहा है, इसको शिक्षा देना आवश्यक है। अभी अवसर नहीं है अत: पहले इसके साथ विवाह कर लूँ और उसके पश्चात् उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करूँ जिससे वह अत्यन्त दुःखी हो जाए तथा अपने कथन पर पश्चात्ताप करने लगे। अर्थात् इसके कहने और बोलने की जिम्मेदारी इसी पर रहे। मन्त्री को अत्यन्त सम्मानित कर बड़े प्रपञ्च के साथ तिलोत्तमा के साथ उसने विवाह कर लिया। कुछ दिन बीतने पर राजा ने कहा - घमण्डिनी विदुषी कन्या ! तुम अपने को बहुत बुद्धिमति समझ रही हो, अतः मैं आदेश शुभशीलशतक 143 For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देता हूँ कि तुम यहाँ से जाओ और अपने पुत्र के साथ ही मेरे यहाँ आना अन्यथा नहीं। तिलोत्तमा ने सोचा - मेरे पतिदेव को राजा का अहंकार होने के कारण मेरे से बदला ले रहे हैं। खैर! वह तिलोत्तमा अपने पीहर चली गई और पिता के पास से द्रव्य लेकर अपने घर से राजमहल तक गुप्त सुरंग बनवाई । सुरंग के अन्तिम छोर पर देवविमान के समान बड़ा महल बनवाया। वहाँ बबूल और बैर का वृक्ष लगाया। उस महल में बढ़िया पलंग आदि लगवाए। तिलोत्तमा पाँच सखियों के साथ देवी के समान विशिष्ट अलंकारों को धारण कर ताम्बूल चर्वण करती हुई वहाँ रहने लगी। उन महलों में अनेक प्रकार के वादित्र बजने लगे। उन वादित्रों की ध्वनि राजा के कर्णों तक पहुँची और उस स्थान को देखने की इच्छा हुई। इधर तिलोत्तमा ने चतुर सेविका को राजा के पास भेजा। राजा ने पूछा – तुम कौन हो? तिलोत्तमा ने कहा - मैं विद्याधर पवनवेग की पुत्री की सेविका हूँ और मेरा नाम ज्ञानवती विद्याधरी है। - राजा सोचने लगा - जिसकी सेविका ही इस प्रकार सौन्दर्यवती हो तो वह न जाने कैसी होगी? राजा ने प्रकट रूप से कहा - जहाँ तुम्हारी स्वामिनी हो वहाँ मुझे ले चलो। सेविका ने कहा -- जैसा आपको प्रिय हो, वही मैं करूँगी किन्तु वहाँ आप अकेले ही जा सकते हैं। राजा ने खुशी-खुशी ही कहा- कोई बात नहीं, मैं अकेला ही चला जाऊँगा। उसकी सेविका ने उसकी आँखों पर पट्टी बांधी और अपने साथ उसे ले चली। महलों में पहुँच कर उसकी आँखों की पट्टी खोल दी और स्वयं भी लौट गई। पट्टी खुलने पर राजा ने अपने समक्ष दिव्यरूपधारिणी तिलोत्तमा 144 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को देखा । सोचने लगा- 'क्या यह विद्याधरी है ? देवांगना है? अथवा पाताल कन्या है ? ऐसा गजब का सौन्दर्य एवं ऐश्वर्य तो मैंने कभी नहीं देखा । यदि यह मेरी प्राणप्रिया बन जाए तो मेरा जन्म सफल हो जाए ।' वहाँ नाटकादि देखकर राजा वहाँ से चला गया और प्रच्छन्न रूप से उसको अपनी वल्लभा बनाने को दृष्टि में रखकर वहाँ बारम्बार आने-जाने लगा । एक दिन उसने उसकी सेविका विद्याधरी से पूछा स्वामिनी मुझे वर रूप में स्वीकार करेगी ? सेविका ने उत्तर दिया- मेरी स्वामिनी की यह इच्छा है कि उसका पति विद्याधर ही हो । राजा ने सोचा - यदि इसके साथ एक बार भी संगम हो जाए तो मेरा जीवन सफल हो जाए । एक दिन राजा वहाँ गया। उसकी सेविका वहाँ नजर नहीं आई । दूसरी सेविका से पूछने पर मालूम हुआ कि वह किसी काम से गई हुई है, ऐसा कहकर वह भी चल दी। उसी समय तिलोत्तमा ने आवाज लगाई - यहाँ कौन है ? मेरी पादुका लेकर आओ 1 उसी समय राजा उसके खड़ाऊ लेकर वहाँ गया और चरणों के पास रख दी। क्या तुम्हारी तिलोत्तमा ने पूछा - 'तुम कौन हो ?' उसने कहा मैं आपको देखनी की इच्छा से आपकी सेविका के द्वारा यहाँ लाया गया हूँ । तिलोत्तमा ने कहा 'अच्छा किया।' दूसरे दिन तिलोत्तमा ने फिर कहा- जो कोई भी पहरे पर हो, वह बैर और बबूल के पत्ते लेकर आए और मेरे घाव पर पट्टी बांध दे । 1 राजा ने वही किया। एक दिन राजा ने तिलोत्तमा से कहा - मैं तुम्हारे साथ संगम करना चाहता हूँ । शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 145 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोत्तमा ने कहा - मैं अपने प्रिय को छोड़कर अन्य पुरुष की कामना नहीं करती हूँ किन्तु तुम्हारी भक्ति से मैं तुम्हारे ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हुई हूँ अत: जैसा तुम्हे रुचिकर हो, वही करो। राजा ने तिलोत्तमा के साथ संगम किया, उसे गर्भ रहा। गर्भधारण करने के पश्चात् तिलोत्तमा ने वह भूमिगृह इत्यादि का विसर्जन कर दिया और सुरंग मार्ग से अपने पिता के घर चली गई। राजा के साथ इस प्रकार मिलन हुआ वह सारा वृत्तान्त पिता से बही में लिखवा दिया। इधर राजा उसके वियोग में दुःखी हुआ। बारम्बार उसका स्मरण करने लगा। सोचने लगा कि अब उसके साथ मेरा मिलन कब होगा? उसकी दर्शन और मिलन की उत्कण्ठा में वह पागल सा हो गया। इधर मन्त्री-पुत्री तिलोत्तमा के पुत्र उत्पन्न हुआ। कुछ बड़ा होने पर शिबिका में बैठकर वह आडम्बर के साथ सखियों एवं पुत्र को साथ लेकर राजमहल में पहुंची। राजा ने पूछा - तुम कौन हो? उसने कहा - मैं आपकी पत्नी तिलोत्तमा पुत्र सहित आई हूँ। क्या आपने मुझे नहीं पहचाना? राजा विचार करने लगा - यह तिलोत्तमा मेरी पत्नी अवश्य है, किन्तु यह पुत्र कैसा है? राजा चौंका। उसी समय मन्त्री ने पुत्री के द्वारा लिखाये गये वृत्तान्त की बही को राजा के समक्ष रखा। राजा ने उसे पढ़ा, चमत्कृत हुआ और अपनी भूल स्वीकार कर उसे स्वीकार किया और कहा - 'सचमुच में तुम विदुषी हो', ऐसा सब लोगों के सामने कहा। उस समय तिलोत्तमा ने अपने जातिस्मरण ज्ञान से पूर्वजन्म में घटित समस्त घटनाओं का वर्णन राजा के समक्ष किया। सब लोग प्रसन्न हुए। राजा विशेष रूप से धर्मकृत्य करने लगा। पुत्र का नाम जिनदत्त रखा। धर्म का आराधन करते हुए वह राजा स्वर्ग को प्राप्त हुआ। शुभशीलशतक 146 For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७. सिद्धचक्रवर्ती विरुद और योगिनियाँ. अणहिलपुर पत्तन में चौलुक्यवंशीय कर्ण राजा का पुत्र जयसिंहदेव यात्रा करके सहस्रलिंग सरोवर के मध्य में बगस्थल पर बैठा । इसी बीच बहुत से वेद-पाठी याज्ञिक बाह्मण लोग यात्रा के लिए चले । गंगा, गोदावरी आदि तीर्थस्थलों में स्नान करके केदार पर्वत की ओर प्रयाण किया । हिमालय पर औषधि के लिए घूमते हुए उन्होंने एक योगी को देखा। उस योगी के सिद्धि, बुद्धि नाम की दो छोटी शिष्याएँ थी । जिनको यहाँ रउलाणी के नाम से कहा गया है। उन दोनों क्षुल्लक योगिनियों को देखकरं ब्राह्मणों ने उनको नमस्कार किया और उनके सम्मुख बैठे I योगिनी ने उनका कुशल-क्षेम पूछने के पश्चात् आप लोग कहाँ से आए हो ? यह भी पूछ लिया । उन वैदिक ब्राह्मणों ने कहा- हम पत्तन नगर से आए हैं। उन दोनों क्षुल्लिकाओं ने पूछा- तुम्हारा स्वामी कौन है ? उन्होंने कहा - हमारा स्वामी सिद्धचक्रवर्ती जयसिंहदेव है । यह सुनकर दोनों रुष्ट होकर कहने लगी - अरे ब्राह्मणों! यदि वह सिद्ध है तो चक्रवर्ती कैसा? और यदि वह चक्रवर्ती है तो उसका सिद्धत्व कैसा ? तत्पश्चात् वे दोनों सिद्धि बुद्धि नाम की योगिनियाँ राजा के सिद्धचक्रवर्ती विशेषण/उपाधि की परीक्षा करने के लिए पत्तन नगर पहुँची । आप राजा ने सभा में बैठे हुए देखा कि वे योगिनियाँ कदलीपत्र पर बैठकर आ रही हैं । राजा ने उठकर उनका सत्कार किया और पूछा यहाँ किसलिए पधारी हैं ? उन दोनों ने कहा आपके नाम के साथ जो सिद्धचक्रवर्ती उपाधि है, उसका परीक्षण करने हम यहाँ आई हैं। आप बतलाईये - 'आप सिद्ध और चक्रवर्ती एक साथ कैसे हैं? ' शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only - 147 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ने उत्तर दिया - समय पर बतलाऊँगा। उनके ठहरने की सुन्दर व्यवस्था कर दी। कई दिन व्यतीत हो गये। राजा संदेह- भँवर में चक्कर खाने लगा। इसी बीच महासचिव शान्तु मेहता ने राजा से पूछा - राजन् ! आप दुर्बल कैसे हो रहे हैं? राजा ने सिद्धि-बुद्धि के आगमन और उनके प्रश्नों का कारण बतलाया और कहा - इसीलिए मैं दुर्बल होता जा रहा हूँ, योगिनियों को क्या उत्तर दूँ? उसी समय राजा के हाथ में बिजोरा देकर सज्जन खड़ा रहा। राजा सोच-विचार में पड़ा हुआ फल को ग्रहण न कर सका। कुछ क्षण पश्चात् राजा ने ग्रहण किया। सज्जन ने यह सारा वृत्तान्त अपने पिता को जाकर कहा। राजा चिन्तातुर है, ऐसा जानकर सज्जन के पिता ने कहा - हे वत्स! हम क्या करें? हम दरबार में जाते है तो भी हमें कोई सम्मान नहीं देता। राजा कर्णदेव के समय में इस प्रकार की अनेकों बार परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई थीं, उन सब समस्याओं को मैंने अपने बुद्धिबल से हल कर दी थी। पिता-पुत्र की इस वार्ता को महल के नीचे खड़े हुए मन्त्री ने सुना। उसने (मन्त्री ने) जाकर राजा को कहा। राजा ने तत्क्षण ही उनको बुलाने के लिए अपने आदमी भेजे और कहलाया - 'महाराज, बुला रहे हैं।' सेवकों ने जाकर कहा – हरपाल धर्मध्यान में संलग्न है, इसलिए हम वापस आए हैं। यह सुनकर मन्त्री शान्तु मेहता स्वयं हरिपाल के घर गया और कहा- महाराज ने आपको बुलाने के लिए मुझे भेजा है। हरपाल ने शान्तु मेहता का स्वागत किया और कहा - 'यह समय मेरी देवपूजा का है। अच्छा हुआ आप यहाँ आ गये। मेरा सौभाग्य है कि आप मेरे घर आए, आप भी देवपूजा करिये और पश्चात् प्रसन्नतापूर्वक भोजन ग्रहण कीजिये।' शान्तु मेहता ने वैसा ही किया। भोजन के पश्चात् दोनों सुखासन (शिबिका) पर बैठकर महाराजा के समीप गये। 148 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ने कहा कारण है? हरपाल ने कहा चिन्तातुर मनुष्य धर्मध्यान में परायण होते हैं । आप चिन्ताशील हैं। आज आप मुझे काका कह रहे हैं अन्यथा आप नाम भी ग्रहण नहीं करते हैं अर्थात् बुलाते भी नहीं हैं । काका! आजकल आप आते ही नहीं हो, क्या हो जाऊँ । राजा ने हंसते हुए कहा - 1 अब आप ऐसा करिये कि मैं चिन्तामुक्त हरपाल ने कहा - हे देव! श्रेष्ठ लोहे की बनी हुई आपकी जो छुरी है, उसकी मूठ मुझे प्रदान कीजिए। राजा ने मूठ दे दी । आठ दिन की मोहलत देकर हरपाल अपने घर आ गया। हरपाल ने उस छुरी का शक्कर का ऐसा फलक बनवाया कि वह चन्द्रहास लोह का भ्रम पैदा करता था । वह छुरी राजा के धारण योग्य हो गई उसको प्रतिहार को दे करके सोने की बनवाई । वह छुरी मन्त्री शान्तु मेहता के हाथ में देकर बुद्धिमत्तापूर्वक उसका स्वरूप राजा को बतला दिया। दूसरे दिन राजसभा में सिद्धि और बुद्धि नामक दोनों योगिनियाँ आईं। उस समय मन्त्री ने कहा 'हे राजन् ! इन दोनों को यहाँ आये हुए बहुत समय हो गया है। आप अपनी कोई कला इनको दिखालाइये और इन दोनों की विशेष कला को देखकर इनको विदा करिये।' अन्तिम वाक्य मन्त्री कुछ रोष के साथ कहा था । ने उसी समय राजा ने उन दोनों रउलाणियों ( योगिनियों) को पूछा कहिये ! आप मेरी कौनसी विशिष्ट कला जानना चाहती हैं? और आपके गुरु कौन हैं ? उन योगिनियों ने उत्तर दिया- हमारे दोनों के गुरु अचलनाथ हैं । राजा ने कहा- हमारे भी वे ही गुरु शुभशीलशतक हैं 1 - For Personal & Private Use Only 149 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी बीच में प्रतीहार ने राजसभा में आकर प्रणाम करके कहा - देव! कटक के अधिपति (सेनापति) प्रमाडि राजा ने आपके लिए कल ही उपहार (भेंट) भेजा है। राजा ने पूछा - वह क्या है? प्रतीहार ने कहा - मन्त्रीगण द्वार पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, वे ही इसका उत्तर देंगे। राजा ने कहा - सम्मान के साथ उनको यहाँ ले आओ। वे मन्त्रीगण वहाँ आए और उन्होंने प्रणाम कर निवेदन किया - हे देव ! सोलह चाँदी के हाथी और बारह पेटिकाएँ ऋद्धि से भरी हुई पीछे आ रही हैं । हे देव ! बंगाल देश के राजा ने आपके लिए अनेक वस्तुओं के साथ दर्शनीय छुरी भेजी है। वह छुरी प्रमाडि राजा ने ही भेजी है। राजा ने कहा - पहले उस छुरी को ही दिखाओ। उन्होंने राजाज्ञा प्राप्त कर सात वस्त्रों में लिपटी हुई छुरी निकालकर राजा के हाथ में रखी। राजा ने देखा - प्रशंसा की। सभासदों ने भी देखा - उन्होंने भी प्रशंसा की। सिद्धि और बुद्धि योगिनियों ने भी उसे हाथ में लेकर देखा - प्रसन्न हुई और उस छुरी को राजा को वापस दे दिया। इसी बीच अवसर देखकर मन्त्री शान्तु मेहता ने कहा - हे देव! इन योगिनियों के साथ आप वार्तालाप करिये और अपनी कला दिखलाइये और प्रतिपक्षियों की कला भी देखिये। राजा ने कहा - आप लोग अपनी-अपनी कला दिखलाइये। उन दोनों ने ७२ कलाओं में अपना कौशल दिखलाया। मन्त्री ने कहा- अब आप भी अपनी कला दिखलाइये। 150 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा ने कहा - जो आप कहें वही कला दिखला देता हूँ। मन्त्री ने कहा - हे देव! ऐसा ही है तो इस लोहमयी छुरि का आप भक्षण कर लें। राजा ने तत्काल ही उस छुरि का के फलक का भक्षण कर लिया। उसी समय दूसरे आमात्य ने छुरी हाथ में लेकर कहा – 'हे देव! आपने श्रेष्ठ लोहमय फलक को भक्षण कर जो कला का प्रदर्शन किया है वैसी ही कला का प्रदर्शन ये दोनों योगिनियाँ भी करें। ज्यों ही राजा उसकी मूठ को देने लगा, उसी समय मन्त्री ने कहा - यह तो झूठी हो गई। झूठी मूठ को आप कैसे दे रहे हैं? मन्त्री ने कहा - धातुयें उच्छिष्ट नहीं होती, अतः जल से प्रक्षालन कर इन्हें दी जाएँ। उसी समय वे दोनों योगिनियाँ बोली – 'हे देव! आप इस प्रकार शक्तिसम्पन्न हैं, यह तो हमने कल्पना भी नहीं की थी। आपका सिद्धचक्रवर्ती विरुद युक्तियुक्त है। इस प्रकार की शक्ति अन्य किसी में नहीं है।' सब लोग आश्चर्यचकित हो गए। उन योगिनियों का भी राजा ने सम्मान किया और वे अपने स्थान पर चली गईं। पूर्व मन्त्री हरपाल का भी सम्मान कर उसको पुनः मान्यता प्रदान की। इस प्रकार महाराजा सिद्धराज जयसिंह का सिद्धचक्रवर्ती विरुद कला के साथ सिद्ध हुआ। ९८. भाग्यानुसार ही प्राप्त होता है. सप्तद्वीपाधिपस्यापि, तृष्णा यस्य विसर्पिणी। दरिद्रः सां तु विज्ञेयः, सन्तुष्टः परमेश्वरः॥ अर्थात् - सातों द्वीपों का अधिपति होने पर भी तृष्णा बढ़ती ही जाती है और उस तृष्णा का धारक दरिद्र ही होता है। सन्तुष्ट तो केवल परमेश्वर ही होते हैं। शुभशीलशतक 151 For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानेन तुल्यो निधिरस्ति नान्यः, सन्तोषतुल्यं धनमस्ति नान्यत्। विभूषणं शीलसमं कुतोऽस्ति, लाभोऽस्ति नारोग्यसमः पृथिव्याम्॥ ___ अर्थात् - दान के समान अन्य कोई निधि नहीं है, सन्तोष के तुल्य कोई धन नहीं है, शील के समान कोई आभूषण नहीं है और आरोग्य के समान इस पृथ्वी पर कोई लाभ नहीं है। ___ यह नहीं सोचना चाहिए कि मैं अर्थहीन हूँ क्योंकि धन विनाशशील है और पौरुष स्थिर है। कहा भी है - सकृत्कन्दकपातं हि, पतत्यार्यः पतन्नपि। कातरस्तु पतत्येव, मृत्पिण्डपतनेन हि॥ अर्थात् - जिस प्रकार गेंद नीचे गिरकर ऊपर उठती है, उसी प्रकार आर्य पुरुष भी पतित होकर/गिरकर भी उन्नति को प्राप्त करते हैं और मिट्टी का ढेला भूमि पर गिरता है फिर ऊपर नहीं उठता। उसी प्रकार कातर मनुष्य भी गिरने के बाद ऊपर नहीं उठता। __ अधिक क्या कहें? कितने ही लोग धनवान होते हैं और उसका उपभोग करते हैं और कितने ही केवल उस धन के रक्षक होते हैं? कहा भी है - अर्थस्योपार्जनं कृत्वा, नैव भोग्यः समश्रुते। अरण्यं महदासाद्य, मूढः सोमिलको यथा ॥ अर्थात् - धन का उपार्जन करने पर भी कई लोग उसका भोग नहीं कर पाते हैं, जिस प्रकार मूर्ख सोमिलक धनोपार्जन करके भी वनवासी/ दरिद्री ही रहा। किसी नगर में सोमिलक नाम का जुलाह रहता था। वह मनुष्यों के धारण करने योग्य अनेक प्रकार के वस्त्रों का निर्माण करता था किन्तु इससे वह अपना गुजारा मात्र ही कर पाता था, धन बचता नहीं था। उसने देखा कि जो मोटे वस्त्र बनाने वाले जुलाहे हैं, वे तो धनवान हो रहे हैं। ऐसा देखकर उसने अपनी पत्नी से कहा – प्रिये ! हमें यहाँ नहीं रहना चाहिए, दूसरे देश की ओर चलना चाहिए क्योंकि यहाँ अपने पास कुछ भी नहीं बचता है। 152 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भार्या ने उत्तर दिया - हे प्रिय! यह आपका कथन ठीक नहीं है कि अन्य स्थान पर जाने से हमें धन की प्राप्ति होगी। कहा भी है - न हि भवति यन्न भाव्यं, भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन। करतलगतमपि नश्यति, यस्य च भवितव्यता नास्ति। अर्थात् - भवितव्यता के कारण जो नहीं होना है, वह नहीं होगा और जो होना है वह बिना प्रयत्न के नहीं होगा। जिसकी भवितव्यता नहीं है, उसके हाथ में आया हुआ माल भी नष्ट हो जाता है। यथा धेनुसहस्रेषु, वत्सो विन्दति मातरम्। एवं पूर्वकृतं कर्म, कर्तारमनुधावति॥ अर्थात् - जिस प्रकार हजारों गायों के बीच में बछड़ा अपनी माँ को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्व जन्म में किये हुए कर्म भी कर्ता के पीछे लगे रहते हैं। यथा छायातपौ नित्यं, सुसम्बद्धौ परस्परम्। एवं कर्म च कर्ता च संश्लिष्टावितरेतरम् ।। अर्थात् - जिस प्रकार छाया और धूप दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं उसी प्रकार कर्म और कर्ता भी एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। अतएव प्रिय ! यहीं रहना उपयुक्त है। व्यवसाय (पुरुषार्थ) के बिना कर्म फलदायक नहीं होता है। कहा भी है - न यथैकेन हस्तेन, तालिका संप्रपद्यते। तथोद्यमपरित्यक्तं, न फलं कर्मणः स्मृतम् ।। अर्थात् – एक हाथ से ताली नहीं बजा करती, उसी प्रकार उद्यम के बिना कर्म/भाग्य भी फल नहीं देता है। पश्य कर्मवशात्प्राप्तः, भोज्यकाले च भोजनम्। हस्तोद्यम विना वक्त्रे, प्रविशेन्न कथञ्चन॥ अर्थात् - देखो ! कर्म के फलस्वरूप भोजन के समय भोजन प्राप्त हो जाता है किन्तु यदि हाथ उद्यम न करें तो वह भोजन मुख में नहीं जा सकता। शुभशीलशतक 153 For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः। नहि सुप्तस्य सिंहस्य, पतन्ति वदने [ प्रविशन्ति मुखे] मृगाः॥ अर्थात् - उद्यम से ही सिद्धि प्राप्त होती है, केवल मनोरथों से अर्थ प्राप्त नहीं होता। सोते हुए सिंह के मुख में मृग नहीं आता है अर्थात् उद्यम करने पर ही वह शिकार को अपने आगोश में ले लेता है। कहा भी है - स्वशक्त्या कुर्वतः कर्म, सिद्धिश्चेन्न भवेद् भुवि। नोपालभ्यः पुमांस्तत्र, दैवान्तरितपौरुषम्॥ अर्थात् - अपनी शक्ति के अनुसार उद्यम/उद्योग करने पर भी यदि सफलता प्राप्त नहीं होती है तो कर्म को उपालम्भ नहीं देना चाहिए, अपितु अपने पौरुष का प्रयोग करना ही श्रेष्ठ है। पत्नी के मना करने पर भी मुझे दूसरे देशान्तर जाना ही चाहिए, ऐसा सोचकर वह वहाँ से वर्धमानपुर नगर की ओर निकल पड़ा। उस नगर में तीन वर्ष तक परिश्रम करके ३०० स्वर्ण मुद्राओं का उपार्जन किया और पुन: अपने गाँव की ओर चला। आधा मार्ग व्यतीत होने पर एक भयंकर जंगल में सूर्यास्त के समय पहुँचा। वहाँ वटवृक्ष की बड़ी शाखा पर चढ़कर सो गया। रात्रि में उसने स्वप्न में देखा कि दो पुरुष क्रोधित होकर आपस में बोल रहे है। उनमें से एक ने कहा - हे कर्ता ! तुमने मुझे बहुत बार रोके रखा कि इस सोमिलक के भाग्य में भोजन के अतिरिक्त धन नहीं है । अत: उससे अधिक धन उसे मत देना। तुम्ही बताओ यह ३०० स्वर्ण मुद्राओं का मालिक कैसे बन गया? दूसरा पुरुष बोला - हे कर्म! व्यवसायी को व्यवसाय के अनुरूप फल देना ही चाहिए और तुमने उसके परिणाम स्वरूप उसको धन भी दिया, इसलिए तुम्हारे अधिकार में है तुम चाहो तो इसका हरण कर लो। .. यह सुनकर सोमिलक स्वप्न से जागृत हुआ और सोने की मुद्राएँ जो उसने कमर पर लपेट रखी थी, उसको सम्भाला किन्तु वह नोलिया खाली नजर आया। सोमिलक विचार करने लगा - अहो ! मैंने कष्ट से धन को प्राप्त शुभशीलशतक 154 For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया था वह यों ही चला गया। मेरा परिश्रम बेकार गया। अब मैं धन-रहित होकर अपनी पत्नी को मुख कैसे दिखाऊँगा? इसलिए मैं पुनः वर्धमानपुर जाकर धनोपार्जन करूँ। पुनः वह वर्धमानपुर गया और एक वर्ष में ही ५०० सौनैया अर्जित कर अपने घर की ओर दूसरे मार्ग से चला। मार्ग में सूर्यास्त होने पर वह वट-वृक्ष के नीचे ठहरा, सोचने लगा - यह बड़ा कष्टकारी है। इस भवितव्यताने मेरे साथ क्या खिलवाड़ कर रखा है? भाग्यहीन होने के कारण मैं उसी राक्षस रूपी वट-वृक्ष के नीचे आ गया हूँ। इस प्रकार चिन्ताकुल होता हुआ भी निद्राधीन हो गया। स्वप्न में उसने उस वृक्ष की शाखा पर दो पुरुषों को देखा। उन दो में से एक बोला - हे कर्ता ! यह सोमिलक भाग्यहीन है। तुमने उसे ५०० सोनैयों का मालिक कैसे बना दिया? क्या तुम नहीं जानते कि पेट भरने के अतिरिक्त इसके पास पैसा नहीं होना चाहिए। दूसरा बोला - अहो कर्म! मेरा कर्त्तव्य है कि व्यवसायी के पुरुषार्थ को सफल करना। मुझे उपालम्भ क्यों दे रहे हो? यह दृश्य देखते ही सोमिलक की आँखें खुली और अपनी ग्रन्थी पर हाथ फेरा तब वह ग्रन्थी खाली नजर आई। सोमिलक को वैराग्य प्राप्त हुआ और वह विचार करने लगा - 'अहो ! मुझे धिक्कार हो, जीवन रथ धन के बिना नहीं चलता है। इसलिए इसी वट-वृक्ष की शाखा में वस्त्र की फाँसी लगाकर मैं अपना प्राण त्याग कर दूं।' इस प्रकार विचार कर वह ज्यों हि शाखा को पकड़ने का प्रयत्न करता है उसी समय आकाश से एक पुरुष बोलता है - हे सोमिलक! तुम व्यर्थ में दुःसाहस क्यों कर रहे हो? मैंने ही तुम्हारे धन का हरण किया है, गुजर-बसर के अतिरिक्त तुम्हारे पास धन हो इसको मैं सहन नहीं कर सकता था। इसलिए हे सोमिलक! तुम अपने घर जाओ किन्तु देव-दर्शन कभी भी निष्फल नहीं होते है। अत: तुम अपनी इच्छानुसार वरदान मांग लो। शुभशीलशतक 155 For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सुनकर सोमिलक बोला यदि ऐसा ही है तो मुझे प्रभूत समृद्धिशाली बनाईये । वह पुरुष बोला भद्र! तुम धन का उपभोग और त्याग करना नहीं जानते हो, गुजर-बसर के अतिरिक्त तुम धन का प्रयोग नहीं कर सकते । - सोमिलक ने कहा यह सत्य है कि मैं धन का भोग करना नहीं जानता फिर भी मुझे धन चाहिए। कहा भी है - कृपणो ऽप्यकुलीनो ऽपि, सेव्यते च नरो 156 सदा लोकै-र्यस्य अर्थात् जिसके पास धन है, वह चाहे कृपण हो, अकुलीन हो, फिर भी धन-रहित लोगों द्वारा इस जगत में उसकी पूछ होती है। शिथिलाश्च सुबद्धाश्च, पतन्ति न पतन्ति निरीक्षिता मया भन्ने, वर्षाणि दश पञ्च धनविवर्जितैः । स्याद्वित्तसञ्चयः॥ अर्थात् - हे भद्रे ! मैं पन्द्रह वर्षों से देख रहा हूँ कि इसका (अण्डकोश) शिथिल हो रहा है मानो गिरने वाला हो, तब भी चमड़ी के साथ अच्छी तरह से बंधा हुआ हैं, ये गिरेगा या नहीं, मैं नहीं जानता । अर्थात् - इस पद्य का क्या आशय है ? स्पष्ट करिये, सुनिये । किसी नगर के बाहर अथवा जंगल में प्रलम्बवृषण (जिसका अण्डकोश लम्बा है) नाम का एक सांड रहता था। वह अपने मद के जोश में अपने पारिवारिकजनों को छोड़कर, अपने सिंगों से नदी के किनारों को तोड़कर इच्छानुसार घास खाता हुआ वन में रहता था । उसी वन में एक सियार भी जोड़े के साथ रहता था । किसी समय सियार अपनी सियारिणी के साथ नदी के किनारे बैठा हुआ था। उसी समय प्रलम्बवृषण सांड उधर आया । उस सांड के लटकते हुए अण्डकोशों को देखकर सियारिणी ने सियार से कहा स्वामी! इस बैल के लटकते हुए माँसपिण्डों को देखो। यह किसी भी क्षण गिर सकते हैं। एक पहर भी लग शुभशीलशतक - च । For Personal & Private Use Only च॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है और दिन भी लग सकता है, किन्तु गिरेंगे अवश्य। इसलिए हम दोनों इसके पीछे-पीछे चलें। सियार ने उत्तर दिया- हे प्रिये ! मैं नहीं जानता कि यह माँस-पिण्ड गिरेगा अथवा नहीं। व्यर्थ में परिश्रम क्यों करे? यदि यहीं पर यह लटकता हुआ माँस पिण्ड गिर जाए तो मैं तेरे साथ ही उसका आराम से भक्षण करूं अथवा कुछ दूरी तक इसका पीछा भी करूं । पीछा करने पर अपना जो स्थान है, उस पर किसी ने कब्जा कर लिया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे, इसलिए इसका पीछा करना उपयुक्त नहीं है।' कहा भी है - यो ध्रुवाणि परित्यज्य, अधुवाणि निषेवते। ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति, अधुवं नष्टमेव च। अर्थात् - हाथ की वस्तु को छोड़कर जो परोक्ष वस्तु की कामना करता है। इस दशा में उसकी हस्तगत वस्तु भी चली जाती है और परोक्ष वस्तु भी नहीं मिलती है। यह सुनकर उस सियारिणी ने कहा - प्रिय ! आपके ये वचन कायर पुरुषों के हैं। कहा भी है - यत्रोत्साहसमालम्बो, यत्रालस्यविहीनता। नय-विक्रमसंयोग-स्तत्र श्रीरखिला ध्रुवम्॥ अर्थात् - जहाँ उत्साह का आलम्बन हो, आलस नहीं हो और पुरुषार्थ का संयोग हो, वहाँ निश्चित रूप से लक्ष्मी निवास करती है। और भी कहा है - म दैवमिति संचिन्त्य, त्यजेदुद्योगमात्मनः । उद्योगेन विना तैलं, तिलेभ्योऽपि न जायते॥ अर्थात् - भाग्य के भरोसे से जो स्वयं का उद्यम-परिश्रम त्याग कर देता है वह अयुक्त है क्योंकि उद्यम करने से ही तिलों से तैल प्राप्त होता है। तुम्हारा यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है कि यह लम्बमान माँसपिण्ड गिरेगा अथवा नहीं? सियारिन के प्रोत्साहन से वह सियार भी चूहे आदि भक्ष्य पदार्थों को छोड़कर अण्डकोश खाने की इच्छा से उस साँड के पीछे शुभशीलशतक 157 For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घूमने लगा। किन्तु, उसका अण्डकोश गिरा नहीं। १५ वर्ष व्यतीत हो गये तब खिन्न होकर उस सियार ने कहा - शिथिलाश्च सुबद्धाश्च, पतन्ति न पतन्ति च। निरीक्षिता मया भद्रे, दश वर्षाणि पञ्च च॥ अर्थात् - ये शिथिल अवश्य हैं किन्तु चमड़ी से बंधे हुए हैं। ये गिरेंगे या नहीं, मैं नहीं जानता। हे भद्रे ! इसी रूप में देखते हुए हमारे पन्द्रह वर्ष व्यतीत हो गये। भविष्य में भी इनका पतन होगा, नहीं जानते, अतः इसका पीछा छोड़कर अपने जंगल के उस स्थान में चलें और वहीं चूहे आदि का भक्षण करते रहें। इसलिए मैं कहता हूँ कि धनवान की सब जगह पूछ/आवभगत होती है, अतः आप मुझे प्रचुर धन प्रदान करें। ___सोमिलक की याचना सुनकर वह पुरुष बोला - यदि ऐसा ही है तो तुम वर्धमानपुर वापस जाओ। वहाँ धनगुप्त और धनभुक्त रहते हैं। उनकी चेष्टाओं और व्यवहार को देखकर तुम मेरे से याचना करना। उसी समय सोमिलक विस्मित होकर वर्धमानपुर गया। सायंकाल धनगुप्त के घर पहुँचा, वहाँ उसने देखा कि वह धनगुप्त अपनी पत्नी और पुत्रों से तिरस्कृत होकर घर के आँगन में बैठा हुआ है। सोमिलक को भोजन के समय घी-तेल रहित भोजन मिलता है। वह रात्रि को वहीं विश्राम करता है। रात्रि में दो पुरुषों को आपस में वार्तालाप करते हुए देखता है। उनमें से एक पुरुष बोलता है - हे कर्ता ! आज तुमने धनगुप्त का अधिक खर्या करवा दिया, जो इसने सोमिलक को भोजन करवाया, यह तुमने अच्छा नहीं किया। यह सुनकर दूसरा पुरुष बोला - हे कर्म! इसमें मेरा दोष नहीं है। मैंने तो उसे लाभ प्राप्त हो, इसलिए ऐसा किया किन्तु, इसका फल तो तुम्ही दे सकते हो। . धनगुप्त ज्यों ही उठता है त्यों ही वह उल्टी कर देता है। दूसरे दिन वह खिन्न होकर लंघन करता है। 158 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमिलक वहाँ से धनभुक्त के घर गया। उसने भी भोजन कराया। संध्या का समय सुख-समाधि से बिता । रात्रि में उसने दो पुरुषों को बातचीत करते हुए पुनः देखा। एक पुरुष बोला- हे कर्ता! आज इस धनभुक्त ने सोमिलक को भोजन कराया। उसमें तुमने इसका बहुत खर्चा करवा दिया। यह धन उसने व्यापार से ही प्राप्त किया था। दूसरा पुरुष बोला - 'हे कर्म! यह कर्तृत्व मेरा ही था किन्तु इसकी परिणति/फल देने वाले तो तुम्हीं हो। प्रात:काल किसी राजपुत्र ने राजमहल से प्राप्त धन धनभुक्त को दिया था। यह संचय नहीं कर सकता किन्तु, उसने भोग किया। भाग्य में जो लिखा होता है वही मैं कर सकता हूँ, भाग्य से अधिक नहीं। उनका वार्तालाप सुनकर सोमिलक सन्तुष्ट हुआ। उसने यह सोच लिया कि मेरे भाग्य में नहीं लिखा है तो देव से याचना भी क्यों करूँ। ९९. व्रत-पालन में अडिग मुनि राजगृह नगर में चार समान अवस्था वाले चार वणिक् मित्र रहते थे। अन्यदा सोम, भोम, कमल और धन नामक चारों ने धर्म सुनकर आचार्य भद्रबाहु के पास संयम ग्रहण कर लिया और श्रुतज्ञानी हुए तथा गुरु का आदेश प्राप्त कर विचरण करने लगे। जहाँ भी सूर्यास्त होता वे लोग रुक जाते थे। एक दिन भयंकर सर्दी पड़ रही थी, उस समय एक मुनि वैभारगिरि के पास में ही ध्यानस्थ हो गया, दूसरा उद्यान में खड़ा रहा, तीसरा मुनि उद्यान के बाहर ध्यान करता रहा और चौथा मुनि नगर के समीप ही ध्यानस्थ होकर खड़ा रहा। उनमें से जो वैभारगिरि पर्वत के पास ध्यानस्थ था वह अत्यधिक ठण्ड के कारण पहले पहर में ध्यान करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हुआ, उद्यान में रहने वाला दूसरा मुनि दूसरे पहर में मृत्यु को प्राप्त हुआ, उद्यान के बाहर ध्यान करता तीसरा मनि तीसरे पहर में स्वर्गवासी हआ और नगर के समीप रहने वाला चौथा मुनि भी चौथे पहर में देवलोक की ओर गमन कर गया। इस प्रकार चारों ही मुनि अपने नियमों में अडिग रहे। शुभशीलशतक 159 For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००. सौवर्णिक दण्डालक अरिमर्दन राजा अपने सिंहासन पर बैठा हुआ था, उस समय कोई सिद्ध पुरुष वहाँ आया। राजा ने बैठने के लिए उसको आसन दिया। वह सिद्ध पुरुष बोला - मुझे निम्न स्थान पर आसन दे कर क्या तुम बड़े हो गये हो? यह सुनकर राजा बोला – राजा के आसन से दूसरे का आसन नीचा ही होता है। सुनकर सिद्ध पुरुष बोला - मैं तुम्हे स्वर्णसिद्धि देने के लिए यहाँ आया था। तुमने मेरा विनय/आदर-सत्कार नहीं किया इसलिए मैं वापस जाता हूँ। ऐसा कहकर अपने छात्र को छोड़कर वह सिद्ध पुरुष आकाश में चला गया। यह देखकर राजा बहुत खिन्न हुआ और उसने सिद्ध पुरुष के शिष्य को कहा- हे छात्र! मैंने तुम्हारे गुरुजी का विनय नहीं किया, मेरी गलती हुई। आगे से मैं उनको पूर्ण सम्मान दूंगा। तुम अपने गुरु को मनाकर ले आओ। छात्र के अनुनय विनय को ध्यान में रखकर वह सिद्ध पुरुष पुनः वहाँ आया। राजा ने स्वर्णसिद्धि के लिए याचना की। उस पर वह सिद्ध योगी बोला - आज से तुम मेरा नाम सौवर्णिक दण्डालक रखोगे तो ही मैं तुम्हे स्वर्णसिद्धि दूंगा। यह सुनकर राजा ने उसका नाम सौवर्णिक (सोनियों में) दण्डालक रख दिया। 160 शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महोपाध्याय विनयसागर एक परिचय जन्म-तिथि : 1 जुलाई 1929 माता-पिता (स्व.) श्री सुखलालजी झाबक, श्रीमती पानीबाई। गुरु : आचार्य स्व.श्री जिनमणिसागरसूरिजी महाराज शैक्षणिक योग्यता : १.साहित्य महोपाध्याय २.साहित्याचार्य ____3. जैन दर्शन शास्त्री 4. साहित्यरत्न (संस्कृत-हिन्दी) आदि सामाजिक उपाधियाँ : शास्त्रविशारद, उपाध्याय, महोपाध्याय, विद्वद्रत्न, समाजरत्न सम्मानित राजस्थान शासन शिक्षा विभाग, जयपुर; नाहर सम्मान पुरस्कार,मुम्बई साहित्य वाचस्पति : हिन्दी साहित्य सम्मेलन,प्रयाग की सर्वोच्च मानद उपाधि साहित्य सेवा : सन् 1948 से निरन्तर शोध, लेखन, अनुवाद, संशोधन/संपादनः वल्लभ-भारती, कल्पसूत्र,खरतरगच्छ का बृहद् इतिहास, खरतरगच्छ प्रतिष्ठालेख संग्रह, जिनवल्लभसूरि ग्रन्थावली आदि विविध विषयों के 58 ग्रन्थ प्रकाशित और प्राकृत भारती अकादमी के 171 प्रकाशनों का सम्पादन; शोधपूर्ण पचासों निबन्ध प्रकाशित। भाषा एवं लिपिज्ञान : प्राकृत,संस्कृत,अपभ्रंश, गुजराती,राजस्थानी, हिन्दी भाषाओं एवं पुरालिपिका विशेष ज्ञान। कार्य क्षेत्र : सन् 1977 से प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर के निदेशक एवं संयुक्त सचिव पद पर कार्यरत। प्रकाशक प्राकृत भारती अकादमी 13-ए, मेन मालवीय नगर, जयपुर For Personal & Private Use Only