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________________ उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः। नहि सुप्तस्य सिंहस्य, पतन्ति वदने [ प्रविशन्ति मुखे] मृगाः॥ अर्थात् - उद्यम से ही सिद्धि प्राप्त होती है, केवल मनोरथों से अर्थ प्राप्त नहीं होता। सोते हुए सिंह के मुख में मृग नहीं आता है अर्थात् उद्यम करने पर ही वह शिकार को अपने आगोश में ले लेता है। कहा भी है - स्वशक्त्या कुर्वतः कर्म, सिद्धिश्चेन्न भवेद् भुवि। नोपालभ्यः पुमांस्तत्र, दैवान्तरितपौरुषम्॥ अर्थात् - अपनी शक्ति के अनुसार उद्यम/उद्योग करने पर भी यदि सफलता प्राप्त नहीं होती है तो कर्म को उपालम्भ नहीं देना चाहिए, अपितु अपने पौरुष का प्रयोग करना ही श्रेष्ठ है। पत्नी के मना करने पर भी मुझे दूसरे देशान्तर जाना ही चाहिए, ऐसा सोचकर वह वहाँ से वर्धमानपुर नगर की ओर निकल पड़ा। उस नगर में तीन वर्ष तक परिश्रम करके ३०० स्वर्ण मुद्राओं का उपार्जन किया और पुन: अपने गाँव की ओर चला। आधा मार्ग व्यतीत होने पर एक भयंकर जंगल में सूर्यास्त के समय पहुँचा। वहाँ वटवृक्ष की बड़ी शाखा पर चढ़कर सो गया। रात्रि में उसने स्वप्न में देखा कि दो पुरुष क्रोधित होकर आपस में बोल रहे है। उनमें से एक ने कहा - हे कर्ता ! तुमने मुझे बहुत बार रोके रखा कि इस सोमिलक के भाग्य में भोजन के अतिरिक्त धन नहीं है । अत: उससे अधिक धन उसे मत देना। तुम्ही बताओ यह ३०० स्वर्ण मुद्राओं का मालिक कैसे बन गया? दूसरा पुरुष बोला - हे कर्म! व्यवसायी को व्यवसाय के अनुरूप फल देना ही चाहिए और तुमने उसके परिणाम स्वरूप उसको धन भी दिया, इसलिए तुम्हारे अधिकार में है तुम चाहो तो इसका हरण कर लो। .. यह सुनकर सोमिलक स्वप्न से जागृत हुआ और सोने की मुद्राएँ जो उसने कमर पर लपेट रखी थी, उसको सम्भाला किन्तु वह नोलिया खाली नजर आया। सोमिलक विचार करने लगा - अहो ! मैंने कष्ट से धन को प्राप्त शुभशीलशतक 154 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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