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________________ भार्या ने उत्तर दिया - हे प्रिय! यह आपका कथन ठीक नहीं है कि अन्य स्थान पर जाने से हमें धन की प्राप्ति होगी। कहा भी है - न हि भवति यन्न भाव्यं, भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन। करतलगतमपि नश्यति, यस्य च भवितव्यता नास्ति। अर्थात् - भवितव्यता के कारण जो नहीं होना है, वह नहीं होगा और जो होना है वह बिना प्रयत्न के नहीं होगा। जिसकी भवितव्यता नहीं है, उसके हाथ में आया हुआ माल भी नष्ट हो जाता है। यथा धेनुसहस्रेषु, वत्सो विन्दति मातरम्। एवं पूर्वकृतं कर्म, कर्तारमनुधावति॥ अर्थात् - जिस प्रकार हजारों गायों के बीच में बछड़ा अपनी माँ को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्व जन्म में किये हुए कर्म भी कर्ता के पीछे लगे रहते हैं। यथा छायातपौ नित्यं, सुसम्बद्धौ परस्परम्। एवं कर्म च कर्ता च संश्लिष्टावितरेतरम् ।। अर्थात् - जिस प्रकार छाया और धूप दोनों परस्पर सम्बद्ध हैं उसी प्रकार कर्म और कर्ता भी एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। अतएव प्रिय ! यहीं रहना उपयुक्त है। व्यवसाय (पुरुषार्थ) के बिना कर्म फलदायक नहीं होता है। कहा भी है - न यथैकेन हस्तेन, तालिका संप्रपद्यते। तथोद्यमपरित्यक्तं, न फलं कर्मणः स्मृतम् ।। अर्थात् – एक हाथ से ताली नहीं बजा करती, उसी प्रकार उद्यम के बिना कर्म/भाग्य भी फल नहीं देता है। पश्य कर्मवशात्प्राप्तः, भोज्यकाले च भोजनम्। हस्तोद्यम विना वक्त्रे, प्रविशेन्न कथञ्चन॥ अर्थात् - देखो ! कर्म के फलस्वरूप भोजन के समय भोजन प्राप्त हो जाता है किन्तु यदि हाथ उद्यम न करें तो वह भोजन मुख में नहीं जा सकता। शुभशीलशतक 153 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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