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________________ किया था वह यों ही चला गया। मेरा परिश्रम बेकार गया। अब मैं धन-रहित होकर अपनी पत्नी को मुख कैसे दिखाऊँगा? इसलिए मैं पुनः वर्धमानपुर जाकर धनोपार्जन करूँ। पुनः वह वर्धमानपुर गया और एक वर्ष में ही ५०० सौनैया अर्जित कर अपने घर की ओर दूसरे मार्ग से चला। मार्ग में सूर्यास्त होने पर वह वट-वृक्ष के नीचे ठहरा, सोचने लगा - यह बड़ा कष्टकारी है। इस भवितव्यताने मेरे साथ क्या खिलवाड़ कर रखा है? भाग्यहीन होने के कारण मैं उसी राक्षस रूपी वट-वृक्ष के नीचे आ गया हूँ। इस प्रकार चिन्ताकुल होता हुआ भी निद्राधीन हो गया। स्वप्न में उसने उस वृक्ष की शाखा पर दो पुरुषों को देखा। उन दो में से एक बोला - हे कर्ता ! यह सोमिलक भाग्यहीन है। तुमने उसे ५०० सोनैयों का मालिक कैसे बना दिया? क्या तुम नहीं जानते कि पेट भरने के अतिरिक्त इसके पास पैसा नहीं होना चाहिए। दूसरा बोला - अहो कर्म! मेरा कर्त्तव्य है कि व्यवसायी के पुरुषार्थ को सफल करना। मुझे उपालम्भ क्यों दे रहे हो? यह दृश्य देखते ही सोमिलक की आँखें खुली और अपनी ग्रन्थी पर हाथ फेरा तब वह ग्रन्थी खाली नजर आई। सोमिलक को वैराग्य प्राप्त हुआ और वह विचार करने लगा - 'अहो ! मुझे धिक्कार हो, जीवन रथ धन के बिना नहीं चलता है। इसलिए इसी वट-वृक्ष की शाखा में वस्त्र की फाँसी लगाकर मैं अपना प्राण त्याग कर दूं।' इस प्रकार विचार कर वह ज्यों हि शाखा को पकड़ने का प्रयत्न करता है उसी समय आकाश से एक पुरुष बोलता है - हे सोमिलक! तुम व्यर्थ में दुःसाहस क्यों कर रहे हो? मैंने ही तुम्हारे धन का हरण किया है, गुजर-बसर के अतिरिक्त तुम्हारे पास धन हो इसको मैं सहन नहीं कर सकता था। इसलिए हे सोमिलक! तुम अपने घर जाओ किन्तु देव-दर्शन कभी भी निष्फल नहीं होते है। अत: तुम अपनी इच्छानुसार वरदान मांग लो। शुभशीलशतक 155 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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