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________________ यह सुनकर सोमिलक बोला यदि ऐसा ही है तो मुझे प्रभूत समृद्धिशाली बनाईये । वह पुरुष बोला भद्र! तुम धन का उपभोग और त्याग करना नहीं जानते हो, गुजर-बसर के अतिरिक्त तुम धन का प्रयोग नहीं कर सकते । - सोमिलक ने कहा यह सत्य है कि मैं धन का भोग करना नहीं जानता फिर भी मुझे धन चाहिए। कहा भी है - कृपणो ऽप्यकुलीनो ऽपि, सेव्यते च नरो 156 सदा लोकै-र्यस्य अर्थात् जिसके पास धन है, वह चाहे कृपण हो, अकुलीन हो, फिर भी धन-रहित लोगों द्वारा इस जगत में उसकी पूछ होती है। Jain Education International शिथिलाश्च सुबद्धाश्च, पतन्ति न पतन्ति निरीक्षिता मया भन्ने, वर्षाणि दश पञ्च धनविवर्जितैः । स्याद्वित्तसञ्चयः॥ अर्थात् - हे भद्रे ! मैं पन्द्रह वर्षों से देख रहा हूँ कि इसका (अण्डकोश) शिथिल हो रहा है मानो गिरने वाला हो, तब भी चमड़ी के साथ अच्छी तरह से बंधा हुआ हैं, ये गिरेगा या नहीं, मैं नहीं जानता । अर्थात् - इस पद्य का क्या आशय है ? स्पष्ट करिये, सुनिये । किसी नगर के बाहर अथवा जंगल में प्रलम्बवृषण (जिसका अण्डकोश लम्बा है) नाम का एक सांड रहता था। वह अपने मद के जोश में अपने पारिवारिकजनों को छोड़कर, अपने सिंगों से नदी के किनारों को तोड़कर इच्छानुसार घास खाता हुआ वन में रहता था । उसी वन में एक सियार भी जोड़े के साथ रहता था । किसी समय सियार अपनी सियारिणी के साथ नदी के किनारे बैठा हुआ था। उसी समय प्रलम्बवृषण सांड उधर आया । उस सांड के लटकते हुए अण्डकोशों को देखकर सियारिणी ने सियार से कहा स्वामी! इस बैल के लटकते हुए माँसपिण्डों को देखो। यह किसी भी क्षण गिर सकते हैं। एक पहर भी लग शुभशीलशतक - च । For Personal & Private Use Only च॥ www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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