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यह सुनकर व्यासजी खड़े हुए और हाथ जोड़कर बोलेत्वमेव विदुरो धीमान्, त्वमेव धर्मिशेखरः। त्वमेव वन्दनीयोऽसि, त्वमेवासि कलानिधिः॥
अर्थात् - तुम बुद्धिमान विदुर हो, तुम ही धर्मनिष्ठ मानवों में शेखर हो, तुम ही वन्दनीय हो और तुम ही कलानिधि कृष्ण हो।
अहं मूोऽस्मि मूढोऽस्मि, गर्ववान् पापवान् पुनः। कृतघ्नोऽस्मि निष्कलोऽस्मि, निर्गुणोऽस्मि च कुम्भकृत्॥
अर्थात् - हे कुम्भकार! तुम्हारे समक्ष मैं मुर्ख हूँ, मूढ़ हूँ, घमण्डी हूँ, पापी हूँ, कृतघ्न हूँ, कलारहित हूँ और निर्गुण हूँ। ४६. अतिथि सत्कार.
श्रीपुर नगर में धनसेठ नाम का एक बड़ा व्यापारी रहता था। उसके बहुत स्वजन सम्बन्धी थे। उसकी पत्नी का नाम धनवती था। पुत्र का नाम कमल था और उसकी पत्नी का नाम कमला था। संयोग से माता-पिता के स्वर्गवास हो जाने पर कमल का व्यापार क्रमश: ठण्डा पड़ गया अर्थात् आर्थिक दृष्टि से वह कमजोर हो गया। कमल के घर में बहुत मेहमान आते थे। कमल की पत्नी कमला गुणवती थी और पति के हितों का ध्यान रखती थी। वह पति के द्वारा बुलाए गये समस्त आगन्तुकों का स्वागत और भक्ति करती थी। एक समय अपनी पत्नी को दुबली-पतली देख कर कमल ने कहा
किं दीससि पिए संपइ, दुब्बला सुगुणावहे। जं ते अत्थि अणूंरडूं, तं पूरेमि कहेह॥
अर्थात् - हे गुणधारिणी प्रिये! आजकल तुम बहुत दुर्बल दिखाई देती हो। तुम दिल खोल कर कहो, मैं तुम्हारी वांछा को पूर्ण करूँगा।
घरि आवइ घरि मग्गिट्ठिअ, पिय तुम्ह नामगुणेहिं। तिणि कारणि हूं दूबली, झूरउं रातिदीएहिं॥
शुभशीलशतक
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