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________________ करता हुआ अपने धर्म - कार्य को करता है, वह मुक्ति योग्य सुख - कर्म का उपार्जन करता है। तत्पश्चात् युधिष्ठिर ने प्रतिक्रमण क्रिया पूर्ण कर सामायिक पार कर कहा - हे असुर ! मेरे द्वारा तुम्हें जो कुछ भी तकलीफ हुई है, उसे क्षमा करना । इस प्रकार उन दोनों का आपस में क्षमा-याचना और क्षमा-प्रदान कार्य हुआ। कर्ण की कल्पित दान कथा. महारथी कर्ण जीवन-भर याचकजनों को इच्छित दान में स्वर्णदान करता रहा। इस पुण्य के प्रभाव से वह स्वर्ग में देव बना । स्वर्ग में चारों ओर उसे सोना ही सोना नजर आ रहा था। कर्ण ने देवगुरु से पूछा - हे गुरु ! यहाँ मुझे स्वर्ण के अतिरिक्त कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, क्या कारण है ? ८२. देवगुरु ने कहा - हे भाग्यशाली ! तू ने अन्न आदि का दान कभी भी नहीं किया । जीवनभर प्रचुरता के साथ स्वर्णदान ही करता रहा। इसी कारण तुम यहाँ अपने चारों तरफ स्वर्ण ही स्वर्ण देख रहे हो । अन्न, दान देने की कामना से उसने चन्द्रपुर में शृगाल श्रेष्ठ के नाम से जन्म धारण किया। भोजन के पूर्व वह किसी भी अतिथि की राह देखता रहा परन्तु कोई भी अतिथि उसके घर नहीं आया। किसी देव ने उसको विचारों से चलायमान करने के लिए जोगी का रूप धारण कर याचना के लिए वहाँ आया । शृगाल सेठ तत्काल ही उठकर उसको भोजन देने के लिए तैयार हुआ, तब उस कपट रूपधारी देव ने कहा- हे सेठ ! मैं अन्न को ग्रहण नहीं करता हूँ। मैं तुम्हारे पुत्र का माँस ग्रहण करने का इच्छुक हूँ । यदि तुम अतिथि को देना चाहते हो तो अपने पुत्र का माँस दो । घर से अतिथि खाली हाथ नहीं जाए, इन विचारों से प्रेरित होकर शृगाल सेठ ने अपने पुत्र की हत्या कर उस अतिथि को माँस प्रदान किया और उस अतिथि से सेठ बोला अब मुझे स्वर्ग प्रदान करो । 116 Jain Education International - शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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