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________________ पुण्यानुभाव से वह सूली सिंहासन के रूप में परिणत हो गई। लोगों ने जयजयकार किया और उसके सत्चरित्र और शील की महिमा का बखान किया । ७९. दान की महत्ता. मिथ्यादृष्टिसहस्त्रेषु, अणुव्रतिसहस्त्रेषु, वरमेको वरमेको अर्थात् हजारों मिथ्या दृष्टिधारकों में एक अणुव्रती श्रेष्ठ होता है और हजारों अणुव्रतियों में भी एक महाव्रती श्रेष्ठ होता है । महाव्रतिसहस्त्रेषु, वरमेको हि जिनाधिपसमं पात्रं, न भूतं अर्थात् – हजारों महाव्रतियों में भी तीर्थंकर सर्वश्रेष्ठ होता है । जिनेन्द्र के समान कोई सत्पात्र न हुआ है, न होगा। एक समय मथुरा नगरी में नन्द गोकुल ने जब अपना पुत्र नारायण (कृष्ण) वन में घूम कर आया, तब पूछा - हे पुत्र ! तुमने भोजन किया है या नहीं? पढमं जईण दाऊण, असईसुविहियाणं, ह्यणुव्रती । महाव्रती ॥ उत्तर में नारायण (कृष्ण) ने कहा - स्वच्छन्दतः स्वभवने स्वयमर्जितान्नं, कान्ताकराग्रपतितं यतिदत्तशेषम्। ये भुञ्जते सुरपितृनपि तर्पयित्वा ते भुक्तवन्त इह, तेन, मया न भुक्तम्॥ " Jain Education International अर्थात् - स्वतंत्रतापूर्वक अपने घर में रहते हुए स्वोपार्जित अन्नको अपनी प्रिया के हाथों द्वारा महर्षि को दान दिया गया हो और उसके पश्चात् देवताओं और पितृजनों का तर्पण करने के बाद जो भोजन किया गया हो, वही भोजन कहलाता है, इस प्रकार का भोजन मैंने नहीं किया है । अप्पणा तीर्थकृत् । भविष्यति ॥ भुंजेई शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only पणमिऊण पारे । कर्यादिसालोओ ॥ 113 www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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