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पादलेप करके मुर्गे की तरह उडाई भरने लगी। ऊपर नीचे होकर के जमीन पर गिरे, शरीर पर कई जगह चोटें आईं। दूसरे दिन आचार्य पादलिप्त ने पूछा- शरीर में ये चोटें किस कारण से आईं? तब नागार्जुन ने सारा किस्सा सुना दिया।
आचार्य नागार्जुन की घ्राण शक्ति, ग्रहण शक्ति और चातुर्य देखकर मन में अत्यधिक प्रमुदित हुए। सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखकर बोले - महानुभव ! गुरु के द्वारा दी हुई विद्या सम्पूर्ण आम्नाय के बिना कभी भी सफल नहीं होती है।
नागार्जुन बोला - भगवन् ! मुझे कृपा कर प्रसन्न होकर शीघ्र ही विद्याम्नाय देने का अनुग्रह करें।
आचार्य पादलिप्त बोले - यदि तुम शत्रुजय आदि तीर्थों की तीर्थयात्रा करके आओ तब मैं तुम्हे शेष रही १०८वीं औषधी का नाम और आम्नाय बतला दूंगा।
नागार्जुन ने स्वीकार किया और शत्रुजय आदि तीर्थों की यात्रा कर गुरु से निवेदन किया - अब मुझे कृपा कर आम्नाय बतलाइये।
___ आचार्य बोले - ६० चावलों के जल के साथ समस्त औषधियों को घिसकर एकरूप बना कर उसका लेप तैयार करो और उस लेप को पैरों पर . लेपन करने से तुम आकाशगामी हो सकोगे।
नागार्जुन ने उसी प्रकार किया और वह आकाशगामी हो गया। आचार्य के कथनानुसार पादलेप-सिद्धि होने पर वह प्रतिदिन देव नमस्कार करने के पश्चात् ही भोजन करता था।
एक समय गुरु मुख से स्वर्णरससिद्धि के सम्बन्ध में सुनकर उसने रस-सिद्धि करने का प्रयत्न किया और रस का निर्माण भी किया, किन्तु उस रस-सिद्धि में पारद की स्थिरता नहीं हो पाई थी। ऐसी स्थिति में उसने पुनः आचार्य से रस की स्थिरता का स्वरूप पूछा।
शुभशीलशतक
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