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राजा ने उत्तर दिया - समय पर बतलाऊँगा। उनके ठहरने की सुन्दर व्यवस्था कर दी। कई दिन व्यतीत हो गये। राजा संदेह- भँवर में चक्कर खाने लगा।
इसी बीच महासचिव शान्तु मेहता ने राजा से पूछा - राजन् ! आप दुर्बल कैसे हो रहे हैं?
राजा ने सिद्धि-बुद्धि के आगमन और उनके प्रश्नों का कारण बतलाया और कहा - इसीलिए मैं दुर्बल होता जा रहा हूँ, योगिनियों को क्या उत्तर दूँ?
उसी समय राजा के हाथ में बिजोरा देकर सज्जन खड़ा रहा। राजा सोच-विचार में पड़ा हुआ फल को ग्रहण न कर सका। कुछ क्षण पश्चात् राजा ने ग्रहण किया। सज्जन ने यह सारा वृत्तान्त अपने पिता को जाकर कहा।
राजा चिन्तातुर है, ऐसा जानकर सज्जन के पिता ने कहा - हे वत्स! हम क्या करें? हम दरबार में जाते है तो भी हमें कोई सम्मान नहीं देता। राजा कर्णदेव के समय में इस प्रकार की अनेकों बार परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई थीं, उन सब समस्याओं को मैंने अपने बुद्धिबल से हल कर दी थी।
पिता-पुत्र की इस वार्ता को महल के नीचे खड़े हुए मन्त्री ने सुना। उसने (मन्त्री ने) जाकर राजा को कहा। राजा ने तत्क्षण ही उनको बुलाने के लिए अपने आदमी भेजे और कहलाया - 'महाराज, बुला रहे हैं।' सेवकों ने जाकर कहा – हरपाल धर्मध्यान में संलग्न है, इसलिए हम वापस आए हैं।
यह सुनकर मन्त्री शान्तु मेहता स्वयं हरिपाल के घर गया और कहा- महाराज ने आपको बुलाने के लिए मुझे भेजा है।
हरपाल ने शान्तु मेहता का स्वागत किया और कहा - 'यह समय मेरी देवपूजा का है। अच्छा हुआ आप यहाँ आ गये। मेरा सौभाग्य है कि आप मेरे घर आए, आप भी देवपूजा करिये और पश्चात् प्रसन्नतापूर्वक भोजन ग्रहण कीजिये।' शान्तु मेहता ने वैसा ही किया। भोजन के पश्चात् दोनों सुखासन (शिबिका) पर बैठकर महाराजा के समीप गये। 148
शुभशीलशतक
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