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इस प्रकार अपनी-अपनी डींग हांकते हुए वे सब अपने-अपने घर चले गये।
श्रेष्ठिपुत्र ने वापस लौटते समय वेश्यापुत्री के कथनानुसार ही मशक, राजपुत्र जन्म, चक्षुस्तौल आदि युक्तियों से उन सब धूर्तों को वाद-विवाद में पराजित कर अपने पूर्व माल से अधिक माल लेकर अपने देश को चला और उसकी विदेश यात्रा सफल हुई। ७४. अर्थलोभी वैद्य.
एक नगर में दो भाई रहते थे जो आयुर्वेद शास्त्र में निपुण थे और लोगों की चिकित्सा करते हुए धन उपार्जित करते थे। एक दिन बड़ा भाई, जो कि स्वयं वैद्य था, किसी काम १२५से किसी ग्राम में गया। वहाँ किसी पुरुष की चिकित्सा करके उससे धन लेकर वापिस लौट रहा था। अपनी ग्राम की सीमा पर पहुँचते ही उसने देखा कि गाँव के बाहर ही किसी की चिता जल रही है। वह विचार करने लगा - मैं जब दूसरे ग्राम गया था, उस समय किसी की चिता नहीं जल रही थी। इस समय चिता जल रही है, क्या कारण हो सकता है? क्या मेरे छोटे भाई ने किसी बीमार की नाड़ी देखने के बाद उससे धन लिया या नहीं लिया? वैद्य अपने आप ही चिन्तन करने लगा।
साम्प्रतं दृश्यतेऽत्रैव, प्रज्वलन्ती चिता किल। 'ग्राममागामहं मे तु भ्रातुः किं चरितं न वा॥
अर्थात् - इस समय मैं देख रहा हूँ कि यहाँ चिता जल रही है, मैं अकेला दूसरे गाँव गया था, मेरा भाई यहीं था, क्या उसने कोई नई चाल चली है?
चितां प्रज्वलितां दृष्ट्वा, वैद्यो विस्मयमागतः। नाहं गतो मम भ्रातुः, कस्येदं हस्तलाघवम्॥
अर्थात् - जलती चिता को देखकर वह वैद्य विस्मय करने लगा - मैं मौजूद हूँ तो क्या मेरे भाई की चिता जल रही है अथवा हस्तलाघव के द्वारा किसने यह पाप कार्य किया है? 106
शुभशीलशतक
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