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७५. ताजिक ग्रन्थ की रचना का कारण.
एक समय खुरसाण देश से बहुत से मुगल लोग लूट-पाट करते हुए गुजरात आए। गुजरात के बहुत से आदमियों को बन्धक बना कर ले गये। उन बन्धकों में एक विद्वान् आचार्य भी थे। वह आचार्य खुरसाण देश में रहते हुए मुगलों की भाषा सीखने लगे और कुछ दिनों में उस भाषा में पारंगत भी हो गए। जिस मुगल के घर में आचार्य रहते थे, वह मुगल पड़ोस के शत्रु ग्राम को लूटने के लिए चला गया।
इधर मध्याह्न के समय वह मुगल वापिस नहीं लौटा तो उसकी माँ उसके पैरों की छाया देखकर आगे चली और कुछ दूरी पर ही रुक-कर अपनी छाती को कुटती हुई रोने लगी। कहने लगी - हे पुत्र! तुम कैसे मारे गये? हम तुम्हारे बिना क्या करेंगे? इस कुटुम्ब के आधारभूत तुम ही तो थे।
इस प्रकार विलाप करती हुए अपनी सास को देखकर पुत्रवधु सोच में पड़ गई, उसने भी अपने पति के पैरों की छाया देखकर दिल में प्रसन्न हुई
और अपनी सास को कहने लगी – 'हे माँ! तुम रोओ मत। तुम्हारा पुत्र कुशल है, सुरक्षित है। एक बाण उसके सिर पर लगा है, एक बाण उसके पैरों पर लगा है और एक बाण बायें हाथ पर लगा है। शाम को वह कुशलक्षेम के साथ घर आ जाऐगा।' इस प्रकार अपनी रोती हुई सासु को रोका।
सायंकाल जैसा उस मुगलपत्नी ने कहा था, वैसा ही हुआ। इस घटना को आचार्य ने आश्चर्य रूप से देखा। मन में सोचा- 'ये दोनों महिलाएँ छाया-शास्त्र में अत्यन्त निपुण है। सासू की अपेक्षा भी वह मुगलपत्नी इस विषय की ज्यादा जानकार है।' उसके पश्चात् वहाँ रहते हुए आचार्य ने उस विद्या का सम्यक् प्रकार से अध्ययन किया और नवीन ताजिक ग्रन्थ की रचना की। बंधन से छूटने पर आचार्य शीघ्र ही वापिस लौटे। उन आचार्य के पश्चात् उन्होंने जो विद्या सीखी थी उसकी आम्नाय, परम्परा किसी को नहीं दे सके। आम्नाय के बिना उसका फलादेश निरर्थक हो गया। उस ताजिक ग्रन्थ में भूत, भविष्य और वर्तमान में क्या होने वाला है? इसका संकलन था, परन्तु उस प्रकार की बुद्धि और आम्राय के बिना उसका अच्छी तरह से ज्ञान नहीं हो पाता है। वह ग्रंथ आज भी विद्यमान है किन्तु आम्नाय-रहित है।
शुभशीलशतक
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