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________________ अपरनाम फिरोज सुरताण के साथ यात्रा करते हुए देवगिरि पहुँचे। वहाँ के उपासकों ने बड़े महोत्सव के साथ उनका नगर प्रवेश करवाया। देवगिरि के समस्त मंदिरों को नमस्कार करते हुए जिनप्रभसूरि सेठ जगतसिंह के घर देरासर पहुँचे, वहाँ घर देरासर में विराजमान श्रेष्ठतम वैडूर्य रत्न, स्फटिक रत्न, स्वर्णमय और रजतमय प्रतिमाओं को देखकर नमन किया। सेठ के घर को तीर्थस्वरूप समझ कर आचार्य जिनप्रभ अपना मस्तक धुनाने लगे, तब जगतसिंह ने पूछा - 'आप अपना सिर क्यों धुना रहे हैं?' जिनप्रभसूरि ने कहा – 'हमने स्थान-स्थान में ग्राम-ग्राम में और नगर-नगर में जिनचैत्यों की वन्दना की। तत्रस्थ आचार्यों को भी वन्दन किया किन्तु एक तो आपका गृहचैत्य और जंघरालयपुर में विराजमान तपागच्छीय आचार्य सोमतिलकसूरि को वन्दन किया। इस युग में ये दोनों ही तीर्थ सर्वोत्कृष्ट हैं, ऐसा विचार मन में आने पर ही मेरा सिर कंपायमान हुआ है।' तीर्थ वन्दन से मुक्ति सुख प्राप्त होता है। कहा भी गया है - अरिहंतनमुक्कारो, जीवं मोएइ भवसहस्साओ। भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए । अर्थात् - हजारों भवों से संसार में परिभ्रमण करने वाला जीव अरिहन्त को नमस्कार करने पर संसार से मुक्त हो जाता है। भाव से वन्दन करने वाला जीव बोधिलाभ अर्थात् सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः। सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ-देशको गुरुरुच्यते॥ अर्थात् - धर्मज्ञ, धर्मक्रिया-कारक, धर्म की प्रवर्तना करने वाला भव्य जीवों को उपदेश देने वाला और शास्त्रार्थ के द्वारा धर्म की स्थापना करने वाला गुरु कहलाता है। अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानाञ्जनशलाकया। नेत्रमुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ । अर्थात् - अज्ञान रूपी अन्धकार को नाश करने के लिए ज्ञान रूपी अंजनशलाका से जिसने नेत्र उद्घाटित कर दिये है, वैसे गुरु को नमस्कार हो। शुभशीलशतक 19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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