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________________ यह धर्मोपदेश सुनकर धर्मानुरागी सेठ जगत्सिंह ने आचार्य जिनप्रभसूरि की श्रेष्ठ वस्त्र, अन्न, पान आदि का दान देकर विशेष रूप से भक्ति की । २१. साधर्मिक भक्ति और जगडूशाह. गुरुजनों के मुख से 'साधर्मिक भक्ति का फल मुक्ति को देने वाला है' ऐसा सुनकर सेठ जगत्सिंह ने देवगिरि में ३६० स्वधर्मी - बन्धुओं को अपने तुल्य व्यवहारिक बनाने के लिए अर्थ - सहायता और व्यवसाय में सहयोग देकर अपने समान ही समृद्धशाली बनाया। इतना ही नहीं प्रत्येक साधर्मिक भाई के घर में एक-एक दिन मिठाई के साथ रसवती भोजन बनता था । वहाँ परिवार के साथ समस्त साधर्मिक भाई भोजन करते थे । प्रत्येक दिन के भोजन का खर्च ७२,००० रु० होता था । इस प्रकार प्रति घर में भोजन करते हुए दूसरे वर्ष में उसके घर में भोजन करने का समय आता था । इस प्रकार धर्म कृत्य करते हुए जगत्सिंह सेठ ने पूर्ववर्ती भरत और दण्डवीर राजा की साधर्मिक भक्ति का स्मरण कराया । २२. जगत्सिंह की शत्रुंजय यात्राएँ. एक समय जगत्सिंह ने आचार्य श्री सोमतिलकसूरि से धर्म का स्वरूप पूछा । आचार्य ने कहा - मिथ्या रूपी अज्ञान अंधकार से रहित व्यक्ति के समक्ष ही धर्म का स्वरूप कहना चाहिए। जैन - परम्परा में कहा है धम्मेण धणं विउलं, आउं दीहं सुहं च सोहग्गं । दालिद्दं दोहग्गं, अकालिमरणं अहम्मेण ॥ अर्थात् - धर्माराधन से विपुल धन, दीर्घ आयु, सुख एवं सौभाग्य की प्राप्ति होती है और अधर्म से दरिद्रता, दुर्भाग्य और अकाल मरण प्राप्त होता है। 20 Jain Education International शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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