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पूजकों ने उत्तर दिया - राजन् सुनिये -
पूर्वकाल में कृतयुग के प्रारम्भ में भगवान् महादेव ने इस तीर्थ की स्थापना की थी। भगवान् ऋषभदेव और सृष्टि रचयिता ब्रह्मा का प्रासाद उन्होंने स्वयं ने बनवाया था। उन्होंने स्वयं ने ही ध्वजारोपण किया था। इन दोनों मन्दिरों पर हम परम्परा से ध्वजा चढ़ाते आ रहे हैं। इस कार्य को करते हुए चार युग व्यतीत हो चुके हैं। शत्रुञ्जय महागिरि की यह उपत्यका भूमि है। नगर पुराण में कहा भी है -
पञ्चाशदादौ किल मूलभूमे-र्दशोर्ध्वभूमेरपि विस्तरोऽस्य। उच्चत्वमष्टैव तु योजनानि, मानं वदन्तीति जिनेश्वरादेः॥१॥
अर्थात् - इस पर्वत की मूल भूमि ५० योजन है। इसका विस्तार १० योजन है और इसकी ऊँचाई ८ योजन है, ऐसा जिनेश्वर-पर्वत शत्रुञ्जय का मान कहा है।
कृतयुग में भगवान् आदिदेव ऋषभ के पुत्र भरत हुए और उन्हीं के नाम से यह भरत खण्ड कहा जाता है -
नाभेरुता( ? )स वृषभो मरुदेविसूनु
र्यो वै चचार समदृग् मुनियोगचर्याम्। तस्यार्हन्त्यसोमुषय(?) पदमामनन्ति,
स्वस्थः प्रशान्तकरुणः समदृक्सुधीश्च ॥ अर्थात् - नाभि नरेश और मरुदेवी के पुत्र ऋषभ ने सम्यक् दृष्टिपूर्वक मुनियोगचर्या को धारण किया। प्रशान्तमना बने, करुणाधारक बने और अर्हत् बने जिनके चरणों में समताधारी विद्वान् भी नमस्कार करते है।
अष्टमे मरुदेव्यां तु नाभेर्जाते उरक्रमः।
दर्शयन्वर्त्म वीराणां, सर्वाश्रमनमस्कृतः॥ अर्थात् - अष्टम कुलकर नाभि और मरुदेवी के पुत्र ऋषभ ने वीरों को मार्ग बतलाया और जो समस्त आश्रमधारियों द्वारा वन्दनीय है।
शुभशीलशतक
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