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________________ इस प्रकार पुराणों में कहे गये बहुत से पद्य विद्वानों ने राजा को सुनाये और इस बात को प्रमाणित करने के लिए प्रारम्भ में स्थापित ऋषभदेव के कोश भण्डार से भरत के नाम का पञ्चों द्वारा स्वीकृत कांसे का ताला राजा को दिखलाया। इन प्रमाणों को देखकर सिद्धराज जयसिंह ने अपने विचारों की निन्दा की और समस्त जिन प्रासादों में पुनः ध्वजारोपण किया। ९६. नारी का बुद्धि-चातुर्य. किसी वन में शमी वृक्ष पर शुक और शुकी का जोड़ा रहता था। उनके एक सन्तान हुई। एक दिन शुकी ने कहा - यह पुत्र मेरा है। शुक ने कहा - पुत्र मेरा है। दोनों में विवाद हो गया और वह विवाद झगड़े का रूप ले गया। वाद-विवाद बढ़ने पर दोनों न्याय के लिए राजा के पास गये। दोनों ने अपना-अपना पक्ष रखा। . दोनों ओर की बातें सुनकर राजा ने निर्णय दिया - यह पुत्र शुक का है। इस निर्णय से शुकी बहुत दुःखी हुई और शुक अपने पुत्र को लेकर चला गया। इधर शुकी जिन मन्दिर में गई। वहाँ भगवान् आदिनाथ की मूर्ति को देखकर उसमें श्रद्धा जागृत हुई और वह नियमित रूप से जंगल से फूल लाकर भगवान् की पूजा करने लगी। पूजन करते हुए क्रमशः आयुष्य पूर्ण होने पर हृदय में भगवान का ध्यान करती हुई वह मरण को प्राप्त हुई। वहाँ से च्युत होकर वह मन्त्रीश्वर की पुत्री के रूप में पैदा हुई। यहाँ उसका नाम तिलोत्तमा रखा गया। मन्त्री के घर में लालित-पालित होकर वह युवावस्था को प्राप्त हुई। शिक्षण प्राप्त कर सर्वक़लाओं के निपुण हुई। एक समय जिन मन्दिर में युगादिदेव की प्रतिमा देखकर चिन्तन करते हुए वह मूर्छा को प्राप्त हुई और उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। ज्ञान के द्वारा उसने अपना शुकी का पूर्वभव देखा। स्मरण में आया कि राजा ने मेरे साथ अन्याय किया था। 142 शुभशीलशतक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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