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________________ अर्थात् - मुनिजनों ने कहा है कि जलमार्ग में चलने वाले जलचर जन्तुओं के साथ स्थल में रहने वाले प्राणियों को कदापि उनका संग नहीं करना चाहिए। ७७. सत्पात्र दान आवश्यक है. दानं धर्मेषु रोचिष्णु, तच्च पात्रे प्रतिष्ठितम्। मौक्तिकं जायते स्वाति-वारि शुक्तिगतं यथा॥ अर्थात् - सुपात्र में दान देने पर ही धर्म में प्रतिष्ठित होता है, कल्याणकारी होता है। जैसे - स्वाति नक्षत्र में गिरि हुई जल की बूंद सीप में पड़ने पर ही मोती के रूप में नि:ष्पन्न होती है। केसिं च होई वित्तं, चित्तं केसि पि उभयमन्नेसिं। वित्तं चित्तं पत्तं, तिन्नि पुण्णेहिं लब्भंति॥ अर्थात् - किसी के पास धन होता है, किसी के पास मन होता है और किसी के पास दोनों होते है। वित्त, चित्त और पात्र ये तीनों पुण्य के संयोग से ही प्राप्त होते हैं। किसी नगर का राजा दान के नाम से ही चिड़ता था। एक रोज वह संयोग से जंगल में गया। परिवार सहित उस जंगल को देखते हुए वह राजा महुड़े के वृक्ष के नीचे बैठ गया। उस महुड़े के वृक्ष से बूंद-बूंद रस टपक रहा था। यह देखकर राजा ने कहा - हे पण्डित ! यह मधूक वृक्ष क्यों रो रहा है? उस समय अवसर देखकर राजा को प्रतिबोध/सचेत देने के लिए एक पण्डित ने कहा - यदास्ति पात्रं न तदास्ति वित्तं, यदास्ति वित्तं न तदास्ति पात्रम्। एवं हि चिन्तापतितो मधूको, मन्येऽश्रुपातै रुदनं करोति॥ अर्थात् - जहाँ पात्र होता है वहाँ धन नहीं होता और जहाँ धन होता है वहाँ पात्रता नहीं होती। इस चिन्ता में घिरा हुआ यह मधुप-वृक्ष अपने आंसुओं को गिराते हुए रुदन कर रहा है, ऐसा मेरा मानना है। शुभशीलशतक 111 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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