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________________ यह सुनकर सरल-स्वभावी वानर अपने मित्र की पत्नी से मिलने के लिए मकर के पीठ पर बैठ गया। उसे लेकर मकर समुद्र में बढ़ने लगा। कुछ मार्ग तय करने के बाद वानर बोला - हे मकर! मैं चल तो रहा हूँ, मुझे वहाँ पहुँच कर क्या करना चाहिए? और तुम्हारी पत्नी मेरा किस प्रकार से स्वागत करेगी? यह सुनकर मकर ने सोचा - यह मेरे साथ समुद्र में बहुत दूर तक आ चुका है और मेरे सहयोग के बिना वापस जा नहीं सकता, अत: सच्ची बात ही इसको बता देता हूँ। उसने कहा - मेरी पत्नी को दोहद उत्पन्न हुआ है और वह तुम्हारे दिल का माँस खाना चाहती है, इसलिए मैं तुमको ले जा रहा हूँ। यह सुनकर वानर ने सोचा - यदि मैं वहाँ पहुँच गया तो मेरी मौत निश्चित है, अतः बुद्धिचातुर्य से इसको मूर्ख बनाकर वापस जाना ही अच्छा है। यह सोचकर वानर बोला - अरे मित्र! तुमने मुझे यह पहले क्यों नहीं बतलाया? अब तो मेरी भाभी का मनोरथ पूर्ण नहीं हो सकता। मकर ने कहा - तुम ऐसा क्यों कहते हो? वानर ने कहा - मेरा चित्त वट-वृक्ष के ऊपर रखा हुआ है और मेरा हृदय उदुम्बर वृक्ष की शाखा में लटका हुआ है। मैं जब भी इधर-उधर जाता हूँ तो दोनों चीजें वहीं छोड़ कर आता हूँ। यदि तुम पहले ही बता देते तो मैं दोनों चीजें साथ ले आता और भाभी का मनोरथ पूर्ण हो जाता। मकर बातों के चक्कर में आ गया। वापिस लौटकर समुद्र के तट पर आया। वानर उसकी पीठ से छलांग लगाकर वृक्ष की शाखा पर चढ़ गया और उसने कहा - मित्र! तुम्हारे साथ मैत्री यहीं तक थी। तुम अपनी पत्नी को जाकर कह देना कि वह वानर बड़ के झाड़ पर से चित्त और उदुम्बर वृक्ष की शाखा से हृदय लेने गया है। भविष्य में तुम मेरे साथ मैत्री की कामना मत करना। कहा है : जलजन्तुचरैर्नित्यं, जलमार्गानुसारिभिः। स्थलजैः संगतिर्न स्याद् बुवन्ति मुनयो ध्रुवम् ॥ 110 शुभशीलशतक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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