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________________ साधूनां दर्शनं श्रेष्ठं, तीर्थभूता हि साधवः । तीर्थं पुनाति कालेन, सद्यः साधुसमागमः॥ अर्थात् - साधुजन तीर्थ के समान ही माने गये हैं, अत: उनके दर्शन श्रेष्ठ हैं क्योंकि तीर्थदर्शन का पुण्य भविष्य में फलदायक होता है जबकि साधुजनों का समागम/सम्पर्क तत्काल ही फल देने वाला है। ___ आप स्थल में उत्पन्न हुए है, इसलिए स्थलचारी हैं । संयोग से आप यहाँ आए हैं, आप जैसों के साथ वार्ता करना भी दुर्लभ है। यह सुनकर वानर ने कहा - हे मकर! आज से तुम मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय मित्र हो। मित्र के समक्ष अपने सुख-दुःख की बात कर आदमी सुखी होता है। __ उसी दिन से वानर और मकर में घनिष्ठ प्रेम हो गया। वानर बगीचों से मधुर फल लाकर मकर को देता और मकर उन फलों को ले जाकर अपनी प्रिया मगरमच्छी को देता । वह भी खाकर बहुत प्रसन्न होती । एक दिन उसने मकर से पूछ ही लिया कि 'ये मीठे फल कहाँ से लाते हो?' मकर ने वानर के साथ मित्रता का सम्बन्ध बतला दिया। यह सुनकर गर्भिणी मकरी विचार करने लगी - जो वानर इस प्रकार के मीठे-मीठे स्वादिष्ट फल रोज खाता है तो उसका दिल भी बड़ा होगा, चिकना होगा और माँस भी अमृत के समान मीठा होगा। ऐसा विचार कर मकरी ने कहा - 'हे मकर ! मैं गर्भिणी हूँ। मुझे दोहला उत्पन्न हुआ है कि मैं उस वानर के हृदय का माँस भक्षण करूँ। यदि यह दोहल मेरा पूर्ण नहीं हुआ तो मैं मर जाऊंगी।' मकरी की इस बात को कदाग्रह मानता हुआ भी वह मकर दूसरे दिन छल के साथ अपनी मित्र वानर से बोला - हे मित्र! तुम्हारी भाभी (मकरी) तुम्हे बहुत याद करती है, तुम्हे बुलाया है। तुम्हारे वहाँ जाने पर वह अनेक प्रकार से तुम्हारी भक्ति करना चाहती है। शुभशीलशतक 109 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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