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________________ तिलोत्तमा ने कहा - मैं अपने प्रिय को छोड़कर अन्य पुरुष की कामना नहीं करती हूँ किन्तु तुम्हारी भक्ति से मैं तुम्हारे ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हुई हूँ अत: जैसा तुम्हे रुचिकर हो, वही करो। राजा ने तिलोत्तमा के साथ संगम किया, उसे गर्भ रहा। गर्भधारण करने के पश्चात् तिलोत्तमा ने वह भूमिगृह इत्यादि का विसर्जन कर दिया और सुरंग मार्ग से अपने पिता के घर चली गई। राजा के साथ इस प्रकार मिलन हुआ वह सारा वृत्तान्त पिता से बही में लिखवा दिया। इधर राजा उसके वियोग में दुःखी हुआ। बारम्बार उसका स्मरण करने लगा। सोचने लगा कि अब उसके साथ मेरा मिलन कब होगा? उसकी दर्शन और मिलन की उत्कण्ठा में वह पागल सा हो गया। इधर मन्त्री-पुत्री तिलोत्तमा के पुत्र उत्पन्न हुआ। कुछ बड़ा होने पर शिबिका में बैठकर वह आडम्बर के साथ सखियों एवं पुत्र को साथ लेकर राजमहल में पहुंची। राजा ने पूछा - तुम कौन हो? उसने कहा - मैं आपकी पत्नी तिलोत्तमा पुत्र सहित आई हूँ। क्या आपने मुझे नहीं पहचाना? राजा विचार करने लगा - यह तिलोत्तमा मेरी पत्नी अवश्य है, किन्तु यह पुत्र कैसा है? राजा चौंका। उसी समय मन्त्री ने पुत्री के द्वारा लिखाये गये वृत्तान्त की बही को राजा के समक्ष रखा। राजा ने उसे पढ़ा, चमत्कृत हुआ और अपनी भूल स्वीकार कर उसे स्वीकार किया और कहा - 'सचमुच में तुम विदुषी हो', ऐसा सब लोगों के सामने कहा। उस समय तिलोत्तमा ने अपने जातिस्मरण ज्ञान से पूर्वजन्म में घटित समस्त घटनाओं का वर्णन राजा के समक्ष किया। सब लोग प्रसन्न हुए। राजा विशेष रूप से धर्मकृत्य करने लगा। पुत्र का नाम जिनदत्त रखा। धर्म का आराधन करते हुए वह राजा स्वर्ग को प्राप्त हुआ। शुभशीलशतक 146 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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