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________________ इसी बीच पहले आदमी ने पीछे जाकर अपने जो सिक्के गिरे थे, उनको इकट्ठे कर लिए और वापस उस आदमी के पास आकर बोला - अरे भाई! तुम इस भालू के कान मरोड़ रहे हो, तुम्हे कुछ सिक्के मिले या नहीं? वह दूसरा आदमी बोला - जब भी मैं इसके कान मरोड़ता हूँ, यह मुझे सिक्के देना तो दूर रहा बल्कि मुझे मारने के लिए प्रयत्न करता है। तब पहले आदमी ने कहा - छोड़ दो इस भालू को। यह सुनकर दूसरे आदमी ने कहा - भालू के कान पकड़ा हुआ मैं न तो छोड़ने की स्थिति में हूँ और न ले जाने की स्थिति में, क्योंकि इसको छोड़ते ही यह मुझे खा जायेगा। इस प्रकार वह दूसरा आदमी लकीर का फकीर बन कर भालू के पकड़ा रहकर ही क्रमशः दुःखी हो गया। पहला आदमी अपनी चतुरता से अपने सिक्के लेकर घर पहुँच गया, सुखी हुआ। ४८. उत्कृष्ट सुख-दुःख कहाँ है?. एक समय महाराजा कुमारपाल ने आचार्य हेमचन्द्र से निवेदन कियाभगवन् ! संसार में अत्यधिक सुख और अत्यधिक दुःख कहाँ पर है। कहाँ सर्वदा सुख है और कहाँ सर्वदा दुःख है? आचार्य हेमचन्द्र ने कहा - अनुत्तरविमानात्तु नाधिकं विद्यते क्वचित्। सप्तमं नरकं मुक्त्वा दुःखं नास्त्यधिकं वचित्॥ अर्थात् - अनुत्तर विमानवासी जिनकी आयुष्य ३३ सागरोपम है, वे बहुत सुखी हैं और सातवीं नरक वाले नारकी जीव जिनकी आयुष्य ३३ सागरोपम है, वे अत्यन्त दु:खी हैं। कर्मबन्धन से मुक्त जीव जन्म, जरा, मृत्यु को समाप्त कर सिद्ध बनकर अत्यन्त सुख का भोग करता है और संसार में रहने वाला प्राणी सर्वदा अत्यन्त दुःख को प्राप्त होता है। इस कारण से इस जीव को सदा श्रेष्ठ पुण्य कार्य करने चाहिए, पाप कर्म नहीं करने चाहिए। शुभशीलशतक 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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