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________________ ४९. नारी के वशीभूत प्रभाचन्द्र. चन्द्रपुर नगर में गुरु श्रीधर रहता था। उसके शिष्य का नाम प्रभाचन्द्र था। एक दिन प्रभाचन्द्र ने कहा - भगवन् ! मैं सर्व विद्याओं में निष्णात हो गया हूँ। यदि आपश्री आदेश दें तो जो पूर्वगत श्रुत साहित्य संस्कृत में है, उसको मैं प्राकृत भाषा में बदल दूँ। गुरु ने कहा - भगवद् वाणी को बदलने के विचार ही पापपूर्ण हैं, अतः तुम्हे पारांचित् प्रायश्चित्त दिया जाता है। प्रभाचन्द्र बोला - भगवन् ! इस पाप से मेरा कैसे निस्तार होगा? गुरु ने कहा - किसी राजा को प्रतिबोध देने पर, तुम्हारा पाप से निस्तार होगा। वह प्रभाचन्द्र श्रीपुर के राजा श्रीधर को प्रतिबोध देने के लिए चला। राजा भी उसकी योग्यता देखकर अपनी पुत्री को पढ़ाने के लिए उसको सौंप दिया। उस राज्यकन्या को भरत नाट्यशास्त्र आदि पढ़ाते-पढ़ाते उन दोनों में प्रेम सम्बन्ध स्थापित हो गया, शारीरिक सम्बन्ध भी हो गया। राजा को संदेह होने पर उनके चरित्र का परीक्षण करने के लिए गुप्त रूप से रात्रि में आया। प्रभाचन्द्र को संदेह हो गया और उसने यह काव्य कहा अहो संसारजालस्य, विपरीतः क्रियाक्रमः । न परं जड [ल] जन्तूनां, धीवरस्यापि बन्धनम्॥ अर्थात् - अहो! संसार--जाल का कैसा विपरीत कार्यक्रम है, जहाँ जलचर जीवों की अपेक्षा धीवर भी जाल में फँस जाता है। यह सुनकर राजा ने अपनी पुत्री उसी को प्रदान कर दी अर्थात् उसी के साथ विवाह कर दिया। क्रमशः शिष्य के इस गर्हित स्वरूप को गुरु ने भी सुना और खिन्न होकर निम्न पद्य कहा - संसारे हयविहिणा, महिलारूवेण मंडिअं कूडं। बज्झंति जाणमाणा, अयाणमाणा न बझंति॥ 60 शुभशीलशतक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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