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________________ अर्थात् - संसार में यह देखा जाता है कि जानकार मनुष्य भी भाग्य विपरीत होने पर महिला के रूप- जाल में बंध कर विनाश को प्राप्त होता है और इसके विपरीत ज्ञानी मन से भी इस कूट बंधन में नहीं फँसता है । इसके उत्तर में शिष्य ने निम्न श्लोक लिखकर गुरु के पास भेजा तावन्महत्त्वं पाण्डित्यं, यावत् ज्वलति नाङ्गेषु, हतः कुलीनत्वं अर्थात् - पाण्डित्य, कुलीनता और विवेक का महत्त्व तभी तक है। जब तक कि कामदेव के बाणों से मानव के प्रत्येक अंग दग्ध नहीं हो जाते । नान्यः नान्यः गुरु की शिक्षा को भी अमान्य करता हुआ जब वह भोग - लिप्सा में डूब गया तब गुरु ने सोचा : कुतनयादाधि-र्व्याधिर्नान्यः सेवकतो दुःखी, नान्यः विवेकिता । पञ्चेषुपावकः ॥ Jain Education International - क्षयाऽऽमयात् । कामुकतोऽन्धलः ॥ अर्थात् - संसार में कुपुत्र से बढ़कर कोई आधि नहीं है, क्षय रोग से बढ़कर कोई व्याधि नहीं है, पराधीनता से बढ़कर कोई दुःख नहीं है और काम - ज्वर से बढ़कर कोई अन्धकार नहीं है 1 - प्रभाचन्द्र सांसारिक सुख भोगों में आकण्ठ डूब जाने के कारण अपनी समस्त विद्याओं को भूल गया, मूर्ख हो गया । कहा है : भ्रातरं तथा । नारीसक्तो जनस्तातं, पितरं विद्यां न विन्दते लक्ष्मी वानिव क्वचिदेव तु ॥ अर्थात् - जो मनुष्य नारी में आसक्त हो जाता है, वह अपने पिता, चाचा, भ्राता और विद्या को भी पहचान नहीं पाता । लक्ष्मीमान होते हुए कदाचित् उसका दुरुपयोग कर बैठता है । भी इस प्रकार कुछ लोग नारी के हाव-भाव में लुब्ध होकर अपने करणीय और अकरणीय कृत्यों को भी नहीं पहचान पाते हैं । शुभशीलशतक For Personal & Private Use Only 61 www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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