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________________ देता हूँ कि तुम यहाँ से जाओ और अपने पुत्र के साथ ही मेरे यहाँ आना अन्यथा नहीं। तिलोत्तमा ने सोचा - मेरे पतिदेव को राजा का अहंकार होने के कारण मेरे से बदला ले रहे हैं। खैर! वह तिलोत्तमा अपने पीहर चली गई और पिता के पास से द्रव्य लेकर अपने घर से राजमहल तक गुप्त सुरंग बनवाई । सुरंग के अन्तिम छोर पर देवविमान के समान बड़ा महल बनवाया। वहाँ बबूल और बैर का वृक्ष लगाया। उस महल में बढ़िया पलंग आदि लगवाए। तिलोत्तमा पाँच सखियों के साथ देवी के समान विशिष्ट अलंकारों को धारण कर ताम्बूल चर्वण करती हुई वहाँ रहने लगी। उन महलों में अनेक प्रकार के वादित्र बजने लगे। उन वादित्रों की ध्वनि राजा के कर्णों तक पहुँची और उस स्थान को देखने की इच्छा हुई। इधर तिलोत्तमा ने चतुर सेविका को राजा के पास भेजा। राजा ने पूछा – तुम कौन हो? तिलोत्तमा ने कहा - मैं विद्याधर पवनवेग की पुत्री की सेविका हूँ और मेरा नाम ज्ञानवती विद्याधरी है। - राजा सोचने लगा - जिसकी सेविका ही इस प्रकार सौन्दर्यवती हो तो वह न जाने कैसी होगी? राजा ने प्रकट रूप से कहा - जहाँ तुम्हारी स्वामिनी हो वहाँ मुझे ले चलो। सेविका ने कहा -- जैसा आपको प्रिय हो, वही मैं करूँगी किन्तु वहाँ आप अकेले ही जा सकते हैं। राजा ने खुशी-खुशी ही कहा- कोई बात नहीं, मैं अकेला ही चला जाऊँगा। उसकी सेविका ने उसकी आँखों पर पट्टी बांधी और अपने साथ उसे ले चली। महलों में पहुँच कर उसकी आँखों की पट्टी खोल दी और स्वयं भी लौट गई। पट्टी खुलने पर राजा ने अपने समक्ष दिव्यरूपधारिणी तिलोत्तमा 144 शुभशीलशतक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003993
Book TitleShubhshil shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2005
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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